कल रात लगभग 12 बजे 'हंस' के संपादक और प्रसिद्ध कहानीकार एवं विचारक, हिंदी साहित्य से सवर्ण इजारेदारी ख़त्म करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अजेय योद्धा श्री राजेन्द्र यादव संसार से विदा हो गए !
मैं दुःखी हूं कि उन्हें लेकर जो ताज़ा विवाद उठा, उसमें मैं उनके विरोध में खड़ा रहा। वे मुझे कब और कैसे जानते थे, यह मैं उनसे कभी पूछ नहीं पाया। अनेक बार साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यक्रमों में उनसे मेरा सामना होता रहा किंतु मेरे और उनके बीच सम्बंध नमस्कार-प्रति नमस्कार से आगे नहीं बढ़ पाया। उसका एक कारण यह रहा कि मैं इतना महत्वाकांक्षी कभी रहा ही नहीं कि 'हंस' में रचना प्रकाशित करवा कर चर्चित होना चाहूं। 1982 में 'हंस' का पुनर्प्रकाशन करने के पूर्व जो पत्र मुझे लिखा था, वह अभी भी सुरक्षित है मेरे पास। यही वह समय था जब मैं सृजनात्मक रूप से सर्वाधिक सक्रिय हुआ करता था तथा 'हंस' से एक रचनाकार के रूप में जुड़ कर मैं अपने 'कैरिअर' को बहुत आगे बढ़ा सकता था।
अस्तु। मेरे और राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में कभी कोई ऐसी समानता मुझे नज़र नहीं आई कि मैं उनके पास जाने की इच्छा कर पाता, यद्यपि, मैं जानता था कि मेरे आगे बढ़ते ही वे मुझे गले से लगा लेते, ठीक वैसे ही जैसे कि उन्होंने मेरे समकालीन अनेक कहानीकारों-कवियों को लगाया।
मैं वास्तव में बेहद हैरान हूं कि मैंने सुबह से अभी तक उन रचनाकार-मित्रों की ओर से राजेन्द्र जी के निधन पर श्रद्धांजलि-स्वरूप एक भी शब्द न सुना, न पढ़ा जिनका साहित्य में जन्म ही राजेन्द्र जी और 'हंस' के माध्यम से हुआ… कृतघ्नता की सीमा यदि यह नहीं तो और क्या हो सकती है ? जिन्हें अपने साहित्यिक व्यक्तित्व के लिए राजेन्द्र जी का आपादमस्तक, आजीवन ऋणी होना चाहिए, जिनके वे न केवल साहित्यिक बल्कि आध्यात्मिक गुरु भी थे, वे ऐसे चुप हैं जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं !
बहरहाल, हिंदी साहित्य सदैव राजेन्द्र जी का ऋणी रहेगा भले ही उन्हें चाहे जितना नकारा जाए !
अलविदा, राजेन्द्र जी।
( 29/10/2013 )
-सुरेश स्वप्निल
मैं दुःखी हूं कि उन्हें लेकर जो ताज़ा विवाद उठा, उसमें मैं उनके विरोध में खड़ा रहा। वे मुझे कब और कैसे जानते थे, यह मैं उनसे कभी पूछ नहीं पाया। अनेक बार साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यक्रमों में उनसे मेरा सामना होता रहा किंतु मेरे और उनके बीच सम्बंध नमस्कार-प्रति नमस्कार से आगे नहीं बढ़ पाया। उसका एक कारण यह रहा कि मैं इतना महत्वाकांक्षी कभी रहा ही नहीं कि 'हंस' में रचना प्रकाशित करवा कर चर्चित होना चाहूं। 1982 में 'हंस' का पुनर्प्रकाशन करने के पूर्व जो पत्र मुझे लिखा था, वह अभी भी सुरक्षित है मेरे पास। यही वह समय था जब मैं सृजनात्मक रूप से सर्वाधिक सक्रिय हुआ करता था तथा 'हंस' से एक रचनाकार के रूप में जुड़ कर मैं अपने 'कैरिअर' को बहुत आगे बढ़ा सकता था।
अस्तु। मेरे और राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में कभी कोई ऐसी समानता मुझे नज़र नहीं आई कि मैं उनके पास जाने की इच्छा कर पाता, यद्यपि, मैं जानता था कि मेरे आगे बढ़ते ही वे मुझे गले से लगा लेते, ठीक वैसे ही जैसे कि उन्होंने मेरे समकालीन अनेक कहानीकारों-कवियों को लगाया।
मैं वास्तव में बेहद हैरान हूं कि मैंने सुबह से अभी तक उन रचनाकार-मित्रों की ओर से राजेन्द्र जी के निधन पर श्रद्धांजलि-स्वरूप एक भी शब्द न सुना, न पढ़ा जिनका साहित्य में जन्म ही राजेन्द्र जी और 'हंस' के माध्यम से हुआ… कृतघ्नता की सीमा यदि यह नहीं तो और क्या हो सकती है ? जिन्हें अपने साहित्यिक व्यक्तित्व के लिए राजेन्द्र जी का आपादमस्तक, आजीवन ऋणी होना चाहिए, जिनके वे न केवल साहित्यिक बल्कि आध्यात्मिक गुरु भी थे, वे ऐसे चुप हैं जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं !
बहरहाल, हिंदी साहित्य सदैव राजेन्द्र जी का ऋणी रहेगा भले ही उन्हें चाहे जितना नकारा जाए !
अलविदा, राजेन्द्र जी।
( 29/10/2013 )
-सुरेश स्वप्निल