शहर में दूसरी बार
आई है
मीरा बाई
मीरा बाई लड़की नहीं ,
रबर का खिलौना है
वह समरसॉल्ट करती है
एक, दो, तीन, चार ...
और उसका बाप
शुरू कर देता है ढोल पर
तीन ताल
दोनों छोटे भाई
अपनी छोटी बहन के साथ
करतब दिखाते हैं
भीड़ के आस-पास
मीरा बाई कुरते के दोनों पल्लों पर
पिन लगाती है
और वृश्चिकासन में चलते हुए
सारे मैदान में घूम जाती है
फिर एक-एक कर साकार होते जाते हैं
गरुड़ासन, मयूरासन, चक्रासन,
पश्चिमोत्तानासन ...
भीड़ अपलक देखती रह जाती है
तब तक मीरा का बड़ा भाई
बाँसों के पिरामिड पर
रस्सी तान चुकता है
मीरा बाई अपनी बारीक़ आवाज़ में
लावणी गाती है
और दोनों आँखें रस्सी पर जमाए
एक सिरे से दूसरे सिरे तक
चलती आती है
मीरा बाई को गिरने का डर नहीं है
मीरा का बड़ा भाई
जब डेढ़ साल के दगड़ू को
बाँस के ऊपरी सिरे पर
उल्टा लेटा कर
हवा में उछालता है
तब मीरा बाई अपनी दोनों टाँगें
एक सौ अस्सी के कोण पर
लाती है
और अपनी नाक को
घुटनों से छुलाती है
वह -
हाथों के घेरे में से
अपना पूरा शरीर निकालती है
कितनी बड़ी कलाकार है मीरा बाई !
शहर में सब लोग जान गए हैं उसे
इस बार
( पिछले साल
जब शहर में पहली बार
आई थी मीरा बाई
तब उसका रंग सांवला था
और छाती सपाट )
फिर आएगी शहर में मीरा बाई
अगले साल
भाई, बाप
और बड़ी होती
छोटी बहन के साथ।
( 1981 )
-सुरेश स्वप्निल
प्रकाशन: 'साक्षात्कार' ( म . प्र . शासन साहित्य परिषद्, भोपाल), 1983
तथा कुछ अन्य लघु पत्रिकाओं में, समय-समय पर।
सभी के लिए , समुचित श्रेय एवं यथा संभव पारिश्रमिक पर
पुन: प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
आई है
मीरा बाई
मीरा बाई लड़की नहीं ,
रबर का खिलौना है
वह समरसॉल्ट करती है
एक, दो, तीन, चार ...
और उसका बाप
शुरू कर देता है ढोल पर
तीन ताल
दोनों छोटे भाई
अपनी छोटी बहन के साथ
करतब दिखाते हैं
भीड़ के आस-पास
मीरा बाई कुरते के दोनों पल्लों पर
पिन लगाती है
और वृश्चिकासन में चलते हुए
सारे मैदान में घूम जाती है
फिर एक-एक कर साकार होते जाते हैं
गरुड़ासन, मयूरासन, चक्रासन,
पश्चिमोत्तानासन ...
भीड़ अपलक देखती रह जाती है
तब तक मीरा का बड़ा भाई
बाँसों के पिरामिड पर
रस्सी तान चुकता है
मीरा बाई अपनी बारीक़ आवाज़ में
लावणी गाती है
और दोनों आँखें रस्सी पर जमाए
एक सिरे से दूसरे सिरे तक
चलती आती है
मीरा बाई को गिरने का डर नहीं है
मीरा का बड़ा भाई
जब डेढ़ साल के दगड़ू को
बाँस के ऊपरी सिरे पर
उल्टा लेटा कर
हवा में उछालता है
तब मीरा बाई अपनी दोनों टाँगें
एक सौ अस्सी के कोण पर
लाती है
और अपनी नाक को
घुटनों से छुलाती है
वह -
हाथों के घेरे में से
अपना पूरा शरीर निकालती है
कितनी बड़ी कलाकार है मीरा बाई !
शहर में सब लोग जान गए हैं उसे
इस बार
( पिछले साल
जब शहर में पहली बार
आई थी मीरा बाई
तब उसका रंग सांवला था
और छाती सपाट )
फिर आएगी शहर में मीरा बाई
अगले साल
भाई, बाप
और बड़ी होती
छोटी बहन के साथ।
( 1981 )
-सुरेश स्वप्निल
प्रकाशन: 'साक्षात्कार' ( म . प्र . शासन साहित्य परिषद्, भोपाल), 1983
तथा कुछ अन्य लघु पत्रिकाओं में, समय-समय पर।
सभी के लिए , समुचित श्रेय एवं यथा संभव पारिश्रमिक पर
पुन: प्रकाशन हेतु उपलब्ध।