सोमवार, 30 दिसंबर 2013

आख़िर किस आशा में ...?

भविष्य  के  गर्त्त  में
छिपे  हैं
न  जाने  कितने  गहन  अंधकार
अनगिनत झंझावात
भूकम्प
और  जल-प्लावन …

समय  निर्मम  हो  रहा  है
मनुष्यता  के  प्रति
जैसे  कि  प्रतिशोध  ले  रहा  हो
मनुष्य  से
महान  धरा  और  प्रकृति  के
अपमान  का 

जिन्हें  चिंता  होनी  चाहिए
वे  ही  उत्तरदायी  हैं
वर्त्तमान  और  भावी
महाविनाश  के

कहने  को
सारी  सभ्यताएं
सारी  संस्कृतियां
और  सारे  देश
स्वतंत्र  और  संप्रभु
लगे  हुए  हैं
इनी-गिनी  महाशक्तियों  की
चाटुकारी  में....

आख़िर  किस  आशा  में
जी  रहे  हैं  देश
किस  क्रांति  या  प्रति-क्रांति  की
प्रतीक्षा  में  ???

                                                   ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

  …

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

अंतिम पराजय के लिए !

जैसा  ठीक  समझें  हुज़ूर !
आप  चाहेंगे  तो  फिर  लड़  लेंगे
आप  तो  विशेषज्ञ  हैं
युद्ध-कला  के

आप  इतने  उत्कंठित  क्यों  हैं
लेकिन  ?
आप  सोच  रहे  हैं  संभवतः
असावधानी  और  अति-आत्म-विश्वास
ले  डूबा  आपको
किंतु  अर्द्ध-सत्य  है  यह
वस्तुतः 
आप  जब  तक  उत्कंठित  हैं
तब  तक
कभी  समझ  नहीं  पाएंगे
अपनी  पराजय  के  वास्तविक  कारणों  को !

वास्तविकता  तो  यह  है
कि  आपका  चरित्र
आपकी  नीतियां
आपकी  विचारधारा
और  आपकी  रण-नीति
इतने  अधिक  प्रदूषित  हो  चुके  हैं
कि  जब  भी
सत्य,  ईमानदारी  और  न्याय  के  पक्षधर
उतरेंगे  आपके  विरुद्ध
मैदान  में
तब-तब 
केवल  पराजय  ही  हाथ  आनी  है  आपके

बेकार  की  ज़िद  छोड़िये,  हुज़ूर !
हम  जनता  हैं
आपकी  सारी  सम्मिलित  सेनाओं  से
सैकड़ों-हज़ार  गुना

हम  तो  ख़ाली  हाथ  ही  बहुत  हैं
सरकार  !

चुनौती  आपने  दी  है
युद्ध  तो  लड़ना  ही  होगा  आपको

तैयार  हो  जाइए,  महाशय
अपनी  अवश्यंभावी 
अंतिम  पराजय  के  लिए  !

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

 …

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

गिद्ध लौट आए हैं : तीन

               । तीन।
गिद्ध  लौट  आए  हैं
इस  सूचना  और  आशा  पर
कि  फिर  एक  बार
कोई  रक्त-पिपासु,  कोई  नर-पिशाच
उतर  आया  है
भारत  की  महान  युद्ध-प्रेमी  धरा  पर
फिर  दोहराया  जाए  संभवतः
कोई  कलिंग,  कोई  कुरुक्षेत्र  …

आपका  क्या  विचार  है ?
जीतेगी  मनुष्यता
या  जीतेंगे  नर-पिशाच ??? 

युद्ध  बहुत  कठिन  है  इस  बार
मनुष्यता  के  लिए
जीत  और  हार  दोनों  ही  स्थितियों  में
मानेंगे  नहीं  नर-पिशाच
संभव  है,  युद्ध  के  पूर्व  ही
गिरने  लगें  शव
निर्दोष  मनुष्यों  के …
मनुष्यता  विजयी  हो  तो  भी
हार  की  खीझ  भी  पर्याप्त  है
पृथ्वी  को  रक्त-रंजित  करने  के  लिए
और  यदि  हार  गए  मनुष्य
नर-पिशाच  की  सेनाओं  से…

कहते  हैं,  गिद्ध  बहुत  पहले  ही  जान  लेते  हैं
आगामी  रक्त-पात  का  समय…

हां,  गिद्ध  लौट  आए  हैं  फिर  एक  बार
अभूतपूर्व  रक्त-पात  की  संभावनाओं  के  मद्दे-नज़र  ....

