शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

आम आदमी के लिए ...!

कुछ  दिन  रह  आए  वे  भी
सत्ता  के  अंत: गृह  में
जो  हमेशा  भगा  दिए  जाते  थे  पहले
उस  गली  में  घुसने  से  पहले  !

दलित, वंचित  और  समाज  से  बहिष्कृत
सभी  को 
मिल  ही  गया  एक  अवसर
एक  नई  कर्म-संस्कृति  को 
जन्म  देने  का  !

कभी-कभी
लोकतंत्र  सचमुच  लगने  लगता  है
बड़े  काम  का  !
कभी-कभी
तंत्र  का  एक  न  एक  अंग
अचानक  जाग  उठता  है
अपने  कर्त्तव्यों  को  लेकर  !

लेकिन  जो  कुछ  भी  सार्थक 
नज़र  आता  है
वह  चार  दिन  का  तमाशा  ही  हो  कर
क्यों  रह  जाता  है ?

आख़िर  क्यों  नहीं  होता  ऐसा
लोकतंत्र  में
कि  संविधान  में  शामिल 
सारी  अच्छी  बातें 
सामान्य  लगने  लगें 
रोज़मर्रा  के  कामों  की तरह  ?

मिथक  तोड़  दिए  गए  हैं
और  द्वार  खोल  दिए  गए  हैं
सारी  लोकतांत्रिक  संभावनाओं  के
आम  आदमी  के  लिए
आम  आदमी  द्वारा  ! 

                                                       ( 2014 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

मौसम की अनुशासनहीनता ...

सूर्य  ठगा-सा  रह  जाता  है
हर  बार
जब  मौसम  इन्कार  कर  देता  है
बदलने  से  !

आख़िर  हंसी-मज़ाक़   है  क्या
बार-बार  गर्म  कपड़े  तह  कर  रखना
और  फिर निकालना ...

जो  भी  हो,
यह  लगभग  तय  होता  जा  रहा  है
कि  मौसम
अनुशासन-विहीन  हो  गया  है  आजकल
अब  तो  वह
भू-गतिकी  के  नियम  भी  नहीं  मानता  !

सच  कहा  जाए
तो  अशुभ-संकेत  हैं  ये  लक्षण
पृथ्वी  के  स्वास्थ्य  के  लिए 
नितांत  घातक  !

सूर्य  की  सत्ता  का  निर्बल  होना
हमारे  पक्ष  में  नहीं  है
मगर  मौसम  की  अनुशासनहीनता  का  कारण
कौन  है  और
हमारे  सिवा ???

                                                                              ( 2014 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

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सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

ज़रूरत से ज़्यादा कमाने वाले

ज़रूरत  से  ज़्यादा  कमाते  हैं
कुछ  लोग
अपनी  वास्तविक  ज़रूरतों  से
बहुत  ज़्यादा
अपने  घर-परिवार  और  क़ुनबे  की
ज़रूरतों
स्वयं  अपनी  आशाओं
माता-पिता  के  स्वप्नों  
और  अपनी  तनख़्वाह  से  भी
कई  गुना  ज़्यादा  !

वे  जितना  कमाते  हैं
उससे  ज़्यादा  ख़र्च  करते  हैं
ऋण  ले-ले  कर
फिर  चुकाने  के  लिए 
और  ज़्यादा  कमाते  हैं 

कभी  रिश्वत  से 
कभी  कमीशन  से

उनके  दफ़्तर  में  पोस्टर  लगा  होता  है
'रिश्वत  लेना  और  देना
दोनों  अपराध  हैं !'

वे  नहीं  मानते  क़ानूनों  को
वे  नहीं  डरते  समाज  की  निंदा  से
वे  पकड़े  भी  जाते  हैं  रंगे  हाथ
तो  उनका  बाज़ार-मूल्य  बढ़  जाता  है  !

वे  अपनी  अतिरिक्त  कमाई  का
कुछ  हिस्सा
नियमित  रूप  से  चढ़ाते  हैं
तिरुपति  और  शिर्डी  के  भगवानों  को
और  अपने  से  ऊंचे अफ़सरों  को  !

उनके  बच्चे 
मंहगे  पब्लिक  स्कूलों  में  पढ़ते  हैं
देश  और  विदेश  में
और  बड़े  हो  कर 
अफ़सर,  उद्योगपति,
बड़े  व्यापारी  बनते  हैं  
अपने  माता-पिता  से  भी  ज़्यादा
कमाने  लगते  हैं....

न्याय-अन्याय,  उचित-अनुचित,  पाप-पुण्य,
अपराध  और  दण्ड
किसी  बात  का  भय  नहीं  होता
उन्हें  ...

वे  हमारे  महान  देश  की 
महान  प्रतिभाएं  हैं
संसार  के  योग्यतम  व्यक्ति...

यही  हैं  वे  लोग
जो  आम  आदमी  के 
ख़ून  के  प्यासे  हैं 
इन्हीं  का  राज  चलता  आया  है
कई  शताब्दियों  से !

