शनिवार, 27 जुलाई 2013

विश्वास आम आदमी का !

बहुत  देर  से   ढूंढ  रहा  हूं
सारी  दिल्ली  छान  ली
कहीं  भी  मुझे  खाना  नहीं  मिला
एक,  पांच  या  बारह  रुपये  में  !

सरकार  क्या  यह  भी  नहीं  जानती
कि  खाना  खाना  बुनियादी  ज़रूरत  है
मनुष्य  की
और  निस्संदेह,  यह  परिहास  का
विषय  नहीं  है

और  क्या  सरकार
यह  भी  नहीं  जानती
कि  उसके  पास
नाम-मात्र  का  भी  समय  नहीं  है
सत्ता  के  मार्ग  पर
वापसी  का  ?

अब  एक  भी  भूल
सारी  संभावनाएं  नष्ट  कर  देगी
तुम्हारी
और  तुम्हारी  आने  वाली
कई  पुश्तों  की !

कैसे  मूर्ख  हो  तुम
इतना  भी  नहीं  जानते
कि  तुमने 
खो  दिया  है  विश्वास
आम  आदमी  का  !

                                         ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल 


बुधवार, 24 जुलाई 2013

झूठ बोल रहे हैं प्रधानमंत्री

मैं  अमीर  हूं
क्योंकि  मैं  सौ  रुपये  प्रतिदिन  कमाता  हूं

मैं  अमीर  हूं
क्योंकि  मेरे  प्रधानमंत्री  कहते  हैं

सौ  रुपये  प्रतिदिन  में
क्या-क्या  करता  हूं
मेरे  घर  में  तीन  मोबाइल  फ़ोन  हैं
उन्हें  रिचार्ज  कराना
घर  में  फ़्रिज  है,  टी. वी.  है,  कंप्यूटर  है
पंखा  है,  तीन  बल्ब  हैं
उन  सबका  बिजली  का  बिल  जमा  करना
बेटी  निजी  स्कूल  में  पढ़ती  है
उसकी  पढ़ाई  और  बस  की  फ़ीस  चुकाना

सौ  रुपये  प्रति  लीटर  का
खाने  का  तेल
तीन  सौ  रुपये  प्रति  किलो  की
चाय  की  पत्ती
पचास  रुपये  प्रति  लीटर  का  दूध ….

आपको  आश्चर्य  हो  रहा  है  न  !
इतना  सब  करने  के  बाद
हम  तीन  प्राणी  खाना  भी  खाते  हैं
दोनों  समय
मकान  का  किराया  देते  हैं
दो  फ़िल्में  भी  देखते  हैं
तीज-त्यौहार  पर  नए  कपड़े  बनवाते  हैं
मेहमानों  की  आव-भगत  भी  करते  हैं …

मैं  यह  सब  करता  हूं
सौ  रुपये  प्रतिदिन  की  कमाई  में
क्योंकि  मैं  अमीर  हूं !

झूठ  बोल  रहे  हैं  प्रधानमंत्री
या  झूठ  बोल  रहा  है  सारा  देश !

                                                   ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 


सोमवार, 22 जुलाई 2013

यह कैसा संविधान ?

देश  में  अब
भेड़िया-तंत्र  चाहते  हैं
सियार !

वर्ण-संकर  कुत्तों  की  सरकार
बहुत  चल  चुकी
शेर  विलुप्त  हो  चुके
वन-प्रांतर  से
हाथी  शाकाहारी  हैं  अब  भी

विकट  समय  है  !
समस्या  यह
कि  सुरक्षा  कौन  करेगा
देश  की  ?

मुर्दाख़ोर  कबरबिज्जू
लाशें  खोद-खोद  कर
ख़ाली  कर  चुके
क़ब्रस्तान
और  अब
दृष्टि  लगाए  बैठे  हैं
जीवित  मनुष्यों  पर  !

विडम्बना  यह  कि
सारी  समृद्धि  लूट  कर
बैंक-खातों  में  जमा  कर  चुके
यही  मुर्दाख़ोर  कबरबिज्जू
वित्त  जुटा  रहे  हैं
भेड़िये  के  राज्यारोहण  के  लिए...

उफ़ !  यह  कैसा  संविधान  है
इस  देश  का
जहां  केवल  मनुष्यभक्षी  ही
पा  सकते  हैं  सत्ता !!!!! ?????

                                        ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल




गुरुवार, 18 जुलाई 2013

तुम्हारे बच्चे नहीं थे न !

वे  जो  मार   डाले  गए
ज़हर  मिला  खाना  खिला  कर
वे  तुम्हारे  बच्चे  नहीं  थे  न  !

वे  तो  मनुष्य  भी  नहीं  थे  शायद
सड़े-गले  जानवरों  का  मांस
और  तुम्हारी  जूठन  पर
जीवित  रहने  वाले
चूहे  खाने  वाले
मुसहर  कहीं  के  !

