गुरुवार, 21 नवंबर 2013

सारा देश श्मशान ...!

यदि  जनता  के  मन  को
भांप  पाना 
इतना  आसान  होता
तो  कोई  भी  सरकार  कभी
सत्ता  से  बाहर  न  होती !

यदि  जनता  नृशंस  हत्यारों  के  इरादों  से
परिचित  न  होती
तो  सारा  देश
श्मशान  बन  गया  होता

यदि  जनता  के  ऊपर  राज  करने  का  सपना
देखने  वाले
ज़रा-से  मनुष्य  भी  होते
तो  सर-आंखों  पर  न  बिठा  लेती  जनता ?!!!

                                                                     ( 2013 )

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

.

बुधवार, 20 नवंबर 2013

किसलिए, जहांपनाह ?

क्या  कोई  बता  सकता  है
कि  बंदूक़  से  निकली  गोली
किसकी  जान  लेगी
खेत  में  छुपा  हुआ  सांप
किसको  डसेगा
खूंटे  से  छूटा  हुआ  पागल  सांड़
किसको  रौंदेगा
रैबीज़  से  परेशान
आवारा  पागल  कुत्ता
किसको  काटेगा
किसके  हिस्से  में  आएगी
ज़मीन   में  दबी  हुई  सुरंग ???

मौत  उसी  जगह
उसी  दिन
उसी  समय  आएगी
जहां  तय  होगी

तय  न  हो  तो
ठोकर  भी  नहीं  लगती  पांव  में !

फिर  यह  सुरक्षा  किसलिए,  जहांपनाह ?
किसका  भय  है  शाहे-आलम
किसके  नाम  से  थर-थर  कांप  रहे  हो
तुम,  ता  ना  शा  ह !!!!

                                                              ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

.

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

सात आकाश भी कम...

वह  नृशंस  हत्यारा
जब  भी  खाना  खाने 
बैठता  है
अपने  कारनामों  का  वीडिओ
चला  लेता  है

उसे  अपने  गुर्ग़ों  के
काटो-मारो  के  स्वर
वैदिक  ऋचाओं  जैसे  लगते  हैं
और  वह
अपने-आप  को
देवासुर  संग्राम  का  महानायक
समझने  लगता  है

भय  से  थर-थर  कांपते
अंग-भंग  किए  जाते
ज़िंदा  जलाए  जाते
मनुष्यों  के  आर्त्तनाद
उसकी  भूख  बढ़ा  देते  हैं
और  वह  अपनी  रक्त  की  प्यास  बुझाने
नए  तरीक़े  सोचने  लगता  है …

वह  दिग्विजय  करने  निकला  है
सारे  देश  में
नए  गुर्ग़े  और  नए  शिकार
तलाश  करने…

वह  जहां-जहां  जाता  है
आस-पास  के  सारे  रक्त-पिपासु
इकट्ठे  हो  जाते  हैं
प्रेरणा  लेने

मनुष्यता  के  लिए
सबसे  बड़ा  संकट  है
एक  निर्लज्ज  तानाशाह
सात  आकाश  भी  कम  हैं
उसकी  निर्लज्ज्ता  ढंकने  के  लिए !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल

.

सोमवार, 18 नवंबर 2013

तुम्हारे हाथ के पत्थर ...!

चलो  बस  भी  करो
बातें  बहुत-सी  हो  चुकीं
आ  जाओ  अब
मैदान  में  ....

देखो
तुम्हारे  शत्रुओं  के  पास
क्या-क्या  है
नए  हथियार  हैं
तकनीक  है
रणनीतियां  हैं
सब  तरफ़  से  घेरने  को
ड्रोन  हैं
बम  हैं
रसायन  हैं
तुम्हें  अंधा  बनाने  को
तुम्हारे  घर  जलाने  को
तुम्हारे  हाथ-पांव  तोड़  कर
लाचार  करने  को
भयानक  सर्दियों  में
बर्फ़-सा  पानी
तुम्हारी  चेतना  का  सर  झुकाने  को ....

तुम्हारे  पास  भी  तो  है
बहुत-कुछ
स्वप्न  हैं  आकांक्षाएं  हैं
जलन  है  क्रोध  है
बेचैनियां  हैं  भावनाएं  हैं
सड़क  पर  ढेर  से  पत्थर  पड़े  हैं
हाथ  ख़ाली  हैं …

तुम्हारे  हाथ  के  पत्थर  बहुत  हैं
शत्रु-सेना  का
मनोबल  तोड़ने  को …!

                                                   ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल

.

शनिवार, 16 नवंबर 2013

मरना ही चाहो !

बहुत  शौक़  है  न  तुम्हें
सच  बोलने
जानने  और  समझने  का
तो  तय  कर  लो
कि  कब  और  कैसे  मारे  जाना
पसंद  करोगे....

जीने  कौन  देगा  तुम्हें
न  सरकार,  न  पूंजीपति
न  ग़ुंडे-बदमाश

अदालत  भी  क्या  करेगी
दो  सिपाही  तैनात  करवा  देगी
सुरक्षा  के  नाम  पर
जो  मौक़ा  मिलते  ही  बिक  जाएंगे
तुम्हारे  दुश्मनों  के  हाथों !

पढ़े-लिखे  हो
बेहतर  है  नौकरी  कर  लो
किसी  पूंजीपति  के  यहां
कहो  तो  चपरासी  बनवा  दें
नगर-पालिका  में

कहां  पड़े  हो
सच-झूठ  के  चक्कर  में
भविष्य  देखो  अपना
और  अपनी  संतानों  का  !

अब  अगर  मरना  ही  चाहो
तो  तुम्हारी  मर्ज़ी !

                                        ( 2013 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

.

कठपुतलियों के इरादे !

ये  कठपुतलियां  कौन  हैं
जिनकी  न  डोर  दिखाई  देती  है
न  डोर  थामने  वाली  उंगलियां
मगर
जिनकी  एक-एक  गति  पर
उथल-पुथल  हो  उठता  है
पूरा  देश  ?!

बहुत  भयंकर  हैं
इन  कठपुतलियों  के  इरादे
और  उनसे  भी  भयानक  हैं
इन्हें  नचाने  वाली  उंगलियों  की  गतियां
वे  हिलती  हैं  तो  कहीं  न  कहीं
गिरने  लगती  हैं
लाशें !
लोग  जैसे  भूल  ही  जाते  हैं
कि  वे 
जीते-जागते,  बुद्धिमान  मनुष्य  हैं
कठपुतलियां  नहीं  हैं  महज़....

वे  अपना  नाम-पता,
धर्म-संस्कृति,  इतिहास  और  वर्त्तमान
सब  कुछ  भूल  जाते  हैं
और  तब्दील  होते  चले  जाते  हैं
मानव-बमों  में !




नहीं,  सिर्फ़  सपने  देखने

और  सपने  में  डर  जाने  से  नहीं  चलेगा
अब  तलाशने  ही  होंगे 
इन  कठपुतलियों  को  नचाने  वाले  धागे
और  वे  बदनीयत  हाथ
तोड़  देनी  होंगी  वे  उंगलियां
जिनके  वीभत्स  संकेतों  पर
नष्ट  होती  जा  रही  है
संसार  के  श्रेष्ठतम्  युवाओं  की
पूरी  की  पूरी  पीढ़ी  !

सिर्फ़  सच्चे  देशभक्त  ही
बचा  सकते  हैं  अब  इस  देश  को !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

.

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

सेठ की जूठन चाटे बिना ...!

सब  खाते  हैं
सेठ  का  दिया  हुआ

ज़ार  भी
ज़ार  के  दुश्मन
और  उनके  भी  दुश्मन....

लगता  ऐसा  है
कि  सेठ  की  जूठन  चाटे  बिना
भूखे  न  मर  जाएं
देश  के  सियासतदां !

बहुत  थोड़े  ही  हैं
हालांकि
सेठ  का  दिया  खाने  वाले
कोई  1000-1200
या  शायद  12000  या  120000 …
मगर  इतने  ही  भिखारियों  के  दम  पर
सेठ  1200000000   मेहनतकश  इंसानों  के  गले
छुरी  फेरता  रहता  है
साल  दर  साल  !

मगर  इस  बार
मेहनतकश  भी  तैयार  हैं
सेठ 
और  उसके  दलाल
भिखारियों  के  अरमानों  पर
पानी  फेरने  के  लिए !

जो  भी  हो
इस  बार  चूक  जाने  वाला
हारेगा  तो  जीवन-भर  के  लिए

और  जनता  बिल्कुल  तैयार  नहीं  है
इस  बार
सेठ  और  उसके  दलालों  को
बख्शने   के  लिए !

                                                         (  2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल

.