                                                                                ( 2013 )
                                                                  
                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 23 दिसंबर 2013

गिद्ध लौट आए हैं !

            । एक।

गिद्ध  लौट  आए  हैं
बस्तियों  के  आस-पास
बहुत-से  सूखे  हुए  पेड़ों  पर
नज़र  आने  लगे  हैं
आजकल

गौरइयें  भी  आएंगी  क्या
अपने  छूटे  हुए  घोंसलों  में ?

घर  बहुत  सूना  लगता  है
सचमुच
गौरेयों  के  बिना  !

और  कौवे ?
क्या  सचमुच  आएंगे  लौट  कर
पूर्वजों  का  भोग
जुठारने  ?

                     । दो।

गिद्ध  लौट  आए  हैं
तमाम  आशंकाओं  को
दरकिनार  करते 
तमाम  असंभावनाओं  के  विरुद्ध
आगामी  पांच  वर्ष  तक
ताजो-तख़्त  सम्हालने  के  लिए

सम्भवतः 
अन्य  कोई  और  विकल्प   हो
अगली  बार 
चुनने  के  लिए … ।

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 21 दिसंबर 2013

मैं नियंता हूं ...!

लो,  मैंने  धो  दिए
सारे  चरित्र
और  डाल  दिया  है  उन्हें
अलगनी  पर
सूखने  के  लिए

तुम  इस  बार
स्वयं  चुन  सकते  हो
अपना  चरित्र
अपनी  इच्छा,  सुविधा
और  स्वभाव  के  अनुरूप

लेकिन  ध्यान  रहे
अंतिम  निर्णय  मेरा  ही  होगा
मैं  नियंता  हूं  इस  कहानी  का
और  तुम 
एक  चरित्र  मात्र

यह  भी  ध्यान  रखना
कि  हर  बार  केंद्रीय  भूमिका
आवश्यक  नहीं  होती !

तुम  निश्चय  ही  स्वतंत्र  हो
चरित्र  चुनने  के  लिए
किंतु  कहानी  और  संवादों  में
परिवर्त्तन  के  लिए  नहीं

जब  तक  तुम  इस  कहानी  में  हो
किसी  भी  भूमिका  में
तुम्हें  मानने  ही  होंगे  मेरे  निर्देश
इस  से  अधिक  की  आशा  मत  करो

यदि  तुम  अब  भी  असंतुष्ट  हो
तो  लिख  सकते  हो
स्वयं  अपनी  कहानी
तुम  चाहो  तो
बाहर  निकल  सकते  हो
इस  कहानी  से…

जो  भी  निर्णय  हो  तुम्हारा
सूचित  कर  देना  मुझे
चरित्रों  के  सूखने  से  पहले !

                                             ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

  …

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

पा सकूं एक नाम...!

मैं  जब  समुद्र  था
बहुत-से  आकाश  थे
मेरे  भीतर
अजेय,  अपरिमेय
असीम…
स्वयं  मेरे  अपने  विस्तार  से
कहीं  बहुत  अधिक  विशाल
अक्सर  मेरे  मनोबल  को
चुनौती  देते !

जब  मैं  सूर्य  था
तब
अनगिनत  नदियां  प्रवाहित  थीं
मेरे  अंतर्मन  की  अग्नि  को
शांत  करती
अपनी  शिशु-सहज  अठखेलियों  से
बहलाती  हुई   मुझे

मैं  जब  मनुष्य  था
मेरे  भीतर
सारे  समुद्र  थे
सारे  आकाश
और  सारी  नदियां
करोड़ों  आकाश-गंगाएं
तरह-तरह  की  संस्कृतियां
अबूझ,  अविस्मरणीय,
एक-दूसरे  से   जूझते  इतिहास
बनती-मिटती   सभ्यताएं ....


यह  प्रश्न  पूछा  जा  सकता  है
सहज  ही
कि  मैं  इतना  कुछ  होते  हुए  भी
क्यों  कभी  बचा  नहीं  पाया
अपनी  अस्मिता....

