गुरुवार, 31 जनवरी 2013

आओ, अमरीका !

आओ,  अमरीका

हम  ग़रीब
हम  नंगे
हम  भूखे
खड़े  हैं  आरती  लिए
इक्कीसवीं  सदी  के
दरवाज़े  पर

ले  चलो  हमें  आगे
उंगली  पकड़ा  कर

फैली  है  झोली  हमारी
पूँजी  दो
क़र्ज़  दो
हथियार  दो
तकनीक  दो
अपने  भक्तों  को
भोग - विलास  के
नए-नए  सामान  दो

आओ , अमरीका !

खोलो  कारख़ाने
सस्ता  श्रम
सुविधाएँ
कच्चा  माल  लो
जंगल-ज़मीन  लो
भरपूर  ब्याज़  लो 
जीवित  जनसंख्या  लो
प्रयोग  करो  जैविक  युद्धों  के
नवीनतम  हथियारों  के

मानव-विनाश  की
खुली  प्रयोगशाला  हम
हमसे  सस्ता  मानव
कहाँ  पर  मिलेगा ?

आओ, अमरीका !

                               ( 1985 )

                          - सुरेश स्वप्निल 

* अप्रकाशित, अप्रसारित