सोमवार, 11 नवंबर 2013

अपनी सेनाएं ले आओ !

शत्रुओं  के  रक्त  की  प्यास
क्या  इतनी  अमानवीय  होती  है
कि  पीढ़ी-दर-पीढ़ी
खोखला  करती  चली  जाए
मनुष्य  के  गुण-सूत्रों  को
और  फिर  भी
अतृप्त  ही  रह  जाए  ???

मुझे  विश्वास  है
कि  मेरी  ही  भांति
आपमें  से  अधिकांश
जूझ  रहे  होंगे  इसी  प्रश्न  से....

यहीं  कहीं  है  वह
पवित्र  बोधि-वृक्ष
जिसकी  छाँह  में  बैठ  कर
सिद्धार्थ  गौतम  बन  जाते  हैं
गौतम  बुद्ध
यहीं  कहीं  है
वह  लिच्छवियों  की  राजधानी
जिसका  भावी  शासक
सर्वस्व  त्याग  कर
हो  जाता  है  दिगंबर
यहीं  है  वह  कलिंग  का  युद्ध-क्षेत्र
जहां  शत्रुओं  के  शव  देख  कर
सम्राट  अपना  राज-पाट  छोड़  कर
धर्म  का  शरणागत  हो  जाता  है…

अरे  हां,
पवित्र  साबरमती  तो
तुम्हारे  घर  के  आसपास  ही
बहती  है  न  कहीं ???

यदि  इतने  उदाहरण  सामने  होते  हुए  भी
अतृप्त  है
तुम्हारी  मानव-रक्त  की  तृष्णा
तो  मैं  तैयार  नहीं  हूं
यह  मानने  को
कि  तुम  और  मैं
एक  ही  देश
एक  ही  धर्म 
एक  ही  प्रजाति  के  जीव  हैं  !

तुम  अपनी  सेनाएं  ले  आओ
मैं  तुम्हें  अस्वीकार  करता  हूं
अपने  प्रतिनिधि  के  रूप  में  !!!

                                                      ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

किस क़दर झूठ...!


एक  चम्मच  से  दूध  पीने  वाला
दूसरे  को  शौक़  है  नस्ल  के  आधार  पर
जनसाधारण  के  नरसंहार  का....

सोच  कर  बताइए  अच्छी  तरह  से
कि  ऐसे  ही  शासनाध्यक्ष  चाहिए  क्या
आपको ???

पहले  को  यह  भी  नहीं  पता
कि  कहां  होता  है
बेर  का  मुंह
दूसरा  दावे  के  साथ  कहता  है
कि  आलू, टमाटर  सारे  देश  में  जाते  हैं
उसके  राज्य  से  !

पहला  शान  से  बताता  है
कि  उसकी  सरकार  ने
सबको  अधिकार  दे  दिया  है
भरपेट  भोजन  का !
दूसरा  उससे  भी  चार  क़दम  आगे
अपने  दल  की  सरकारों  के
गुणगान  में

आप  सब  जानते  हैं
कि  किस  क़दर  झूठ  बोलते  हैं  दोनों

प्याज़  क्या  भाव  मिल  रही  है
आजकल
आपके  शहर  में  ?
आपको  याद  है  कि  अमूल  के  दूध  का  भाव
क्या  था
आज  से  दस  साल  पहले ????

                                                                ( 2013 )

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

.

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

डोर खींचने वाले ...!

वहां  बैठे  हैं
डोर  खींचने  वाले
वॉशिंग्टन
नागपुर
और  मुम्बई  में....

सब  जानते  हैं
कि  अपनी  मर्ज़ी  से
हिल  भी  नहीं  सकतीं
कठपुतलियां…!

डोर  खींचने  वाले
तय  करते  हैं
कठपुतलियों  की  हर  गतिविधि
यह  भी
कि  कुल  कितनी  जानें  ली  जाएंगी
लोकतंत्र  के  महा-उत्सव  में
कैसे  नियंत्रण  में  रखी  जाएंगी
कठपुतली-सेनाएं
कितनी  ख़ुराक़  ज़रूरी  है
इन  मनुष्य-भक्षी  कठपुतलियों  के  लिए !

सवाल  यह  भी  है
कि  अपने  ख़ून-पसीने  से
देश  का  भाग्य  गढ़ने  वाले
क्या  सचमुच  इतने  बेचारे  हैं
कि  तोड़  न  सकें
कठपुतलियों 
और  उनकी  डोर  हाथ  में  रखने  वालों  के
देश-द्रोही  कुचक्र ???

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

.

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

कोई हथियार रख लो !

घर  से   बाहर  निकलो
तो  जांचते  जाना
कि  कहीं  कैमरे  तो  नहीं  लगे
 आबादी  से  दूर  आते  ही
ध्यान  रखना
कि  पांव
ज़मीन  में  दबी  सुरंगों  पर
न  पड़   जाए

जहां  कहीं  भी  भीड़  जमा  देखो

चुपचाप  गुज़र  जाना

इस  दुर्द्धर्ष  समय  में
कोई  भरोसा  नहीं
कि  पुलिस
कहां  'एनकाउंटर'  कर  दे
यह  भी  भरोसा  नहीं
कि  पकड़  कर  जेल  में
न  डाल  दिए  जाओ  …

कोई  भी  ग़ुंडा-बदमाश
कहां  गोली  मार  दे
या  अगर  तुम  खाते-पीते  घर  के
नज़र  आते  हो
तो  अपहरण  न  कर  लिया  जाए
तुम्हारा  !

देखो,  समय  सचमुच  अच्छा नहीं  है
आम  आदमी  के  लिए  !
बेहतर  है,  अपने  साथ
कोई  हथियार  रख  लो
सुरक्षा  के  लिए  !

                                                                   ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

.

रविवार, 3 नवंबर 2013

कैसा यह परिवर्त्तन ?

शोर  उठा  है  इस  नगरी  में  फिर  दीवाली  आई  है
कुछ  दीवाने  चीख़  रहे  हैं  लो  ख़ुशहाली  छाई  है

समय  बांसुरी  मौन  पड़ी  है  देख  टूटती  हर  आशा
कौन  कुबेर  भला  समझेगा  आहत  स्वरलिपि  की  भाषा

विद्युत् -मणियों  की  मालाएं  चूम  रहीं  तारों  के  मुख
माटी  के  दीपक  रोते  हैं  देख-देख  कुटियों  के  दुःख

दरबारों  में  गीत  सुनाते  हैं  चारण  आंखें  मींचे
भूख  भूख  का  आर्त्तनाद  है  विरुदावलियों  के  पीछे

जलें  झोंपड़े  मज़दूरों  के  धरती  मां  के  भाग  जले
लोकतंत्र  यह  कैसा  जिसमें  मजबूरों  पर  आग  चले

बने  सारथी  जो  प्रकाश  के  काले  उनके  भाग  हुए
विश्वासों  के  उजले  मोती  पल  में  जल  कर  राख़  हुए

राजमहल  की  जगमग-जगमग  लूट  रही  सारा  गौरव
और  झोंपड़ी   गुमसुम-गुमसुम  झेल  रही  सारा  रौरव

यह  प्रकाश  का  न्याय  नहीं  है  अंधियारे  का  नर्त्तन  है
हाय ! रौशनी  भूल  गई  सब  कैसा  यह  परिवर्त्तन  है  !

नहीं  नहीं  मत  कहो  रौशनी  यह  पागल  अंधियारा  है
सूरज  के  बेटों  को  इसने  गला  घोंट  कर  मारा  है

सदियों  से  जारी  शोषण  का  बदला  तो  लेना  होगा
अब  बलिदान  ज़रूरी  है  आगे  आ  कर  देना   होगा !

                                                                         ( दीवाली, 1975 )

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

.


शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

जब तक जीवित है संविधान !

'भारत  एक  सार्वभौम, लोकतांत्रिक,
धर्म-निरपेक्ष, समाजवादी  देश है…!'

सुन  रहे  हो
पूंजीवाद  के  झंडाबरदारों ?
ओ  नीली  पगड़ी  वालों,  सुन  रहे  हो ?
'समाजवादी'… 'पूंजीवादी'  नहीं। …

और  तुम  सुन  रहे  हो  या  नहीं
हिटलर  के  चेलों
काली  टोपी  वालों !
'धर्म-निरपेक्ष' … 'हिन्दू  राष्ट्र'  नहीं  !

जब  तक  संविधान  जीवित  है
भारत  का
तब  तक
या  तो  संविधान  का  पालन  करो
या  देश  छोड़  दो !

चार  पूंजीपतियों  के  वोटों  से
नहीं  बनती  सरकार
किसी  भी  लोकतांत्रिक  देश  में
न  ही  कोई  अमरीकी  आने  वाला  है
तुम्हारी  सहायता  को !