तुम्हारी  कृपा  न  होती
तो  जान  पाते  क्या  वे
गेहूं  की  रोटी
और  अरहर  की  दाल  का  स्वाद  ?

हम  भी  कितने  कृतघ्न  हैं
कि  संदेह  कर  रहे  हैं
तुम्हारी  दयालुता  पर  !

अच्छा,  जो  बच्चे  मर  गए
एक  समय  के  भोजन  के  लालच  में
वे  जीवित  रहते  तो  क्या  करते  ?
अंततः,  बंधुआ  ही  तो  बनते  तुम्हारे  !

अच्छा  हुआ
जो  मार डाला  तुमने
ज़हर  खिला  कर
मुक्त  तो  हुए
जीवन-भर  की  दरिद्रता
और  रोज़ी-रोटी  की  चिंता  से  !

जो  कुछ  भी  हुआ
अच्छा  ही  हुआ
वे  क्या  पढ़-लिख  कर
प्रधानमंत्री  बन  जाते  !

मत  रोओ  उनके  नाम  पर
महा मूर्खों !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल


बुधवार, 17 जुलाई 2013

दो-टके के भिखारी !

हम  'प्रजा'  नहीं  किसी  की
न  तुम  राजा  या  सम्राट  हमारे
हम  हैं  'लोक'
संप्रभु,  स्वायत्त  नागरिक  !

हम  पर  'राज'  करने  के  सपने
मत  देखो,  मूर्खाधिराज !
सिर्फ़  'सेवक'  हो  तुम  हमारे
वेतन-प्राप्त  करने  वाले
पांच  वर्ष  की संविदा  पर  नियुक्त
साधारण  कर्मचारी  !

संविदा  समाप्त
तुम्हारी  नौकरी  भी  समाप्त  !

अगली  बार
हमारा  'मत'  मांगने  आओ
तो  ध्यान  रखना
अगली  बार  तुम्हारे  वचन-भंग
तो  तुम्हारा  छत्र  भी  भंग !

जाओ,  ज़्यादा  शोर  मत  करो
दो  टके  के  भिखारी
मक्कारों !
बहुत-से  काम  करने  हैं  हमें
तुम्हारा  दोज़ख़  भरने  को  भी  !

                                           ( 2013 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल






मंगलवार, 16 जुलाई 2013

क्या कर लेंगे आप ?

मैं / जली-कटी  सुनाने  का  आदी  हूं !
चीखूंगा-चिल्लाऊंगा / सबको  दूंगा  अभिशाप
मेरा  क्या  कर  लेंगे  आप ?
पहले  दीपक  को  गाली  दी  थी
अब  सूरज  को  दूंगा / आप  रोकेंगे  मुझे ?
हिम्मत  है  तो  आ  जाइए / अपनी  मर्दानगी  आज़माइए
कम  से  कम/ चुप  तो  नहीं  कर  सकेंगे  मुझे  आप !
यह  तो / आपकी  ही  नज़रों  में  अवैध  है
बोलने  की  आज़ादी / दी  है  हमें / शायद / आपको  इसका  खेद  है
तो  छीन  लीजिए  यह  आज़ादी  भी /-
और  अपनी  मां  के  गटर  में / डाल  आइए  !
लेकिन / खाने-पीने  और  कमाने  से  वञ्चित  आदमी  का /
खुला  हुआ  मुंह
गालियां नहीं / तो  क्या / तुलसी  के  भजन  सुनाएगा ?

ग़रीबों  का  सूखता  लहू / एक  दिन / रंग  लाएगा।
क्या  तुम / क़यामत  के  उस  दिन  के  लिए / तैयार  हो ?

नफ़रत  की  आग / बुरी  होती  है / मेरे  यार ! / जल  जाओगे।
हमें  छुओ / हमें  जानो / हमारे  क़रीब  आओ
हमारे  दुःख-सुख  में / हाथ  बंटाओ / तो  जी  सकोगे।
वरना / याद  रखना- यार / वक़्त  के  सर  से / जब  पानी  गुज़र  जाएगा
तुम्हारे  अस्तित्व  का / कोई  भी  चिह्न / नहीं  नज़र  आएगा।

मेरी  आवाज़ / वक़्त  की  तरफ़  से / चेतावनी  है  तुम्हें
सुनो  न  सुनो / तुम्हारी  मर्ज़ी !
फिर  भी / मैं/ चीखूंगा-चिल्लाऊंगा / सबको  दूंगा  अभिशाप
मेरा  क्या  कर  लेंगे  आप ?

                                                                                                ( 1976 )

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

*प्रकाशन: 'देशबंधु', भोपाल, 1976, 'अंतर्यात्रा'-13, 1983 एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन  हेतु उपलब्ध।

सोमवार, 15 जुलाई 2013

तुम्हारा भावी राजाधिराज !