सम्भवत: ,  मैं  मात्र  एक विचार  ही  था
अविकसित,  अपरिपक्व
एक  अपूर्ण  शरीर
एक  भ्रमित  मस्तिष्क  में
बार-बार  सिमटता-फैलता
जन्म  लेता  और  मरता  हुआ ....

नहीं,  कोई  कथा  नहीं  है  मेरी
जिसे  कहा-सुना  जा  सके

अगली  बार  जब  जन्म  लूं
प्रयास  करूंगा 
कि  पा  सकूं  एक  नाम
स्पष्ट  और  सुनिश्चित....!

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

न्याय और अन्याय !

शोर  जब  जनहित  में  हो
तो  अपराध  नहीं  होता
जनहित  में  वस्तुत:  क्रांति  भी
अपराध  नहीं  होती
यहां  तक  कि  जन-विरोधी  शासक-वर्ग  को
नेस्त-नाबूद  कर  देना  भी …

जब  शासक-वर्ग  जनहित  के  विरुद्ध  हो
तो  दंड-संहिताएं  बदल  दी  जानी  चाहिए
बदल  दिए  जाने  चाहिए
न्यायाधीश  और  न्यायालय

न्याय  यदि  पीड़ित  को  स्वीकार  न  हो
तो  न्याय  कैसा ?

सन्दर्भों  से  परे
न्याय  और  अन्याय
हो  सकता  है
समानार्थक  लगें

किन्तु  समय-विशेष  पर
कौन  तय  करेगा
न्याय  और  अन्याय  की
परिभाषाएं ?

                                                 ( 2013 )
                             
                                          -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 16 दिसंबर 2013

नमो नारायण कबाड़ी !

लो,  आ  गया  गांव  में
नमो  नारायण  कबाड़ी !

ले  आओ  बाप-दादों  की
ज़ंग  खाई  तलवारें
चाक़ू-छुरियां,  भाले और त्रिशूल
अब  शायद  ज़रूरत  न  पड़े  इनकी
वैसे  भी  इसी  के   गुर्गों  की  देन  है
यह  कबाड़....

सुना  है  कि  जब
देश  का  शासक  बन  जाएगा
नमो  नारायण
तब  बीच  समुद्र  में
खड़ा  करेगा
संसार  का  सबसे  ऊंचा  बिजूका
जिसके  सर   पर  बीट  करने
आमंत्रित  किए  जाएंगे
दुनिया  भर  के  गिद्ध  और  कौए…

कहां  चक्कर  में  पड़  गया  बेचारा
सीधा-सच्चा  नमो  नारायण  कबाड़ी
ऐसी  अद्भुत  कल्पना-शक्ति  पा  कर  भी

समझाओ  यार  कोई !
कविताएं  लिख 
और  चाय  बेच,  चाय  !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

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रविवार, 15 दिसंबर 2013

...मगर बताएंगे नहीं !

बहुत  से  चमत्कार 
घटित  होते  हैं
लोकतंत्र  के  प्रांगण  में
मुख्य  प्रतिद्वंदियों  की 
आशाओं  के  विपरीत ....

अक्सर  मुक़ाबला  वे  जीतते  हैं
जो  सबसे  पीछे  दीखते  हैं !

न,  स्वप्न  देखना  अपराध  नहीं
संसार  के  किसी  भी  देश  में
किसी  भी  क़ानून  में
और  हो  भी  तो  क्या  ?

ऐसी  कोई  दवा  भी  तो  नहीं  बनी
आज तक
जो  बदल  दे
करोड़ों  मनुष्यों  की
जैविक  संरचना
एक  ही  ख़ुराक़  में  !

यही  तो  आनंद  है  लोकतंत्र  का
कि  लड़ते  हैं  वे
जिनके  हाथ  में
कोई  सूत्र  नहीं  होता !

हथियार  जिनके  पास  होते  हैं
वे  पता  नहीं  कब  और  कैसे
अपनी  रण-नीति  तय  करते  हैं
और  देखते  ही  देखते
खंडित  कर  देते  हैं
सारे  साम्राज्य  !

छत्र-भंग  तो  हो  कर  ही  रहेगा
इस  बार  भी
मगर  अगला  सिर  किसका  होगा
जिस  पर  सजेगा  छत्र
यह  सिर्फ़
हम  ही  जानते  हैं

जानते  हैं
मगर  बताएंगे  नहीं
किसी  को  भी  !