ओ  महामूर्खों !
ज़रा  अपनी  स्मरण-शक्ति  को  टटोलो
और  याद  करो
1977, 1996, 2004 को

सरकार  तो
आम  आदमी  ही  बनाएगा
भारत  में
जब  तक  जीवित  है  हमारा  संविधान !

जिसे  मुग़ालता  हो
अपने  महानायकत्व का
वह  आ  जाए  नीचे
यथार्थ  के  धरातल  पर !

                                                                   ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

.

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

अति-नायक के हाथ सत्ता

कोई  नहीं  जानता
कि  क्या  है
अति-नायक  के  मन  में
जैसे  लोग
नहीं  जानते  कि
कब-किस  करवट  बैठ  जाए
ऊंट  !

जैसे  कोई  नहीं  जानता
कि  पागल  कुत्ता
किसको  काटेगा  अंतत:

कोई  यह  भी  नहीं  जानता
कि  तक्षक  सांप
किस  कोने  में  छिपा  बैठा  है
और  कब  हमला  कर  देगा
किसान  के  शरीर  पर....

शेर,  भालू ,  मगरमच्छ
और  शार्क  के  इरादों  को  भी
नहीं  जानता  कोई  भी....

अति-नायक   कम  नहीं  है
किसी  भी  हिंसक  पशु  से
मौक़ा  मिलते  ही
किस  पर  टूटेगा  उसका  क़हर
यह  न  आप  जानते  हैं
न  हम …

कुछ  लोग  फिर  भी
चाहते  हैं
अति-नायक  के  हाथ  में
सत्ता  सौंपना 

जिसकी  मति  मारी  गई  हो
कौन  समझा  सकता  है
भला  उसे ?

हमने  तय  किया  है
कि  हम  नहीं  होंगे
किसी  भी  अति-नायक  के  समर्थन  में …

आप  भी  तय  कर  ही  लें
अपने  बारे  में !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

.

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

श्रद्धांजलि: श्री राजेंद्र यादव

कल रात लगभग 12 बजे 'हंस' के संपादक और प्रसिद्ध कहानीकार एवं विचारक, हिंदी साहित्य से सवर्ण इजारेदारी ख़त्म करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अजेय योद्धा श्री राजेन्द्र यादव संसार से विदा हो गए !
मैं दुःखी हूं कि उन्हें लेकर जो ताज़ा विवाद उठा, उसमें मैं उनके विरोध में खड़ा रहा। वे मुझे कब और कैसे जानते थे, यह मैं उनसे कभी पूछ नहीं पाया। अनेक बार साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यक्रमों में उनसे मेरा सामना होता रहा किंतु मेरे और उनके बीच सम्बंध नमस्कार-प्रति नमस्कार से आगे नहीं बढ़ पाया। उसका एक कारण यह रहा कि मैं इतना महत्वाकांक्षी कभी रहा ही नहीं कि 'हंस' में रचना प्रकाशित करवा कर चर्चित होना चाहूं। 1982 में 'हंस' का पुनर्प्रकाशन करने के पूर्व जो पत्र मुझे लिखा था, वह अभी भी सुरक्षित है मेरे पास। यही वह समय था जब मैं सृजनात्मक रूप से सर्वाधिक सक्रिय हुआ करता था तथा 'हंस' से एक रचनाकार के रूप में जुड़ कर मैं अपने 'कैरिअर' को बहुत आगे बढ़ा सकता था।
अस्तु। मेरे और राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में कभी कोई ऐसी समानता मुझे नज़र नहीं आई कि मैं उनके पास जाने की इच्छा कर पाता, यद्यपि, मैं जानता था कि मेरे आगे बढ़ते ही वे मुझे गले से लगा लेते, ठीक वैसे ही जैसे कि उन्होंने मेरे समकालीन अनेक कहानीकारों-कवियों को लगाया।
मैं वास्तव में बेहद हैरान हूं कि मैंने सुबह से अभी तक उन रचनाकार-मित्रों की ओर से राजेन्द्र जी के निधन पर श्रद्धांजलि-स्वरूप एक भी शब्द न सुना, न पढ़ा जिनका साहित्य में जन्म ही राजेन्द्र जी और 'हंस' के माध्यम से हुआ… कृतघ्नता की सीमा यदि यह नहीं तो और क्या हो सकती है ? जिन्हें  अपने साहित्यिक व्यक्तित्व के लिए राजेन्द्र जी का आपादमस्तक, आजीवन  ऋणी होना चाहिए, जिनके वे न केवल साहित्यिक बल्कि आध्यात्मिक गुरु भी थे, वे ऐसे चुप हैं जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं !
बहरहाल, हिंदी साहित्य सदैव राजेन्द्र जी का ऋणी रहेगा भले ही उन्हें चाहे जितना नकारा जाए !
अलविदा, राजेन्द्र जी।

  ( 29/10/2013 )
                                                                                                                                 
-सुरेश  स्वप्निल

दूर रहें हमारे शहर से !

शेरों  को  हक़  नहीं
कि  वे 
खुले  आम  घूमें  शहर  में

उनकी  सत्ता  सीमित  है
अपने  वन  तक
वहीं  रहें
उन्हीं  का  शिकार  करें
जो  रियाया  है  उनकी !

वैसे  भी 
डरता  कौन  है  शहर  में
जंगली  सूअरों  और  शेरों  से
चाहे  वे  गीर  से  आएं
चाहे  कान्हाकिसली  से  !

शेरों  से  गुज़ारिश  है
कि  यहां-वहां  न  घूमें
खुले  आम  शहर  में
एक  चेतावनी  भी  है
कि  शहर  के  बच्चे
बहुत  शैतान  हो  गए  हैं
आजकल
उन्हें  शौक़  लग  चुका  है
शेरों  के  गले  में
पट्टा  डाल  कर
कुत्तों  की  तरह  घुमाने
और  बंदर  की  तरह  नचाने  का !

अपनी  सत्ता  और  सम्मान  प्यारे  हैं
तो  दूर  रहें  हमारे  शहर  से
सारे  हिंस्र, वन्य  पशु  !

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

तैयारी के बिना ...

मौसम  बदल  रहा  है
बहुत  तेज़ी  से
गर्म  कपड़े  सहेज  कर
रखे  हैं  या  नहीं  ?

कोई  भरोसा  नहीं  इस  बार
कि  मौसम 
कहां  तक  दिखाएगा  अपने  तेवर…
कोशिश  करो  कि  स्वस्थ  रह  सको
इस  बार

चेताना  ज़रूरी  है
क्यूंकि  राजनीति  से  अछूता  नहीं  अब
जीवन  का  कोई  भी  पक्ष
यहां  तक  कि  मौसम  भी
और  जीवनोपयोगी  वस्तुओं  के  भाव  भी

सरकार  की  नीयत  का  भी  तो
कोई  भरोसा  नहीं
और  न  ही  विपक्ष  की
रणनीति  का  !

तैयारी  के  बिना
अब  जीवन  का  भी
क्या  भरोसा  ?

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

.

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

नमो-नमो ????

चुनाव  आते  हैं  हमेशा
एक  दुर्भाग्य  की  तरह
और  साथ  ले  आते  हैं  अपने
चोर-लुटेरों  के  नए  गिरोह  !

संविधान  तो  कहता  है
कि  जन-प्रतिनिधि
सेवक  होते  हैं  जनता  के …

क्या  आपने  कभी  देखा  है
कि  आपके  चुने  हुए  प्रतिनिधि
पूछने  आए  हों  आपसे
आपके  दुःख-दर्द
चुनाव  के  बाद ?

क्या  महसूस  किया  है  आपने
कि  कभी  कम  हुई  हों
दैनिक  उपभोग  के  सामान
और  सेवाओं  की  क़ीमतें
नई  सरकार  आने  के  बाद ?

और  उन्हें
आप  कब  सीखेंगे
जन-प्रतिनिधियों  से  हिसाब  मांगना
और  कब  छोड़ेंगे
उन्हें 
देवता  मान  कर  पूजना ??

और  क्या  है  यह  मूर्खता
नमो-नमो,  नमो-नमो ????

                                                     (2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

.

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

श्रद्धांजलि : मन्ना दा

                          श्रद्धांजलि : मन्ना  दा

बात संभवत: 1977-'78 की है। मैं अपनी रोज़ी-रोटी से निवृत्त हो कर घर लौट कर आ रहा था। रास्ते में अचानक एक मर्म-भेदी चीत्कार जैसे कोई चातक अपने बिछुड़े हुए साथी को पुकार रहा हो, सुनाई पड़ी : 'पिया ssss ओ ओ ओ '… ! मैं जहां था वहीं ठिठक कर रह गया। रेडियो पर एक नया गीत बज रहा था। गीत ख़त्म होने पर ध्यान आया कि मैं बीच सड़क पर खड़ा फूट-फूट कर रो रहा हूं …
कोई अच्छा गीत सुन कर इस तरह रो पड़ना मेरे साथ न तो कोई अजीब बात थी और न नई बात। अक्सर मैं अपनी अम्मां के गीत सुन कर भी रो देता था। लेकिन यह एक अद्भुत संगीत-रचना, एक अद्भुत गायन था। मुखड़ा था 'पिया मैंने क्या किया, मोहे छोड़ के जइयो न', आवाज़ मन्ना दा की थी, यह तो ख़ैर समझ में आ गया किंतु अन्य विवरण मैं नहीं सुन पाया। मन पर इस गीत का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था, घर पहुंच कर सीधे अम्मां की गोद में सर रख कर काफ़ी देर तक सिसकता रहा। अम्मां मेरी आदत से परिचित थीं सो बिना कुछ पूछे मेरे बालों  में हाथ फेरती रहीं। ….
लगभग दो-तीन महीने तक वह गीत लाख चाहने पर भी मैं नहीं सुन पाया। एक दिन 'रंग महल थियेटर' के सामने से गुज़रते हुए फ़िल्म 'उस पार' के पोस्टर्स देखे, टिकिट खिड़की ख़ाली पड़ी थी सो आराम से टिकिट ले कर फ़िल्म देखने बैठ गया। यह फ़िल्म 19वीं सदी की एक फ़्रेंच कहानी पर आधारित अत्यंत भावपूर्ण प्रेम-त्रिकोण है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ी, पता नहीं कहां से मन में मन्ना दा का गाया वही गीत बार-बार गूंजने लगा। मध्यांतर में भी वही गीत याद आता रहा…. अंततः, कुछ ही समय बाद फ़िल्म में वह गीत आ ही गया !
जहां तक मेरी व्यक्तिगत रुचि का प्रश्न है, मुझे आज भी मन्ना दा के गाए हुए गीतों में यही सर्वश्रेष्ठ लगता है। वैसे मुझे मन्ना दा के गाए लगभग सभी गीत समान रूप से प्रिय हैं, विशेष रूप से उनके और रफ़ी साहब के साथ में गाए गीत, यथा, 'न तो कारवां की तलाश है' ( फ़िल्म 'बरसात की रात' ), 'वाक़िफ़ हूं ख़ूब इश्क़ के तर्ज़े-बयां से मैं' ( फ़िल्म 'बहू बेगम ), 'एक जानिब है शम्मे-महफ़िल, एक जानिब है रूहे-जाना', आदि-आदि।
यह भी मुझे लगता रहा है कि कम से कम हिंदी फ़िल्म-जगत ने उनके साथ न्याय नहीं किया, अन्यथा मन्ना दा के गाए गीतों की संख्या कई गुना अधिक होती….
आज दिन भर आकाशवाणी और समाचार-चैनल्स पर आप मन्ना दा के गीत सुनते रहेंगे, मैं चाह कर भी और आगे लिखने की मन:स्थिति में नहीं हूं, अतः आप से सम्प्रति क्षमा चाहूंगा। किसी दिन मन्ना दा के गायन पर विस्तार से लिखूंगा, यह वादा रहा !

अलविदा, मन्ना दा !

                                                                                                                       ( 24 अक्टू. 2013 )

                                                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

.

बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

समय विपरीत हो तो पुलिस ...

'देश-भक्ति,  जनसेवा'
अच्छा  लगता  है  न
पढ़  कर,  सुन  कर…

और  देख  कर ???

रोंगटे  खड़े  हो  जाते  हैं
जब  कोई  लहीम-शहीम  लठैत
खड़ा  हो  जाता  है
आंखों  के  सामने !

सच  बताइए, 
डर  नहीं  लगता  क्या  आपको
पुलिस  के  नाम  से ?

बच्चा-बच्चा  जानता  है
कि  पुलिस  क्या  होती  है

पुलिस  यानी  डंडा
पुलिस  यानी  बंदूक
यानी  मशीन गन
यानी  'वॉटर कैनन'….

पुलिस  यानी  सरकार  का
सबसे  विश्वस्त  अनुचर
आम  आदमी  के  विरुद्ध…

भारत  में  सुरक्षित  रहना  है  तो
पुलिस  के  हत्थे  मत  चढ़ना  कभी !

समय  विपरीत  हो
तो  पुलिस 
ख़ुद  अपने  बाप  की  भी  नहीं  होती !

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

.


मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

व्यर्थ आशाएं ...

कुछ  आशाएं 
एकदम  व्यर्थ  होती  हैं
जैसे  राजनीति  में  आ  कर  भी
साफ़-सुथरे  बने  रहना…

जैसे  काजल  की  कोठरी  में
जा  कर
श्वेत  वस्त्र  काले  किए  बिना
लौट  पाना

जैसे  विकास  की  गति  बढ़ा  कर
मंहगाई  को
नियंत्रण  में  रख  पाना
और  समाज  के  सभी  वर्गों  से
न्याय  कर  पाना

जैसे  गुरुग्रंथ  साहिब  के  उपदेशों  को
ठीक  से  समझ  कर  भी
पूंजीवादी  बने  रहना  !

                                                        ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

.

रविवार, 20 अक्टूबर 2013

असमानता का लोकतंत्र

जब  कुत्तों  की  सरकार  हो
तो  कौन  रोकेगा
भेड़ियों  को  शिकार  से ?

असमानता  का  लोकतंत्र
ऐसे  ही  चलता  आया  है
ऐसे  ही  चलेगा
आगे  भी

लेकिन  बहुत  देर  तक
नहीं  चल  सकता  ऐसे

एक  ही  मार्ग  है
जंगल  में  लोकतंत्र  बचाने  का
कि  सारे  हिंस्र  पशुओं  के
नख-दन्त  तोड़  दिए  जाएं…

जीवित  रहना  है
तो  उठाने  ही  होंगे
सारे  ख़तरे !

                                              ( 2013 )
                                     -सुरेश  स्वप्निल

.

न्याय की मांग

क़िले  के  अवशेषों  में
भटकती  हैं  आत्माएं
युध्द  में  मारे  गए  सैनिकों  की …

वे  शत्रुओं  के  वंशजों  के  साथ-साथ
अपने  ही  राजा  के  वंशजों  को  भी
ढूंढ  रही  हैं
कोई  दो-तीन  सौ  वर्ष  से

वे  आत्माएं 
न्याय  चाहती  हैं  अपने  वंशजों  के  लिए
अपने  राजा  के  वंशजों  से
और  क्षमा  चाहती  हैं
उन  शत्रुओं  के  वंशजों  से
जो  मारे  गए  थे
उनके  हाथों …

शरीर  की  मृत्यु  के  साथ  ही
जीवित  हो  उठती  है
मनुष्य  की  प्रज्ञा
प्रकट  हो  जाते  हैं  सारे  रहस्य
सत्य-असत्य 
और  उचित-अनुचित  के  भेद…

शरीर  की  मृत्यु  का  अर्थ
न्याय  और  अन्याय  के  बीच 
अंतर  की  मृत्यु
नहीं  होता
और  न  ही  अपराध  और  दण्ड  के
प्रतिमान  मर  जाते  हैं

दण्ड  तो  भोगना  ही  होगा
यदि  अपराधी  नहीं
तो  उसकी  तमाम  पीढ़ियों  को
अपराध  के  अंतिम  चिह्न
नष्ट  होने  तक….

मैं  जानता  हूं  कि   मुझे
'प्रतिक्रिया वादी',  'संशोधन वादी'
'भाग्य वादी'  ….
और  पता  नहीं  किन-किन  नामों  से
पुकारा  जाएगा 
हो  सकता  है  कि  मुझे
'पक्ष-द्रोही',  'वर्ग-द्रोही'
या  'धर्म-द्रोही',  'देश-द्रोही'  भी
मान  लिया  जाए ….

क्या  मृत्यु  का  भय
इतना  बड़ा  है
कि  मनुष्य 
न्याय  की  मांग  छोड़  दे… ?

क्या  शताब्दियां  बीतने  से
ख़त्म  हो  जाते  हैं
अपराध ????

                                            ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

.

शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

ज़िम्मेदार मीडिया ?!

