"मैं/ मैं हूं/ एक साधारण शरीर !
एक जोड़ी आंखें/ और एक-एक जोड़ी/ हाथों और पांवों के अलावा
सञ्चित है जिसमें/ पांच-साढ़े पांच किलोग्राम/ गाढ़ा-लाल रक्त
अपने ढाई-ढाई फ़ीट के पैरों पर/ दिन भर/ लुढ़कता-पुढ़कता मैं
अपने सञ्चित रक्त-कोष की रक्षा की/ कोशिश को/ रखे हुए हूं बरक़रार !
शब्द/ शब्द हैं/ किसी भी व्यक्तित्व पर चिपक कर/ संज्ञा बन जाने को आतुर
चारों ओर भटकते हुए/ ढूंढते फिरते अपना शिकार !
पतले, धारदार शब्द/ मोटे, भोथरे शब्द/ गंदे, लिजलिजे शब्द ....
बच्चों-जैसे मासूम/ फूल-जैसे सुंदर/ और बकरियों-जैसे/ निरीह शब्द ...
और 'समय' और 'भाग्य'-जैसे/ निहायत सड़े-बुसे शब्द
जैसे इनके बिना/ चल ही नहीं सकता/ आदमी का कार-बार !
और हैं खटमल !
फूले-फूले, गुलगुले/ संतृप्त खटमल/ और सूखे-सुखाए/ बेजान-से/ भूखे-प्यासे खटमल
बिस्तरों में/ अलमारियों में/ दीवारों पर उभर आई दरारों में/ और किताबों के पन्नों में/
दुबके हुए/ अपने न कुछ-से शरीर की/ भूख मिटाने को/
करते हुए रात का इंतज़ार !
अनपेक्षित शब्दों की भीड़ से बच कर/ अपनी फ़ैक्टरी तक पहुंचने के लिए/ मैंने ढूंढ ली है/
एक संकरी-सी, गुमनाम-सी गली/ जिससे या तो मैं गुज़रता हूं/
या नगर-निगम के सफ़ाई-कर्मचारी !
शब्दों को/ मूर्ख बना कर/ इस गली से/ इत्मीनान से/ बच निकलता हूं मैं/ हर बार !"
..............................................
यह बयान जिस आदमी का है/ वह मारा गया/ मेरे सामने !
न जाने उन्हें किसने दी थी ख़बर/ और वे/ गली में उसके घुसते ही/
चेंट गए थे उसके शरीर से/ मोटे-मोटे होंठों/ फूली हुई तोंदों/ और दरांतियों-जैसे दांतों वाले/
खूंख्वार शब्द/ और उसके छटपटाने पर/ मुंह खोल कर हंसने वाले शब्द ....
धीरे-धीरे/ घुसते गए थे वे/ उसके शरीर में/ और निचुड़ कर आता रहा बाहर
गाढ़ा-गर्म और लाल-सुर्ख़ ख़ून !
शब्दों के उस शरीर से/ अलग हो चुकने के बाद/ मैंने छुआ उसे/ और सहलाता रहा/ कुछ देर
उसने शायद/ मुझे अपना दोस्त समझा/ और सौंप दी मुझे/ अपनी डायरी/
जिसमें लिखा था यह सब/ और यह भी/ कि/ उसे/ अपने खटमलों से है प्यार !
वह/ मेरे हाथों में मर कर/ छोड़ गया है एक प्रश्न/ कि रात के आने पर/ क्या होगा/
उन खटमलों का ? ? ? !
( 1978 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'अंतर्यात्रा', 1983
एक जोड़ी आंखें/ और एक-एक जोड़ी/ हाथों और पांवों के अलावा
सञ्चित है जिसमें/ पांच-साढ़े पांच किलोग्राम/ गाढ़ा-लाल रक्त
अपने ढाई-ढाई फ़ीट के पैरों पर/ दिन भर/ लुढ़कता-पुढ़कता मैं
अपने सञ्चित रक्त-कोष की रक्षा की/ कोशिश को/ रखे हुए हूं बरक़रार !
शब्द/ शब्द हैं/ किसी भी व्यक्तित्व पर चिपक कर/ संज्ञा बन जाने को आतुर
चारों ओर भटकते हुए/ ढूंढते फिरते अपना शिकार !
पतले, धारदार शब्द/ मोटे, भोथरे शब्द/ गंदे, लिजलिजे शब्द ....
बच्चों-जैसे मासूम/ फूल-जैसे सुंदर/ और बकरियों-जैसे/ निरीह शब्द ...
और 'समय' और 'भाग्य'-जैसे/ निहायत सड़े-बुसे शब्द
जैसे इनके बिना/ चल ही नहीं सकता/ आदमी का कार-बार !
और हैं खटमल !
फूले-फूले, गुलगुले/ संतृप्त खटमल/ और सूखे-सुखाए/ बेजान-से/ भूखे-प्यासे खटमल
बिस्तरों में/ अलमारियों में/ दीवारों पर उभर आई दरारों में/ और किताबों के पन्नों में/
दुबके हुए/ अपने न कुछ-से शरीर की/ भूख मिटाने को/
करते हुए रात का इंतज़ार !
अनपेक्षित शब्दों की भीड़ से बच कर/ अपनी फ़ैक्टरी तक पहुंचने के लिए/ मैंने ढूंढ ली है/
एक संकरी-सी, गुमनाम-सी गली/ जिससे या तो मैं गुज़रता हूं/
या नगर-निगम के सफ़ाई-कर्मचारी !
शब्दों को/ मूर्ख बना कर/ इस गली से/ इत्मीनान से/ बच निकलता हूं मैं/ हर बार !"
..............................................
यह बयान जिस आदमी का है/ वह मारा गया/ मेरे सामने !
न जाने उन्हें किसने दी थी ख़बर/ और वे/ गली में उसके घुसते ही/
चेंट गए थे उसके शरीर से/ मोटे-मोटे होंठों/ फूली हुई तोंदों/ और दरांतियों-जैसे दांतों वाले/
खूंख्वार शब्द/ और उसके छटपटाने पर/ मुंह खोल कर हंसने वाले शब्द ....
धीरे-धीरे/ घुसते गए थे वे/ उसके शरीर में/ और निचुड़ कर आता रहा बाहर
गाढ़ा-गर्म और लाल-सुर्ख़ ख़ून !
शब्दों के उस शरीर से/ अलग हो चुकने के बाद/ मैंने छुआ उसे/ और सहलाता रहा/ कुछ देर
उसने शायद/ मुझे अपना दोस्त समझा/ और सौंप दी मुझे/ अपनी डायरी/
जिसमें लिखा था यह सब/ और यह भी/ कि/ उसे/ अपने खटमलों से है प्यार !
वह/ मेरे हाथों में मर कर/ छोड़ गया है एक प्रश्न/ कि रात के आने पर/ क्या होगा/
उन खटमलों का ? ? ? !
( 1978 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'अंतर्यात्रा', 1983