रविवार, 22 सितंबर 2013

मनुष्यता का क़ीमा

धर्म, जाति, दलित-सवर्ण,  स्त्री-पुरुष,
अमीर-ग़रीब….

राजनीति  के  क़साई
मनुष्यता  का  क़ीमा  बना  रहे  हैं
आजकल….

चुनाव  आते-आते
वे  इतने  टुकड़ों  में  बांट  चुके  होंगे
मनुष्यता  को
शक्ल  तक  न  पहचान  पाएं
आने  वाली  कई  पीढ़ियां !

अब  मेरी  लाश  को  ही  देखो
मेरा  कुत्ता  तक  असमंजस  में  है
कि  रोए 
या  भौंक-भौंक  कर
आसमान  उठा  ले  सर  पर  !

                                                       ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल


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