एक  साधु  स्वप्न  देखता  है
कि  अमुक  मस्जिद  के  नीचे
अवशेष  हैं  किसी  मंदिर  के

और  भक्त-जन
ईंट  से  ईंट  बजा  देते  हैं  मस्जिद  की

फिर  एक  और  साधु  स्वप्न  देखता  है
कि  ध्वस्त  मस्जिद  के  प्रांगण  में
अवशेष  हैं 
कल्पित  मंदिर  के  64  स्तंभों  के

और  राजा 
ध्वस्त  मस्जिद के  प्रांगण  में
स्वप्न  के  आधार  पर
64  गड्ढे  खुदवा  देता  है  …

एक  और  साधु  स्वप्न  देखता  है
किसी  क़िले  के  परिसर  में
गड़े  हुए  1000  टन  सोने  का

और  सरकार  के  ज़िम्मेदार  विभाग
खोदना  शुरू  कर  देते  हैं
चिह्नित  स्थान  पर  …!

आज  मुझे  स्वप्न  आया  है
कि  संसद  भवन  से  राष्ट्रपति  भवन  तक
भूमि  के  नीचे
अवस्थित  है  50000  टन  हीरे  की  चट्टान  ….

अब  राजा  क्या  करेगा
सरकार  के  ज़िम्मेदार  विभाग  क्या  करेंगे
और  क्या  करेगा
देश  का  ज़िम्मेदार  मीडिया ?!!!

                                                                                   ( 2013 )

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

.

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

मनुष्य इतना निर्विकार ...!

लोग  सोचते  हैं
कि  कवि
कोई  अन्य  ही  प्राणी  होता  है
किसी  भिन्न  लोक  से  उतरा  हुआ

कि  उसे  न  भूख  लगती  है
न  प्यास
न  ही  उसे  ज़रूरत  होती  है
काम  करने 
या  पैसा  कमाने  की

कि  वह  हर  ऋतु  में
बना  रहता  है
एक  जैसा !

कि  वह  परे  होता  है
हर  दुःख-सुख  से
शोक  में  रोता  नहीं
न  हर्ष  में  हंसता  है

वह  तो  परमहंस  होता  है
कि  जिसे
दैहिक-दैविक-भौतिक  ताप
कभी  नहीं  व्यापते …

कोई  भी  मनुष्य
इतना  निर्विकार  नहीं  होता,  मित्रों !
कवि  भी  नहीं  !

                                                    ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

.

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

मात्र एक श्रद्धांजलि...!

अम्मां बताती  थीं  कि  कैसे
दौड़ते  हुए
चढ़  जाती  थीं  वे
रतनगढ़  मंदिर  की  सीढ़ियां
और  किस-किस  से  सीखे
उन्होंने  माता  के  भजन
उन्हीं  सीढ़ियों  पर  बैठ   कर
किसने  सिखाया  उन्हें
मैया  जी  की  भेंट  गाना

इसी  रतनगढ़  मंदिर  की  देन  तो  था
अम्मां  का  संगीत !

नहीं,  कोई  दोष  नहीं
मरने  वालों  का
और  न  माता  रानी  का
वे  तो  देने  वाली  हैं  सभी  को
मनचाहे  वरदान….

कल  जब  रतनगढ़  मंदिर  की  सीढ़ियों  पर
गिनी  जा  रही  थीं  लाशें
जब  सिंध-जैसी  नाले नुमां  नदी  में
बहती  देखी  गईं
बच्चे-बूढ़े  और  स्त्रियों  की  लाशें
मुझे  बहुत  याद  आई  अम्मां
और  'रतनगढ़'  वाली  मैया  की
बचपन  में  सुनी  कहानियां  ….
और  आल्हा-ऊदल  के
मुंह  में  ढाल-तलवार  दाब  कर
बाढ़  में  तैरने  के  क़िस्से  !

मैं  जानता  हूं  कि  इस  दुर्घटना  से
मेरा  या  मेरे  परिवार  का
कोई  लेना-देना  नहीं
कि  मेरी  अम्मां  को  गए
बीत  चुके  हैं  न  जाने  कितने  बरस
कि  हम  भाई-बहनों  ने
रास्ता  भी  नहीं  देखा
'रतनगढ़  वाली  माता'  के  मन्दिर  का ....

लेकिन  मैं  कैसे  भूलूं  कि
इन्हीं  माता  रानी  की  देन  थीं
मेरी  अम्मां
और  इन्हीं  के  नाम  पर
रखा  गया  था  अम्मां  का  नाम
किसी  मन्दिर  से  मिला  था  उन्हें  संगीत 
कि  इस  मन्दिर  के  प्रांगण  से
अभी  भी  नज़र  आता  है
मेरा  ननिहाल .....

गांव-रिश्ते  से
मरने  वाले  सब  के  सब  
रिश्ते में  आते  थे  मेरे.....

यह  कोई  कविता  नहीं  है
क्षमा  कीजिए  पाठक-गण....
यह मात्र  एक  श्रद्धांजलि  है 
एक  कवि  की
अपने  अनाम  रिश्तेदारों  के  नाम  !



शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

स्मृति का एक सिरा ...

सिर्फ़  एक  ही  तार  तो  टूटा  है
वायलिन  का
और  देखो,
सारे  स्वर  बिखर  गए
अनियंत्रित  हो  कर….

कभी-कभी  कितनी  महत्वपूर्ण
हो  जाती  हैं
न-कुछ  सी,  छोटी-छोटी  चीज़ें
जैसे  बिटिया  का  दिया  हुआ  रूमाल
और  उसमें  बसी  नर्म-नाज़ुक  ख़ुश्बू 
15-20  वर्ष  बाद  भी 
आ  ही  जाते  हैं  याद ...
जैसे  सर्दी  आते  ही  चुभने  लगते  हैं
स्मृतियों  में
माँ  के  बुने  हुए  स्वेटर
और  मफ़लर  ….

सिर्फ़्  एक  ही  तार
टूटा  था  वायलिन  का
मगर  याद  में  गूंजने  लगे  हैं
पिता  की  पसंद  के   
सैकड़ों  राग  ….

क्या  स्मृति  का  केवल  एक  सिरा
हाथ  में  आने  से
उथल-पुथल  हो  सकता  है
सारा  संसार  ?

लगता  तो  ऐसा  ही  है  !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

.

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

...तो अभिशप्त हैं आप !

आप  षड्यंत्रों  का  प्रतिकार  कैसे  करते  हैं ?
ख़ास  तौर  पर  वे
जो  सीधे  आपके
आपके  घर-परिवार
आपके  वर्ग,  आपकी  जाति,
आपका  समाज
या  देश  के  विरुद्ध  हों ?

आप  शायद  आवाज़  उठाते  हों
जोर-जोर  से
या  बुलाते  हों  अपने  साथियों,
समूहों   को  मदद  के  लिए
या  सिर्फ  प्रतीक्षा  करते  रह  जाते  हों
अगले  चुनाव  की….

हो  तो  यह  भी  सकता  है
कि  आप  कुछ  न   करते  हों
सह  जाते  हों
सारी   पीड़ा,  सारा  अपमान
चुप  रह  कर
और  अपने  बच्चों  को  भी
यही  शिक्षा  देते  हों
कि  सब-कुछ
नियति  का  खेल  है
भगवान  की  इच्छा…

अगर  ऐसा  है
तो  अभिशप्त  हैं  आप
कई-कई  पीढ़ियों  का  भविष्य
बर्बाद  करने  के  लिए !

                                           ( 2013 )

                                    - सुरेश  स्वप्निल

.

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

कच्चे सूत पर मलखंभ !

कभी  देखे  हैं  आपने
कच्चे  सूत  पर  गुलांट  लगाने  वाले
बूढ़े-अधबूढ़े  बन्दर
भारत  के  बाहर
वह  भी  दस-पंद्रह  वर्ष  तक……?!

हमने  देखा,  पढ़ा  और  सुना  भी  नहीं  था
21 वीं  सदी  से  पहले  !

हम  मगर  इतना  अवश्य  जानते  हैं
के  किसी  भी  बन्दर  की  आयु
15-20  वर्ष  से
अधिक  नहीं  होती
भले   ही  वह  सरदार  हो
या  असरदार !

तथापि, 
ये  तो अद्भुत  बन्दर  हैं  दोनों
कच्चे  सूत  पर  मलखंभ
दिखाने  वाले  !

कुछ  भिन्नताएँ  भी  हैं  दोनों  में
पहला  जन्म-जात  सरदार 
दूसरा  अभी  बनने  की  प्रक्रिया  में
दोनों  को   अमेरिका  प्रिय  है
अपनी  मातृ-भूमि  से
मगर  एक   अमेरिका  की  नाक  का  बाल
दूसरा  अमेरिकी  आँखों  की  किरकिरी
पहला  मौन  कभी  न  तोड़ने  वाला
दूसरा  समय-असमय  कभी  भी
बोल  पड़ने  वाला
एक  इतना  विनम्र
कि  अधमरा  लगे
दूसरा  इतना  ख़ूंख़्वार
कि  सोते  बच्चे  जाग  जाएं  डर  कर ....

