उफ़ ! कितनी तेज़ी से भाग रहा है समय !
जैसे प्रलय आ रही हो !
पूंजी प्रलय ही तो है
जो दौड़ा रही है समय को
चाबुक ले कर
वीभत्स है पूंजी का कारोबार
न जाने कब तक
और कहां तक दौड़ाएगा समय को
क्या शेष रह पाएगी समय की अस्मिता ?
गति चाहे मनुष्य की हो
या ग्रह-नक्षत्रों की
अथवा समय की
कम से कम इतनी अमानवीय न हो
कि सब-कुछ गड्ड-मड्ड होने लगे
मनुष्य मशीनों में बदल जाएं
और पशु-पक्षी चित्रों में !
सुगंध फूलों की बजाय
बोतलों में क़ैद हो जाए
निश्चय ही
उचित नहीं है यह
प्रकृति
और सृष्टि के तमाम उपादानों के लिए
क्या यह बेहतर नहीं होगा
कि रोक दिया जाए
तमाम गतिवान चीज़ों को
कुछ देर के लिए ही सही ? !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
जैसे प्रलय आ रही हो !
पूंजी प्रलय ही तो है
जो दौड़ा रही है समय को
चाबुक ले कर
वीभत्स है पूंजी का कारोबार
न जाने कब तक
और कहां तक दौड़ाएगा समय को
क्या शेष रह पाएगी समय की अस्मिता ?
गति चाहे मनुष्य की हो
या ग्रह-नक्षत्रों की
अथवा समय की
कम से कम इतनी अमानवीय न हो
कि सब-कुछ गड्ड-मड्ड होने लगे
मनुष्य मशीनों में बदल जाएं
और पशु-पक्षी चित्रों में !
सुगंध फूलों की बजाय
बोतलों में क़ैद हो जाए
निश्चय ही
उचित नहीं है यह
प्रकृति
और सृष्टि के तमाम उपादानों के लिए
क्या यह बेहतर नहीं होगा
कि रोक दिया जाए
तमाम गतिवान चीज़ों को
कुछ देर के लिए ही सही ? !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल