फटी गुदड़िया
ढेर चिथड़िया
धागे और सुई में
कब तक जान खपाओगी, अम्माँ ?
होंठों पर आने से पहले ही
रुक जाती राम कहानी
भर आता आँखों में पानी
मूड़ झुका कर
यूँ ही कब तक बात उड़ाओगी , अम्माँ ?
अच्छा, लो यह सुरमेदानी
चार रुपैये की आई है
एक रुपैया कम दे देना
चाहो तो यूँ ही रख लेना
अपने ही बेटों से
कब तक शान दिखाओगी, अम्माँ !
( 2 1 दिस . 1 9 8 7 )
- सुरेश स्वप्निल
* उस दौर की अंतिम हिंदी कविता। अपनी अम्माँ, स्व. श्रीमती रतन बाई खड़ग के लिए।
** प्रकाशन: 'वर्त्तमान साहित्य' एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
ढेर चिथड़िया
धागे और सुई में
कब तक जान खपाओगी, अम्माँ ?
होंठों पर आने से पहले ही
रुक जाती राम कहानी
भर आता आँखों में पानी
मूड़ झुका कर
यूँ ही कब तक बात उड़ाओगी , अम्माँ ?
अच्छा, लो यह सुरमेदानी
चार रुपैये की आई है
एक रुपैया कम दे देना
चाहो तो यूँ ही रख लेना
अपने ही बेटों से
कब तक शान दिखाओगी, अम्माँ !
( 2 1 दिस . 1 9 8 7 )
- सुरेश स्वप्निल
* उस दौर की अंतिम हिंदी कविता। अपनी अम्माँ, स्व. श्रीमती रतन बाई खड़ग के लिए।
** प्रकाशन: 'वर्त्तमान साहित्य' एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।