दोनों  के  दोनों 
पूंजीपतियों  के  ख़रीदे  हुए  गुलाम  …।

बहरहाल,  हैं  दोनों  ही 
शत-प्रतिशत  बन्दर
अपने-अपने  मदारियों  के  इशारों  पर
नाचने  वाले  !

आपका,   हमारा  और
सारे   देश  का  दुर्भाग्य
कि  चुनना  हमें  है  …

तो,   किसे  चुनेंगे   इस  बार
पहले  या  दूसरे  को
या  किसी  और  जानवर  को
जो  बन्दर  न  हो  कम  से  कम
पूंजीपतियों  के  तलुए  चाटने  वाला  !

                                                   ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल  

.

बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

सितम्बर के शुरू में तितलियाँ

हो  सकता  है 
कुछ  लोग  इसे
मात्र  एक  अफ़वाह  समझें
मगर  यह  सच  है
शत-प्रतिशत
कि  हमारे  शहर  में  आज  भी
सितम्बर  के  शुरू  में  तितलियाँ
हर  साल   आती  हैं  !

वे  कभी   हमारे  शहर  से
नाराज़   नहीं   हुईं

हमारे  शहर में
कौव्वे  भी    आते   हैं
श्राद्ध-पक्ष  में  पूर्वजों   की  भाँति
और   ग्रहण  करते  हैं
अपना  अर्घ्य  !

गौरैयां ?
वे  तो  अब  भी
लगभग  हर  घर  के  आँगन  में
नज़र   आ  ही  जाती  हैं
दाने  मांगते  हुए
और   घोंसले   बनाते  हुए।

वैसे  मनुष्यता  भी  जीवित  है
हमारे  शहर  में
शहर-भर  में  फैली 
हरियाली  की  तरह …।

                                              ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल

.




सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

शोर का सौन्दर्य-बोध !

यदि  उत्सव  वर्ष  चलते  रहते
तो  सोचिए
क्या  हाल  होता
आपके  कानों  का ?

मां  एक  भजन  गाती  थीं
तो  दिन-भर 
कोई  और  गीत  सुनने  का
मन  नहीं  होता  था

कभी  लता  दी  का  गाया  भजन 
ज़ुबान  पर  आ  जाता
तो  सारे  काम  छूट  जाते
अधूरे

कभी  रफ़ी  साहब  के  भजन 
सुनाई  दे  जाते
तो सारा  दिन  सफल  हो  जाता 

मन्ना  दा 
मुकेश  जी
सुधा  मल्होत्रा  जी
हरि  ओम  शरण ....
कितने  अनमोल  भजन-गायक  होते
एक  से  एक  अनुपम 
सीधे  आत्मा  तक  पहुंचते  शब्द...
छोड  कर 
लोग  हर  बे-सुरे,  बे-ताले 
फटे  बांस  जैसी  आवाज़ों  वाले
पैरोडी-भजन 
जबरन  आपके  कानों  में 
ठूंस  रहे  होते  हैं
तो  सच  बताइए, 
क्या  आपको  धर्म  के  नाम  से  ही 
घिन  नहीं  होने  लगती ???

                                                   ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

.

शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

नवरात्र आ गए !

गर्भ  में  जो  पल  रही  है
वह  बेटी  है...

उसकी  पूजा  करोगे
या  मार  डालोगे ?

मारोगे  कैसे
क्या  जन्म  से  पहले
या  जन्म  के  बाद
गले  में  तम्बाकू  दबा  कर
या  जीती-जागती  ही  खेत  में
गाड़ डालोगे

ज़िंदा  रखोगे  तो  कब  तक
क्या  ब्याह  दोगे  बचपन  में  ही
या  ससुराल  वालों  को  सौंप  दोगे
जला  कर  मार  देने  के  लिए

मन-मर्ज़ी  से  ब्याह  कर  लिया
तो  क्या  बेटी-दामाद  को  स्वीकार  करोगे
या  दोनों  को  उतार  दोगे  मौत  के  घाट ?


अच्छा, पाल  कर  क्या  करोगे
शिक्षा  दिलाओगे
नौकरी  करने दोगे
आगे  बढ़ने  दोगे  उसे
कुल  का  नाम  ऊंचा  करने  के  लिए ?

तुम्हारे  लिए  केवल 
कुल  का  सम्मान  प्रासंगिक  है
तुम  क्या  करोगे  बेटी  को  जन्म  दिला  कर

तुम  तो  बस  देवी  पूजो
नवरात्र   आ  गए  !

                                                                     ( 2013 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

.
 

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

समय अंतिम न्यायाधीश है !

समय- न्यायाधीश ने
फिर  सान पर  रख  दी हैं
अपनी  तलवारें
फिर  छलछलाने लगा है रक्त
उस सर्व-शक्तिमान की आंखों  में

कुछ सिर  कट  गिरे  हैं 
बहुत  से  सिर
और  तख़्त-ताज  बाक़ी हैं  अभी
जिन्हें कट  कर  गिरना  है

देखते  जाइए
कल  किसकी  बारी  है
हम  भी  संभवत:  उसकी  सूची  में
होंगे  कहीं  न  कहीं
अपने  मौन  और  अकर्मण्यता  के  चलते...

समय  अंतिम  न्यायाधीश  है
जिससे  आशाएं  की  जा  सकती  हैं
अभी भी !

मौन  भयंकर  अपराध  है
समय  की  आंखों  में
और  अकर्मण्यता  भयंकरतम !

                                                   ( 2013 )
                                       
                                         -सुरेश  स्वप्निल

.

                                                              

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

कितना कठिन होता है

होता तो बहुत कुछ है मन में
लेकिन  पूरा  कहां  होता  है  अक्सर
मन  का सोचा  हुआ  ?

मसलन,  देश  और  समाज  के  प्रति
अपना  कर्त्तव्य-बोध
माता-पिता  के  लिए
अपूरित  इच्छाओं  का  बोझ
संतान  के  लिए  चिंताएं
और  उनके  लिए  बनाई  गई

तमाम  योजनाएं....

एक  मध्यम-वर्गीय  भारतीय  के  लिए
कितना  कठिन  होता है
उम्र  भर  अपने-आप  को
नेक  रास्ते  पर 
चलाते  रहना...

काश !  सरकारें  समझ  पातीं
कि  यदि
जनता  के  मन  में  दबे  हुए  ज्वालामुखी 

फट  जाएं  किसी  दिन
तो  कैसी  प्रलय  आ  सकती  है
देश  में  !

                                                        (2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 
                                                        

                                                 

बुधवार, 25 सितंबर 2013

सचमुच लोकतंत्र ....

सुना  आपने  ?
कुत्ते  चाहते  हैं सत्ता  हथियाना
वह  भी  भेडियों  के  हाथों  से...

अपने-अपने  भ्रम  हैं,  भाई !
भेडिए  भी सोच  रहे हैं
कि  फिर  आ  जाएंगे  सत्ता  में
भेड-बकरियों और  ख़रगोशों  के  सहारे
अपनी  'कल्याण कारी'  योजनाओं  के  दम  पर

चाहे  जो  हो,
शाकाहारी  पशुओं  को
दो  समय  की  घास  का  वादा  तो
दोनों  ही  कर  रहे  हैं....

लगता  है,  जंगल  में  सचमुच  लोकतंत्र
आ  कर  ही  रहेगा
इस  चुनाव  में  !

कोई  जानना  चाहेगा
कि  मतदाता  पशुओं  के  मन  में
क्या  है  अंतत:  ???

                                                                     ( 2013 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

.

रविवार, 22 सितंबर 2013

मनुष्यता का क़ीमा

धर्म, जाति, दलित-सवर्ण,  स्त्री-पुरुष,
अमीर-ग़रीब….

राजनीति  के  क़साई
मनुष्यता  का  क़ीमा  बना  रहे  हैं
आजकल….

चुनाव  आते-आते
वे  इतने  टुकड़ों  में  बांट  चुके  होंगे
मनुष्यता  को
शक्ल  तक  न  पहचान  पाएं
आने  वाली  कई  पीढ़ियां !

अब  मेरी  लाश  को  ही  देखो
मेरा  कुत्ता  तक  असमंजस  में  है
कि  रोए 
या  भौंक-भौंक  कर
आसमान  उठा  ले  सर  पर  !

                                                       ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल


.

शनिवार, 21 सितंबर 2013

मेरा समय

उम्र  उड़  रही  है
गर्म  तवे  पर  पड़ी
पानी  की  बूंद  की  तरह

स्वप्न  बदलते  जा  रहे  हैं
अति-कठोर  जीवाश्मों  में
जिन्हें  तोड़  पाना
असम्भव  है  नितांत

समय
इतना  निर्मम  कैसे  हो  सकता  है
किसी  मनुष्य  के  लिए….

