देश का अर्थ है देश
-यानी प्रदेश/यानी ज़मीन / यानी पेड़/ यानी हवा, पानी, कोयला
यानी शहर/ यानी गाँव/ यानी आदमी।
आदमी को लगती है भूख/ भूख को चाहिए रोटी/ रोटी के लिए पैसा/
पैसे के लिए नौकरी/ नौकरी के लिए रिश्वत।
-देश का अर्थ है भूख/ देश का अर्थ है रोटी/ देश का अर्थ है-
-पैसा/ नौकरी/ देश का अर्थ है रिश्वत/ भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार की माँ है कुर्सी / कुर्सी के लिए चाहिए वोट/ वोट के लिए -
-आश्वासन / मक्कारी/ हरामख़ोरी।
देश का अर्थ है कुर्सी/ देश का अर्थ है वोट/ देश का अर्थ है/-
-आश्वासन/ मक्कारी / हरामख़ोरी।
देश की मालिक है जनता/ जनता की आँखें हैं अंधी
देश/ उसकी मुट्ठी में/ दबी हुई रेवड़ी
देश का सेवक है नेता / आँखें चमकती हुईं/ और हाथ ...फैले हुए।
देश का अर्थ है जनता/ उसकी अंधी आँखें/ देश का अर्थ है नेता/-
-उसकी खुली आँखें
देश का अर्थ है लुटता हुआ माल / देश का अर्थ है ' सेवक' ख़ुशहाल /
देश का अर्थ है 'मालिक' फटेहाल!
-देश - एक शरीर है/ क्षत-विक्षत , घायल / तिल-तिल कर मरता हुआ/
गिद्धों की भीड़ में नुचता हुआ! ! !
( नोट:- हमारे देश में एक किताब चलती है, 'प्रजातंत्र ' ! देश के ये अर्थ उस किताब के
विभिन्न अध्यायों में से उद्धृत हैं। यह किताब गीता, बाइबिल और क़ुरआन से भी महान
है क्योंकि यही व्यक्ति को सच्चे सुख के मार्ग दिखाती है। जो भी श्रद्धालु इस किताब में
बताए गए पथ का अनुसरण करेगा , लक्ष्मी उसके चरणों में खेलेगी और सत्ता में उसे
महत्वपूर्ण पद प्राप्त होगा। इस किताब का माहात्म्य अपार है, अक्षुण्ण है।
अतः, एक साथ मिल कर बोलिए--प्रजातंत्र की जय! ! !)
( 11 अगस्त ,1975)
-सुरेश स्वप्निल
( यह कविता आपातकाल में लिखी और चार दिन बाद , 15 अगस्त, 1975 को 'दैनिक देशबंधु' के
तत्कालीन भोपाल संस्करण में प्रथमतः प्रकाशित हुई थी । तदनंतर, 1982 में 'दैनिक नवभारत' के
दीपावली विशेषांक में एवं पुनः, भोपाल से प्रकाशित अनियतकालीन पत्रिका 'अंतर्यात्रा' के 13वें अंक
(सुरेश स्वप्निल विशेषांक ) में 1983 में प्रकाशित हुई। उसके पश्चात्, लगभग 20 अन्य पत्र-पत्रिकाओं
में, यत्र -तत्र प्रकाशित हुई।)