वे दिन गए
जब आम आदमी भागता था
कुर्सियों के पीछे
अब आम आदमी आगे
और पीछे-पीछे दौड़ रही हैं कुर्सियां
जैसे आगे हों बिल्लियां
और चूहे उन्हें छकाते हुए
जैसे शेर कांपने लगे थर-थर
बकरियों को देख कर ...
अद्भुत दृश्य है न
न कभी देखा न सुना
इसे सहेज कर रख लीजिए
अपनी स्मृतियों में
2011 में जनपथ की चेतावनी वाले
दृश्यों के साथ जोड़ कर
अपनी भावी पीढ़ियों के
सामाजिक संस्कार के लिए …
हां, यही वक़्त है
सही वक़्त
इसके पहले
कि पूंजीवाद नष्ट कर दे
मानवता की बची-खुची निशानियां
और छिन्न-भिन्न कर दे
संबंधों के ताने-बाने
कुछ आदर्श रख लीजिए बचा कर
ताकि कुछ बच रहे
दिन-प्रतिदिन जर्जर होती
मनुष्यता की उम्र !
(2011)
-सुरेश स्वप्निल
.
जब आम आदमी भागता था
कुर्सियों के पीछे
अब आम आदमी आगे
और पीछे-पीछे दौड़ रही हैं कुर्सियां
जैसे आगे हों बिल्लियां
और चूहे उन्हें छकाते हुए
जैसे शेर कांपने लगे थर-थर
बकरियों को देख कर ...
अद्भुत दृश्य है न
न कभी देखा न सुना
इसे सहेज कर रख लीजिए
अपनी स्मृतियों में
2011 में जनपथ की चेतावनी वाले
दृश्यों के साथ जोड़ कर
अपनी भावी पीढ़ियों के
सामाजिक संस्कार के लिए …
हां, यही वक़्त है
सही वक़्त
इसके पहले
कि पूंजीवाद नष्ट कर दे
मानवता की बची-खुची निशानियां
और छिन्न-भिन्न कर दे
संबंधों के ताने-बाने
कुछ आदर्श रख लीजिए बचा कर
ताकि कुछ बच रहे
दिन-प्रतिदिन जर्जर होती
मनुष्यता की उम्र !
(2011)
-सुरेश स्वप्निल
.
1 टिप्पणी:
sahi kaha , yahi wakt hai
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