मैं  जीना  चाहता  हूं
विशुद्ध  वर्त्तमान  में
जिसमें  शामिल  न  हो
अतीत  या  भविष्य  का  कोई  भी  चिह्न…

मेरा  समय  मुझे  पा  लेने  दो
मेरा  वर्त्तमान  !

                                                      ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल

.

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

तुम्हारा दिल नहीं होता ?!

चुनाव  एक  षड्यंत्र  है
सियासत  करने  वालों  का
आम  आदमी  के  विरुद्ध…

एक  युद्ध  है
बे-ईमानों,  मुनाफ़ाखोर  व्यापारियों
रिश्वतख़ोर नौकरशाहों
और  देश-द्रोही  विदेशी  ताक़तों  के  दलालों  के
गठजोड़  की
सम्मिलित  सेनाओं  का
ग़रीब, मेहनतकश, निहत्थी  जनता पर
थोपा  हुआ…

जब  देश  की  अस्सी  प्रतिशत  आबादी
दाने-दाने  को  तरसती  हो
जब  दो-तिहाई  मनुष्यों  के  पास
रहने  को  घर  भी  न  हो
जब देश  की   नब्बे  प्रतिशत  आमदनी
ग़लत  हाथों  में  पहुंच  रही  हो
जब  न्याय 
खुले  आम  ख़रीदा-बेचा  जाता  हो
जब  पुलिस  और  सेनाएं
किसी  भी  जीते-जागते  मनुष्य  को
लाश  में  बदल  देते  हों
जब  हर  ओर  अन्याय  और  अत्याचार  का  ही
राज  हो….

सच  बताओ
क्या  तुम्हारा  दिल  नहीं  होता
कि  आग  लगा  दें
ऐसे  निज़ाम  को  ????

                                                               ( 2013 )

                                                         -सुरेश  स्वप्निल


गुरुवार, 19 सितंबर 2013

अपना मत फेंकते समय ...

सी. आई. ए. तय  करेगी
कौन  होगा  प्रधानमंत्री
'दुनिया  के  सबसे  बड़े  लोकतंत्र'  का

जैसे  किया  था  2004  में
और  2009  में  भी….

हमें  सिर्फ़  मत  फेंकना  है  अपना
बिना  कुछ  सोचे
या  समझे  बिना

इससे  अधिक 
कर  भी  क्या  सकते  हैं  हम
निरे  काठ  के  उल्लू  !

हम  कोई  मिस्र  या  सीरिया  के  नागरिक  हैं
जो  अन्यायी  सरकार  के  ख़िलाफ़
सड़क  पर  उतर  आएं
बिना  अपनी  जान  की  परवाह  किए….

अगली  बार 
अपना  मत  फेंकते  समय
'वॉयस  ऑफ़  अमेरिका'  सुनना
और  सी. एन. एन.  देखना
मत  भूलना  !

                                                         ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

.

बुधवार, 18 सितंबर 2013

पूंजीवाद में लोकतंत्र

चलो,  अच्छा  हुआ
सारे  आदमख़ोर 
अपने-अपने  आवरण  उतार  कर
आ  गए  हैं  मैदान  में...

चुनाव  आ  रहे  हैं  न
अभी  अभ्यास  का  समय  है
एक-दूसरे  की  बोटियां  नोंच  लें
फिर  देख  लेंगे
जनता  को  भी….

यही  अर्थ  है
पूंजीवाद  में  लोकतंत्र  का  !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

.

सोमवार, 16 सितंबर 2013

बबूल मत बोना !

लोग  चुन  लें
विकल्प  हैं  सामने

एक  ओर  शांति  है,  समृद्धि  है
भावी  पीढ़ियों  के  लिए
संभावनाएं  हैं.…
दूसरी  ओर  हिंसा  है, मार-काट  है
असभ्यता  और  बर्बरता  के  जंगल  हैं
पुनः  मनुष्य  से  पशु  बनने  की
शताब्दियों  लम्बी  प्रक्रिया  है….

हमारे  पास  समय  है
दोनों  विकल्पों  के  बारे  में
सोचने-समझने
और  निर्णय  लेने  का

कोई  जल्दी  नहीं  है  अभी
किंतु  एक  भी  ग़लती  पड़  सकती  है
बहुत  भारी
कई-कई  पीढ़ियों  के  लिए

बस  इतना  ही  करना
कि  समय  के  मार्ग  में
बबूल  मत  बोना  !

                                                       ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

.

शनिवार, 14 सितंबर 2013

बहुत लम्बी कविता …

शून्य
शून्य
शून्य….

यही  मेरी  नियति  है
मैं  हिंदी  हूं
तुम्हारी  मातृ-भाषा  !

                                        ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 


गुरुवार, 12 सितंबर 2013

आतंक

काफ़ी  समय  बीत  गया
गिद्ध, चील, कौए
कुत्ते, भेड़िए, शेर….
और  तमाम  मांसाहारी  पशु-पक्षियों  को
मनुष्य  का  मांस  खाना  छोड़े  हुए

अब  उन्हें  उल्टी  आती  है
सड़कों  पर  बिखरे
मरे  हुए  मानव-शरीर  और  उनके
कटे-फटे, क्षत-विक्षत  अंग  देख  कर

वे  आतंकित  और  
परेशान  हैं
सब  के  सब…
मनुष्य  के  बदले  हुए
रूप, आदतें  और
व्यवहार  को  देख  कर  !

                                               ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल


बुधवार, 11 सितंबर 2013

हरा देना हमें ...

स्थिति  नियंत्रण  में  है
फ़िलहाल

लोग  केवल  रात  में
मर-मार  रहे  हैं
एक-दूसरे  को
वह  भी  आठ-दस…
औसतन  प्रति-दिन !

लगभग  दस  करोड़  की
जन-संख्या  में  इतनी  मौतें
यूं  भी  हो  ही  जाती  हैं
और  यह  अधिकार  मिलना  चाहिए
लोकतांत्रिक  रूप  से
चुनी  गई  सरकार  को
कि  इस  नाम-मात्र  की  मृत्यु-दर  को
सामान्य  कह  सके….

अब  संविधान  का  तो  ऐसा  है
भाई  जी
कि  जिसकी  लाठी,  उसी  की  भैंस….
क़ानून  भी

चलिए,  मान  लिया  कि
सरकार  असफल  हो  गई  है  हमारी
मगर  अभी  भी
बहुमत  है  हमारे  पास
और  केंद्रीय  सत्ता,  संविधान
और  सर्वोच्च  न्यायालय
सब  हमारे  पक्ष  में  हैं….

हम  कह  रहे  हैं  न
कि  नियंत्रण  में  है  स्थिति
आप  मानें  या  न  मानें

अगले  चुनाव  में  हरा  देना  हमें
यदि  संभव  है,  तो !

                                            ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 


मंगलवार, 10 सितंबर 2013

तीन छोटी कविताएं

               ( एक )

धर्म  भी  पीछा  छोड़  दे…

मैं  अपने  नाम  के  आगे
जाति  का  दुमछल्ला
नहीं  लगाता….

सोच  रहा  हूं
कि  कोई  ऐसा  नाम  रख  लूं
कि  मेरा  धर्म  भी
पीछा  छोड़  दे  मेरा….

               ( दो )

'ज़ेड  प्लस  सुरक्षा'

मैं  ऐसे  भगवान  को
नहीं  मानता
जो  हाथ  में  हथियार  लिए  बिना
घर  से  न  निकले

मैं  ऐसे  किसी  इमाम
या  शंकराचार्य  को  भी  नहीं  मानता
जो  'ज़ेड  प्लस  सुरक्षा'  के  सहारे
धर्म  का  प्रचार  करे

मैं  किसी  ऐसे  धर्म  को
नहीं  मानता
जो  मेरे  पड़ोसी  का  घर
जलाने  की  शिक्षा  दे….

मैं  ऐसे  धर्म  या  राष्ट्र  पर
थूकता  हूं
जो  अपने  ही  देश  में
अपने  ही  नागरिकों  को
सिर्फ़  धर्म  के  आधार  पर
दूसरे  दर्ज़े  का  बना  दे….

मैं  मनुष्य  हूं
मुझे  जीने  दो
एक   मनुष्य  की  तरह  !

                     ( तीन )

धर्म  और  समाज  के  ठेकेदारों  ! 

