आज फिर जेब कट गई
बस में चढ़ते
या शायद
उतरते समय
कुछ कहा नहीं जा सकता
कि कौन हो सकता है
मुझ से भी ज़्यादा
ज़रूरतमंद !
समय भी तो ऐसा हो गया है
कि ज़िंदा रहने के सारे विकल्प
ख़त्म होते जा रहे हैं
एक-एक कर
क़तई अस्वाभाविक नहीं है
मेरा
या मेरी तरह किसी का भी
यूं लुट-पिट जाना
इस शहर में
तो मैं ही क्यूं इतना चिंतित हो रहूं
कि शाम का खाना
या रात की नींद छोड़ दूं ?
हां, अभी भी कुछ दोस्त हैं
शहर में
जिनके यहां खाना खाया जा सकता है
बिना किसी संकोच के…
पैसा फिर कमाया जा सकता है
उतना, जितना निकल गया है जेब से
शायद उतना भी, जितने में
सारी ज़रूरतें पूरी हो सकें ...!
नहीं, मैं तैयार नहीं हूं
इतनी सी बात पर शहर छोड़ देने को
आख़िर अपना शहर है
अपने ही लोग
बिना मजबूर हुए
कोई चोरी करता है भला ?
कम से कम मनुष्य तो नहीं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* सद्य: रचित/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
बस में चढ़ते
या शायद
उतरते समय
कुछ कहा नहीं जा सकता
कि कौन हो सकता है
मुझ से भी ज़्यादा
ज़रूरतमंद !
समय भी तो ऐसा हो गया है
कि ज़िंदा रहने के सारे विकल्प
ख़त्म होते जा रहे हैं
एक-एक कर
क़तई अस्वाभाविक नहीं है
मेरा
या मेरी तरह किसी का भी
यूं लुट-पिट जाना
इस शहर में
तो मैं ही क्यूं इतना चिंतित हो रहूं
कि शाम का खाना
या रात की नींद छोड़ दूं ?
हां, अभी भी कुछ दोस्त हैं
शहर में
जिनके यहां खाना खाया जा सकता है
बिना किसी संकोच के…
पैसा फिर कमाया जा सकता है
उतना, जितना निकल गया है जेब से
शायद उतना भी, जितने में
सारी ज़रूरतें पूरी हो सकें ...!
नहीं, मैं तैयार नहीं हूं
इतनी सी बात पर शहर छोड़ देने को
आख़िर अपना शहर है
अपने ही लोग
बिना मजबूर हुए
कोई चोरी करता है भला ?
कम से कम मनुष्य तो नहीं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* सद्य: रचित/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।