हमने
अपने ख़ून-पसीने से लिखा इतिहास
उनका जाम छलका
और सब मिट गया !
शक्ति ? हां, हममें है- श्रम-शक्ति, नैतिकता, ईमानदारी
शक्ति उनमें भी है- वाक्-शक्ति, छल-कपट, चतुराई
हमने नहीं जाना अपना मूल्य
उन्होंने जाना है।
इसीलिए तो वे लाभ उठाते हैं
हमारे खून-पसीने की कमाई रोटी
छीन खाते हैं !
उनके हाथों में है हमारी रोटी
उनकी आस्तीन पर
हमारे लहू के दाग़ ...
हम क्यों नहीं कुछ कर पाते
चुप रह जाते हैं ?
क्या वे
और हिंसक हो गए हैं ?
या हम ही नपुंसक हो गए हैं ?!!
कुछ तो करना ही होगा
न सही वर्त्तमान,
भविष्य के लिए मरना ही होगा
ताकि
हमारी अगली पीढ़ी
अपना कमाया ख़ुद खा सके
और धो सके
हमारी नपुंसकता के गुनाह को।
( 1976 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'देश बंधु', भोपाल ( 1976 ), 'अंतर्यात्रा'-13, ( 1983 ). पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
अपने ख़ून-पसीने से लिखा इतिहास
उनका जाम छलका
और सब मिट गया !
शक्ति ? हां, हममें है- श्रम-शक्ति, नैतिकता, ईमानदारी
शक्ति उनमें भी है- वाक्-शक्ति, छल-कपट, चतुराई
हमने नहीं जाना अपना मूल्य
उन्होंने जाना है।
इसीलिए तो वे लाभ उठाते हैं
हमारे खून-पसीने की कमाई रोटी
छीन खाते हैं !
उनके हाथों में है हमारी रोटी
उनकी आस्तीन पर
हमारे लहू के दाग़ ...
हम क्यों नहीं कुछ कर पाते
चुप रह जाते हैं ?
क्या वे
और हिंसक हो गए हैं ?
या हम ही नपुंसक हो गए हैं ?!!
कुछ तो करना ही होगा
न सही वर्त्तमान,
भविष्य के लिए मरना ही होगा
ताकि
हमारी अगली पीढ़ी
अपना कमाया ख़ुद खा सके
और धो सके
हमारी नपुंसकता के गुनाह को।
( 1976 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: 'देश बंधु', भोपाल ( 1976 ), 'अंतर्यात्रा'-13, ( 1983 ). पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।