मुझे  हथियारों  का  डर
मत  दिखाओ
मुझे  मौत  का  भी  डर  नहीं  है…

मुझे  स्वर्ग  का  लालच  मत  दो
मैं  अपनी  मातृ-भूमि  में  ही
ख़ुश  हूं …

मुझे  जन्नत,  हूरों  और  शराब
के  झांसे  भी  मत  दो
मुझे  अपनी  मेहनत  से  कमाई  रोटी
के  सिवा  कुछ  भी  प्यारा  नहीं…

मेरे  सामने  से  हट  जाओ
धर्म  और  समाज  के  ठेकेदारों  !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 




रविवार, 8 सितंबर 2013

धर्म, मात्र एक हथियार है

फिर  सफल  हो  गए  वे
दिलों  के  बीच  दीवार  बनाने  में
फिर रक्त  से  सींच  दिया
बूंद-बूंद  पानी  से  तरसती  धरती  को
फिर बिछा  दी  गईं  लाशें
निर्दोष  मनुष्यों  की
धर्म  के  नाम  पर…

वे  ध्रुवीकरण  चाहते  हैं
तथाकथित  धर्मों  के  नाम  पर
वे  चाहते  हैं  कि  मनुष्य
एक-दूसरे  की  आस्थाओं  को  नकार  दें
वे  सिद्ध  कर  देना  चाहते  हैं
कि  धर्म
मात्र  एक  हथियार  है
मनुष्यों  को  एक-दूसरे  के  विरुद्ध
खड़ा  करने  का
कि  अलग-अलग  धर्म  के  मनुष्यों  का
रक्त  भी  अलग-अलग  होता  है

कि  एक  धर्म  में  पैदा  हुए  मनुष्य
बेहतर  मनुष्य  होते  हैं
दूसरे  या  तीसरे  धर्म  के  मनुष्यों  से…

वे  उस  विचार  को  ही  मिटा  देना  चाहते  हैं
जिसे  सारा  संसार  जानता  है
'भारतीयता'  के  नाम  से

हमें  दुःख  है
बहुत-बहुत  दुःख
आपसे  यह  पूछते  हुए
कि  आप  मनुष्य  हैं
या  हिंदू
या  मुसलमान
या  बौद्ध,  या  सिख ,  ईसाई,  जैन
या  कोई  और ???

आप  मनुष्य  क्यों  नहीं  हैं,  महाशय  ?

                                                      ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल



शनिवार, 7 सितंबर 2013

प्रवचन की दूकान !

आओ  मिल  कर  लूट  मचाएं

अच्छी-ख़ासी  भीड़  लगी  है
अंधे-बहरे-गूंगे-काने
भक्त-जनों  को  मूर्ख  बनाएं
हाथ-सफाई  से  काग़ज़  को  नोट  बनाएं
ताज़े-ताज़े  लड्डू-पेड़े
आस्तीन  को  हिला-डुला  कर
मिट्टी  को  प्रसाद  बना  कर
अपनी  जय-जयकार  कराएं
ज्ञान-तर्क  की  धूल  उड़ा  कर
कीड़ों  को  भगवान  बनाएं

धर्म-ग्रंथ  में  क्या  लिक्खा  है
अच्छे-अच्छे  पढ़े-लिखे  भी  नहीं  जानते
चाहे  जो  भी  गढ़ो  कहानी
कुछ  भी  उल्टा-सीधा  बक  दो
भक्त-जनों  में  अक़्ल  कहां  है ?
तुम  मत  मांगो
लोग  मगर  फिर  भी  दे  देंगे
तुम  बस  उनको  शिष्य  बनाओ
चाहे  जैसी  दीक्षा  बांटो
चाहे  जो  गुरु-मंत्र  बता  दो  …

डायबिटीज़  की  दवा  बता  कर
रसगुल्ले  की  मांग  बढ़ाओ
लौकी-कद्दू  के  नुस्ख़े  से
जम  कर  अपनी  चांदी  काटो
दोनों  हाथों  लूट-लूट  कर
भक्तों  को  कंगाल  बनाओ
दाढ़ी-भगवा-पगड़ी  का  उपयोग  सीख  लो
'वैदिक'  का  बाज़ार  बनाओ
संस्कृति   में  आग  लगाओ…

उफ़ ! यह  इतना  छोटा  जीवन  !
करने  को  है  इतना-सारा
धर्म  और  ईमान  भूल  कर
नोट  कमाओ  ढेर  लगाओ
सात  पुश्त  की  करो  व्यवस्था
यहां-वहां  गुरुकुल  खुलवा  दो
नेताओं  को  शिष्य  बना  कर
क़ानूनों  को  धता  बताओ

कहां  लगे  हो ?
बच्चों  को  बाबा  बनने  के
गुर  सिखलाओ….

अपने  दोनों  लोक  संवारो
सातों  जन्म  सफल  कर  डालो
काम-धाम  सब  छोड़-छाड़  कर
प्रवचन  की  दूकान  चलाओ
नोट  कमाओ
भारत  का  सम्मान  बढ़ाओ  !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 


शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

वोटों के भिखारी

कुछ  लोग  जीवन-भर  भीख  मांगते  हैं
और  स्वीकार  भी  नहीं  करते
उन्हें  न  चोरी  से  परहेज़  होता  है
न  लूट  या  धोखाधड़ी  से
उन्हें  न  देश  की  चिंता
न  अपने  आत्म-सम्मान  की

वे  हर  क़ानून  को  अपनी  जेब  में  रखते  हैं
और  न्याय  को  जब  चाहे  ख़रीद  सकते  हैं
ऊंची  से  ऊंची  क़ीमत  दे  कर…

हां,  ईश्वर  से  उन्हें   बहुत  डर  लगता  है
और  उससे  भी  अधिक  उसके  दलालों  से
कम  से  कम  दिखाने  के  लिए

वे  दरअसल  ईश्वर  और  उसके  दलालों  की
वोट  खींचने  की  क्षमता  पहचानते  हैं

वे  चुनाव  लड़ते  हैं
और  जीत  कर
संसद  और  विधानसभाओं  में  बैठ  कर
मूंग  दलते  हैं
देश  की  छाती  पर  !

वे  फिर  आने  वाले  हैं
तुम्हारे  घर
वोटों  की  भीख  मांगने
ताकि  वह  सब  कुछ  लूट  लें
जो  अभी  तक  बचा  हुआ  है  तुम्हारे  पास !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 



गुरुवार, 5 सितंबर 2013

आप हत्यारे हैं !

सच-सच  बतलाइए
आप  उस  समय  कहां  थे
जब  कल  भीड़  एक  निर्दोष  को
बीच  सड़क  पर
लाठियों  से  पीट  कर
जान  ले  रही  थी  उसकी…

मुझे  मालूम  है  कि  आप  कहेंगे
'पुलिस  भी  तो  थी  वहां  पर  !'
आपने  क्या  किया  लेकिन  ?
पुलिस  को  याद  दिलाया  उसका  कर्त्तव्य  ?
जानना  चाहा  भीड़  से
उस  मरते  हुए  मनुष्य  का  दोष  ?
आंखें  गीली  हुईं  आपकी
मरते  हुए  मनुष्य  को  तड़पता  देख  कर
कुछ  तो  किया  होगा  आपने  !

याद  कीजिए
क्या  किया  सोच  रहे  थे  उस  समय  ?

मैं  बताऊँ  आप  क्या  कर  रहे  थे  ?
आप  मज़े  ले  रहे  थे  आंखें  फाड़-फाड़  कर !
मृत्यु  को  अपनी  सामने  घटित  होने  का
आनंद  उठा  रहे  थे  !

वह  जो  मरता  हुआ  मनुष्य  था
आप  परिचित  भी  थे  उससे  शायद
शहर  में  यहां-वहां  आते-जाते
दुआ-सलाम  भी  की  होगी  अक्सर
संभव  है  कहीं  कुछ  भावनाएं  भी  जुड़ी  रही  हों  आपकी

तो  भी  आप  मौन  रहे
आपने  सिर्फ़  आनंद  लिया
एक  जीवित  मनुष्य  को
मृत  शरीर  में  बदलते  देखने  का …

कल  यही  भीड़  आपको  घेर  ले
कल  आपका  छोटा  भाई
या  आपकी  संतान  या  आपके  माता-पिता
भीड़  के  हाथ  चढ़  गए  तो ???

आख़िर  किससे  मदद  मांगेंगे  आप  ?

नहीं,  न्याय  की  बात  मत  कीजिए
मत  दीजिए  दोष  पुलिस  को
पल-पल  नष्ट  होते  सामाजिक  मूल्यों  को

अपनी  आत्मा  को  छू  कर  देखिए
आप  हत्यारे  हैं  महाशय
स्वयं  अपने  ही  विवेक  के  !

                                                       ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

*झारखण्ड में एक छात्र-नेता की बीच  सड़क पर लाठियों से पीट-पीट कर की गई हत्या पर…