                                                  ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 




शनिवार, 14 दिसंबर 2013

क्या ज़रूरत थी...?

आ  रहा  है  विजय-रथ
लोकतंत्र  के  महा-रण   में
विजयी  महारथी  का
जीत  के  उन्माद  में  चूर
सिपाहियों  की  भीड़  के  साथ  …

गाजे-बाजे,  आतिशबाज़ी
और  जीत  की  सलामी  देती  बंदूकें
काफ़ी  हैं
दहशत  में  डालने  के  लिए
पराजित  प्रत्याशियों 
और  समर्थकों  को

कोई  नहीं  रोकेगा  इस  समय
इस  निर्लज्ज  प्रदर्शन  को
जो  ध्वस्त  करता  जा  रहा  है
तमाम  स्थापित  मूल्य
मान्यताएं  और  परम्पराएं

यदि  लोकतंत्र  का  महा संग्राम
इसी  तरह  संपन्न  होना  है
जहां  पराजितों  की  मनुष्यता
एक  ही  वार  में  नष्ट  कर  दी  जाए
और  उन्हें  गाजर-मूली  की  तरह
काट  डाला  जाए
और  विजेता  को
सरे  आम  लूट  का
अधिकार  दे  दिया  जाए
तो  क्या  ज़रूरत  थी
सामंतवाद  के  स्थान  पर
लोकतंत्र  लाने  की  ?

                                              ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल 

  …

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

बहुत फिसल चुके !

कितना  विचित्र  अंधकार  है
प्रकाश  की  संभावना
नज़र  ही  नहीं  आती
इस  देश  में !

हम  तो  सर्वज्ञात  थे
सारे  संसार  को
मार्ग  दिखाने  के  लिए…!

बहुत  फिसल  चुके  हम
नैतिक  और  आध्यात्मिक  रूप  से
स्वतंत्र  होते  ही
कई  शताब्दियों  की  परतंत्रता  से

आख़िर  क्या  हुआ  ऐसा
क्या  यह  परतंत्रता  का  संस्कार  है
या  हमारी  जैविक  दुर्बलता  ?

निर्णय   हमें  ही  करना  है
और  परिष्कार  भी !

                                                         ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

तुम मनुष्य नहीं !

तुम्हारे  हाथ  में   चार  उंगलियां  हैं
तुम  मनुष्य  नहीं  हो

तुम  खाना  हाथ  से  खाते  हो
तुम  भी  मनुष्य  नहीं  हो

तुम  हमारी  तरह  नहीं  सोचते
तुम  तो  कभी  भी
नहीं  हो  सकते  मनुष्य  !

पेशकार,  ज़रा  आवाज़  लगाओ
उस  प्रकृति  को
जिसने  बनाया  है
इन  आधे-अधूरे  मनुष्यों  को  !

हम 
न्याय  के  सर्वोच्च  आसन  पर
बैठने  वाले
न्यायाधीश  निर्णय  देते  हैं
कि  ऐसे  हर अजूबे  को
बेदख़ल  कर  दो
मनुष्यता  से
जो  शरीर  या  रुचियों  से
ठीक  हमारे  जैसा  न  हो !

कल  से  कोई  भी  ऐसा  अजूबा
सामने  आए
तो  उसे  डाल  दो  जेल  में
दस  साल  के  लिए
ज़्यादा  गंभीर  मामला  हो
तो  सारे  जीवन  के  लिए

पेशकार !
वह  प्रकृति  हाज़िर  हुई 
या  नहीं ?!

                                           (2011)

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

..

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

क्षमा किया आपको !

स्पष्ट  बताइए
एक  भी  शब्द  व्यर्थ  किए  बिना
कि  यह  खेल  है
या  युद्ध....

नियम  तय  करना
और  उनका  पालन  करना
आवश्यक  है
दोनों  पक्षों  के  लिए
कहीं  कोई  छूट  नहीं
न  राहत
किसी  भी  वास्तविक  या  काल्पनिक
कारण  के  लिए

आप  हमें  मूर्ख  समझते  हैं
कि  हम  आपके  कहे  अनुसार
अपनी  रणनीति  बनाएं ?!

आपने  ही  की  थी  अभ्यर्थना
'युद्धं  देहि !'
अब 
हाथ  क्यों  कांप  रहे  हैं  आपके
प्रत्यंचा  चढ़ाते  ?