यही  हैं  वे  लोग
जो  ज़रूरत  से  ज़्यादा  कमाते  हैं
और 
जिनकी  क़ौम  को  नष्ट  करने  की
क़सम  खाई  है  हमने  !

                                                          ( 2014 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल

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रविवार, 9 फ़रवरी 2014

मारा जाएगा तानाशाह...!

जिस  दिन
सच  बोलेगा  तानाशाह
मारा  जाएगा
उसी  दिन  !

सच  बोलना
चाहता  भी  नहीं  वह
भय  लगता  है  उसे
सच  को  स्वीकारने  में
कि  वह 
सच  बोलते  ही
शामिल  हो  जाएगा
आम  लोगों  की  भीड़  में  !

तानाशाह  मानता  है
कि  अति-मानव  है  वह
किसी  भी  अन्य  मानव  की  तुलना  में
यद्यपि  वह  स्वयं  जानता  है
कि  सच  नहीं  है  यह  …

क्या  सचमुच  इतना  डरता  है
तानाशाह
अपनी  मृत्यु  से  ??

वह  जीना  चाहता  है
किसी  भी  मूल्य  पर
चाहे  इसके  लिए
कितने  ही  मनुष्यों  कि  बलि
क्यों  न  लेना  पड़े  उसे  !

फिर  भी
कहीं  न  कहीं  अपने  अंतर्मन  में
अच्छी  तरह  से  जानता  है  वह
कि  मरना  ही  होगा  उसे  भी
एक  दिन  !

दरअसल,  हर  तानाशाह  डरता  है
अपनी  मृत्यु  से
क्योंकि  जानता  है  वह
कि  मृत्यु  से  बड़ा  सच
और  कुछ  नहीं  होता  …

जिस  दिन  वह
मृत्यु-भय  से  मुक्त  होगा
और  सच  बोलने  का  साहस  करेगा
उसी  दिन  मर  जाएगा

उसे  किसी  अन्य  शत्रु  की
ज़रूरत  नहीं  है
मरने  के  लिए
उसकी  अंतरात्मा  काफ़ी  है
और  उसके  पापों  का  बोझ  भी
उसे  मुक्ति  दिलाने  के  लिए  !

तानाशाह  से  मुक्ति  चाहिए
तो  प्रेरित  कीजिए  उसे
सच  बोलने  के  लिए  !!!

                                                         ( 2014 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

क्या करोगे अब ?

सावधान,  पक्षियों  !
बहेलिया  घूम  रहा  है
वन-प्रांतर  के  कोने-कोने  में
जाल  फैलाता
सब  पक्षियों  को
उनके  मनपसंद
दाने  डाल  कर  लुभाता  हुआ …

बहेलिए   की  मानसिक  प्रवृत्ति
तुम  से  बेहतर
और  कौन  जान  सकता  है  भला  ?

सारे  पशु-पक्षियों  को  भी
चेता  दो  ज़रा
कि  सारी  वन्य-प्रजातियां
सचमुच
बहुत  बड़े  संकट  में  हैं

केवल  एक  ही  अवसर  तो
चाहिए  होता  है
बहेलिए  को
वन  को  प्राणी-विहीन  बनाने  की
प्रक्रिया  शुरू  करने  के  लिए  !

बात  केवल  वन्य-प्राणियों  की
नहीं  है
इस  बार  दांव  पर  है
वन  का  सारे  का  सारा  पर्यावरण
पेड़-पौधे,  ज़मीन  और  जल
खनिज  और  शीतल  समीर  तक  …

बहेलिए  को  अवसर  मत  दो
बहेलिए  और  उसके  संगी-साथी
व्यापारियों  को …

क्या  करोगे  अब
बहेलिए  को  मार्ग  दोगे
वन  पर  राज  करने  का  ?

                                                ( 2014 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल



मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

56 इंच का सीना...!

तलवार  कह  रही  है
मुझे  ख़ून  चाहिए ...

जब  तक  तलवार  का  होना  ही
अपने-आप  में 
पर्याप्त  कारण  है
तानाशाहों  के  जन्म  का
और  मनुष्यता  के  अवसान  का !

शायद  ही  कोई  अन्य  आविष्कार  हो
मनुष्य-जाति  का 
जो  इतना  बड़ा  शत्रु  हो
स्वयं  अपने  ही  जन्म-दाता  का  !

तानाशाह  चाहता  है 
अपनी  भोथरी  तलवार  के  दम  पर
सिकंदर  बन  जाना
यह  जानते  हुए  भी 
कि  अब 
देवी-देवता  भी  ए.के. 56  रखते  हैं
अपने  हाथ  में  !

लेकिन  तलवार  की  प्यास 
बुझती  नहीं 
इतनी  सरलता  से
चाहे  किसी  सैनिक  के  हाथ  में  हो
या  तानाशाह  के...

यदि  युद्धोन्माद  पूरा  नहीं  हुआ
तानाशाह  का 
तो  स्वयं  उसी  के  प्राण  भी 
मांग  सकती  है 
तलवार....

आख़िर  और  कहां  मिलेगा
56 इंच  का  सीना  तलवार  को
अपनी  प्यास  बुझाने  को  ?!!!

                                                             ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

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