तुम्हारे हाथ में चार उंगलियां हैं
तुम मनुष्य नहीं हो
तुम खाना हाथ से खाते हो
तुम भी मनुष्य नहीं हो
तुम हमारी तरह नहीं सोचते
तुम तो कभी भी
नहीं हो सकते मनुष्य !
पेशकार, ज़रा आवाज़ लगाओ
उस प्रकृति को
जिसने बनाया है
इन आधे-अधूरे मनुष्यों को !
हम
न्याय के सर्वोच्च आसन पर
बैठने वाले
न्यायाधीश निर्णय देते हैं
कि ऐसे हर अजूबे को
बेदख़ल कर दो
मनुष्यता से
जो शरीर या रुचियों से
ठीक हमारे जैसा न हो !
कल से कोई भी ऐसा अजूबा
सामने आए
तो उसे डाल दो जेल में
दस साल के लिए
ज़्यादा गंभीर मामला हो
तो सारे जीवन के लिए
पेशकार !
वह प्रकृति हाज़िर हुई
या नहीं ?!
(2011)
-सुरेश स्वप्निल
..
तुम मनुष्य नहीं हो
तुम खाना हाथ से खाते हो
तुम भी मनुष्य नहीं हो
तुम हमारी तरह नहीं सोचते
तुम तो कभी भी
नहीं हो सकते मनुष्य !
पेशकार, ज़रा आवाज़ लगाओ
उस प्रकृति को
जिसने बनाया है
इन आधे-अधूरे मनुष्यों को !
हम
न्याय के सर्वोच्च आसन पर
बैठने वाले
न्यायाधीश निर्णय देते हैं
कि ऐसे हर अजूबे को
बेदख़ल कर दो
मनुष्यता से
जो शरीर या रुचियों से
ठीक हमारे जैसा न हो !
कल से कोई भी ऐसा अजूबा
सामने आए
तो उसे डाल दो जेल में
दस साल के लिए
ज़्यादा गंभीर मामला हो
तो सारे जीवन के लिए
पेशकार !
वह प्रकृति हाज़िर हुई
या नहीं ?!
(2011)
-सुरेश स्वप्निल
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