चलिए,  क्षमा  किया  आपको
अगली  बार  तय  करके  आइए
रणभूमि  में
अच्छी  तरह  से
अपने  गुरुजन  से  परामर्श  करके !

                                                  (2011)

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

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यही वक़्त है ....

वे दिन गए 
जब आम आदमी भागता था 
कुर्सियों के पीछे 
अब आम आदमी आगे 
और पीछे-पीछे दौड़ रही हैं कुर्सियां 
जैसे  आगे  हों बिल्लियां
और  चूहे  उन्हें  छकाते  हुए 
जैसे  शेर  कांपने  लगे  थर-थर 
बकरियों  को  देख  कर ... 

अद्भुत  दृश्य  है  न 
न  कभी  देखा  न  सुना 

इसे  सहेज  कर  रख  लीजिए 
अपनी  स्मृतियों  में 
2011  में  जनपथ  की  चेतावनी  वाले 
दृश्यों  के  साथ  जोड़  कर 
अपनी  भावी  पीढ़ियों  के  
सामाजिक  संस्कार  के  लिए …

हां,  यही  वक़्त  है 
सही  वक़्त

इसके  पहले  
कि  पूंजीवाद  नष्ट  कर  दे 
मानवता  की  बची-खुची  निशानियां 
और  छिन्न-भिन्न  कर  दे 
संबंधों  के  ताने-बाने 
कुछ  आदर्श  रख  लीजिए  बचा  कर 
ताकि  कुछ  बच  रहे 
दिन-प्रतिदिन  जर्जर  होती 
मनुष्यता  की  उम्र  !

                                                (2011) 

                                        -सुरेश  स्वप्निल  



 

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

अबे ओ, मालिक !

न  मालिक !  बहुत  हुआ
मज़दूरी  तो  देनी  ही  होगी  तुम्हें
आज  और  अभी

बहुत  हाड़  तोड़  लिए,  मालिक
झंडे  उठा-उठा  कर
ख़ूब  दौड़  लिए  यहां-वहां
रात-रात  भर  जाग-जाग  कर
उठाते-धरते  रहे
तुम्हारी  सभाओं  के  ताम-झाम
गले  फाड़-फाड़  कर  नारे  लगाते
फेफड़े  तक  सुजा  लिए  अपने

किसलिए,  मालिक  ?
चार  पैसे  के  ही  लिए  न !

आपने  वादा  किया  था
कि  चुनाव  के  दिन  ही
मिल  जाएंगे  पैसे
अब  तो  परिणाम  भी  आ  चुका,  मालिक !

मालिक,  आपकी  हार-जीत  से
हमें  क्या  मतलब ?
हमने  अपना  काम  किया
पूरी  ईमानदारी  से
आप  हारे  या  जीते
हमें  इससे  क्या ?

मालिक,  घर  नहीं  गए  हैं  हम
पिछले  दो  महीने  से
हमारा  भी  घर-बार  है
बच्चे  हैं  छोटे-छोटे....

किस  बात  का  सब्र,  मालिक ?
भीख  नहीं,
अपने  काम  की  मज़दूरी
मांग  रहे  हैं  हम !

अबे  ओ,  मालिक !
मज़दूरी  देता  है  सीधे-सीधे
हमारी
या  उठाएं  झाड़ू  ?!!

                                                   (2013)

                                             -सुरेश  स्वप्निल

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

श्रद्धांजलि : कॉमरेड नेल्सन मंडेला

                                    ख़ेराजे-अक़ीदत

                                               ख़ेराजे-अक़ीदत
               
                                      जनाब  मरहूम  नेल्सन  मंडेला 


                         उसके  क़दमों  के  निशां  वक़्त  के  सीने  पे  हैं 

                         चला  ज़रूर  गया  है  वो:  शख़्स  दुनिया  से  …


                     कामरेड  नेल्सन  मंडेला  ज़िंदाबाद !  ज़िंदाबाद !
                     कामरेड  नेल्सन  मंडेला  अमर  रहें!  अमर  रहें !



                                                                                          6  दिसं  2013


                                                             -सुरेश  स्वप्निल  और  इंसानियत  के  तमाम  सिपाही



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गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

इस बार चूकने का अर्थ...

