सोमवार, 9 दिसंबर 2013

अबे ओ, मालिक !

न  मालिक !  बहुत  हुआ
मज़दूरी  तो  देनी  ही  होगी  तुम्हें
आज  और  अभी

बहुत  हाड़  तोड़  लिए,  मालिक
झंडे  उठा-उठा  कर
ख़ूब  दौड़  लिए  यहां-वहां
रात-रात  भर  जाग-जाग  कर
उठाते-धरते  रहे
तुम्हारी  सभाओं  के  ताम-झाम
गले  फाड़-फाड़  कर  नारे  लगाते
फेफड़े  तक  सुजा  लिए  अपने

किसलिए,  मालिक  ?
चार  पैसे  के  ही  लिए  न !

आपने  वादा  किया  था
कि  चुनाव  के  दिन  ही
मिल  जाएंगे  पैसे
अब  तो  परिणाम  भी  आ  चुका,  मालिक !

मालिक,  आपकी  हार-जीत  से
हमें  क्या  मतलब ?
हमने  अपना  काम  किया
पूरी  ईमानदारी  से
आप  हारे  या  जीते
हमें  इससे  क्या ?

मालिक,  घर  नहीं  गए  हैं  हम
पिछले  दो  महीने  से
हमारा  भी  घर-बार  है
बच्चे  हैं  छोटे-छोटे....

किस  बात  का  सब्र,  मालिक ?
भीख  नहीं,
अपने  काम  की  मज़दूरी
मांग  रहे  हैं  हम !

अबे  ओ,  मालिक !
मज़दूरी  देता  है  सीधे-सीधे
हमारी
या  उठाएं  झाड़ू  ?!!

                                                   (2013)

                                             -सुरेश  स्वप्निल

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