अंत  निकट  है
एक  जन-विरोधी  सरकार  का
तुम्हारी  तैयारियां  क्या  हैं
एक  वास्तविक 
और  जनोन्मुखी  विकल्प  के  लिए  ?

समय  कम  है
और  विकल्प  सीमित
उत्तरदायित्व  असीमित  हैं

अपना  लक्ष्य  सुनिश्चित  करो
और  इतना  संघर्ष  करो
कि  आने  वाली  कई  सरकारें
तुम्हारे  नाम  से  ही  भयभीत  रहें  ....

दो  दशक  से  अधिक  समय  तक
निरंतर  अपमान
भूख,  भय,  अत्याचार
भ्रष्टाचार,  मंहगाई,  बेरोज़गारी
क्या-क्या  नहीं  सहा  तुमने  ???

ऐसा  लोकतंत्र  मत  लादो
अपने  सिर  पर
कि  फिर  भुगतना  पड़े
सदियों  तक  ....

अभी  समय  है
जो  करना  है  अभी  ही  करना  होगा
इस  बार  चूकने  का  अर्थ  है
सारी  संभावनाएं  नष्ट  कर  लेना  !

कल  शिकायत  किससे  करोगे  ?
और  किस  बात  की
अपनी  कायरता  की  ???

                                                   (2013)

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

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बुधवार, 4 दिसंबर 2013

वे मारे जाते हैं ...

असली  खेल  तो  अब  शुरू  होगा
जब  शिकार  के  मांस  से
पेट  भर  चुकने  के  बाद
वापस  लौट  जाएगा  शेर
अपनी  कंदरा  में

उसके  बाद  बारी  आएगी   परजीवियों  की
सबसे  पहले
शिकार  को  घेर  कर  लाने  वाले
जंगली  कुत्तों  की
फिर  सियार
फिर  लोमड़ियां
फिर  गिद्ध....
एक-दूसरे  पर  झपटते
एक-दूसरे  का  मांस  नोंचते
कोई  नहीं  चाहता
दूसरे  को खाने  देना

यद्यपि, बड़ी  विचित्र  बात  है
कि  अपनी  पसन्द  के  हिस्से
खा  चुकने  के  बाद
सब  लौट  जाते  हैं
दूसरी  जाति  के  पशुओं  को
बचा-ख़ुचा  खाने  के  लिए  छोड  कर

एक  अलिखित  समझौता  है
सारे  मांसाहारियों  के  बीच
सबकी  अपनी-अपनी  बारी
सबके   अपने-अपने  हिस्से

जो  मारे  जाते  हैं
वे  शिकायत  नहीं   करते

या  इसे  यूं  भी  कहा  जा  सकता  है
कि  वे  मारे  जाते  हैं
जो  शिकायत  नहीं  करते  !

                                                       (2013)

                                                -सुरेश स्वप्निल

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सोमवार, 2 दिसंबर 2013

श्रद्धांजलि: भोपाल गैस त्रासदी

बच्चा  डूबा   है  नींद  में
नींद  बहुत  गहरी  है
गहरा  है  नींद  का  रहस्य

बच्चे  की  मुंदी  हुई  आंखों  में
क़ैद  हैं  कई  सपने
फूलों  के,  परियों  के
रंगीन  तितलियों  के
डरे  और  सहमे  से

बच्चे  की  नींद  पर
बैठा  है  फन  खोले
ज़हरीला  नाग  एक
(विज्ञानं  की  पुस्तकों  में
मिथाइल  आइसो  सायनेट  के  नाम  से
पहचाना  गया)

नाग  की  हिफ़ाज़त  में
भारी  ख़ज़ाना  है
परदेसी  बंजारा
छोड़  गया  अपना  धन
लौटेगा
लौटेगा  एक  दिन…

छप्पर  की  दरारों  से
टुकुर-टुकुर  तकती  है
मटमैली  गौरैया
बच्चे  की  मुंदी  हुई  आंखों  में
नापती  है  नाग  की  आंखों  की  गहराई
तौलती  है  अपने  पंखों  की  ताक़त

लाएगी  गौरैया
छीन  कर  बंजारे  से
नींद  के  तालों  की  चाभियां
नागों  का  वशीकरण-मंत्र
खोलेगी  नींद  का  रहस्य !

                                                      (1985)

                                               -सुरेश  स्वप्निल