नमो-नमो !

इस  चेहरे  को  ध्यान  से  देखो
इसके  काया-कल्प  में
एक  सौ  पचास  करोड़  रुपये
ख़र्च  हो  गए
पूंजीपतियों  के  !

नमो-नमो  !

इस  चेहरे  को  और  ध्यान  से  देखो
सो  कर  उठने  से  लेकर
दर्शकों  के  सामने  लाने  तक
दर्ज़न-भर  दास-दासियां
लगे  रहते  हैं
घंटों  तक !

नमो-नमो  !

कुछ  और  ध्यान  से  देखो
इस  चेहरे  को
अभी  कुछ  देर  में
रक्त  छलकने  लगेगा  इसकी  आंखों  में
मुंह  से  बाहर  निकल  आएंगे
कुछ  दांत
निर्दोष  मनुष्यों  के
रक्त  से  सने

नमो-नमो  !

यह  मनुष्य  है  या  भेड़िया
या  आधा  मनुष्य  है
और  आधा  भेड़िया ...
यह  जो  कुछ  भी  है
यह  तुम  तय  करो
मगर  यह  तुम्हें  कुत्ते  का  पिल्ला
कहता  है !

नमो-नमो  !

इसे  स्वीकार  करो
मूर्ख  जनता !
यह  मनुष्य  हो  या  पशु
देव  हो  या  दानव
यही  है  तुम्हारा  मुक्तिदाता
तुम्हारा  भावी  राजाधिराज  !

नमो-नमो
नमो-नमो !

                                      ( 2013 )

                              -सुरेश  स्वप्निल 

 


शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

क्रांति के बाद !

दुर्भाग्य  यह  है  कि  जनता
सब  कुछ  याद  रखती  है
कई-कई  शताब्दियों
और  पीढ़ियों  के
गुज़र  जाने  के  बाद  भी

दुर्भाग्य  यह  भी  है
कि  जनता
अक्सर  विरोध  नहीं  करती
शासकों  का

मगर  सबसे  बड़ा  दुर्भाग्य
यह  है  कि
जनता  जब  उठ  खड़ी  होती  है
विद्रोह  के  लिए
तो  बड़े  से  बड़े  साम्राज्य  भी
मिल  जाते  हैं
धूल  में !

और  शासकों  को  यह  समझ  में
आता  तो  है,
मगर  क्रांति  के  बाद !

                                                     ( 2013 )


                                            -सुरेश  स्वप्निल


गुरुवार, 11 जुलाई 2013

शब्दों का समुचित मूल्य !

बहुत-से  शब्द  थे
स्मृति  की  पोटली  में
लगभग  अनगिनत
एक-एक  कर  झिर  गए
जीवन  के  पथ  पर ...

जाने  कब-कहां  छेद  हो  गया !

मैंने  तो
बहुत  सावधानी  से  सहेज  रखी  थी
शब्दों  की  पोटली
अपने  कंधे  पर !

मुझे  पता  नहीं
कि  संसार  के  किस  बाज़ार  में
बिकते  हैं  शब्द
कौन  चोर  ऐसा  हो  सकता  है
जिसे
दूसरे  के  शब्द  चाहिए
जीवन-यापन  के  लिए !
कौन  ग्राहक  होगा  इतना  समृद्ध
कि  चुका  सके
शब्दों  का  समुचित  मूल्य !

यह  भी  संभव  है
कि  सचमुच
मेरी  ही  असावधानी  से
फट  गई  हो  पोटली !


मेरे  शब्द
किसी  के  भी  काम  के  नहीं  हैं
यथार्थतः
और  वस्तुतः
केवल  अपने  ही  शब्द  हैं
जो  पार  करा  सकते  हैं
वैतरणी  जीवन  की !

जो  भी  हो
यदि  आप  में  से  किसी  को
मिले  हों  मेरे  शब्द
तो  लौटा  दें,  कृपया !
मेरा  पता  है ......

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल


शनिवार, 6 जुलाई 2013

सभ्य-जनों, सुनो !

अपने-अपने  घरौंदों  में  दुबके  हुए
शांति-प्रेमी  देश-भक्त  नागरिकों,  सुनो
सुनो  सभी
सुसंस्कृत,  सुशिक्षित
सभ्य-जनों,  सुनो
सुनो  हे  जन-गण-मन  गायकों
क़ानून  के  पालनहारो,  सुनो

सुनो,  क्योंकि  तुम
केवल  सुनना  ही  जानते  हो
तुम  रेडियो  सुनते  हो
और  सच  मान  लेते  हो
टी . वी .  देखते  हो
और  सच  मान  लेते  हो
अख़बार  पढ़ते  हो  और  छपे  हुए
हर  शब्द  को 
अकाट्य  प्रमाण  मान  लेते  हो ....

तुम्हें  केवल  मानना  ही  आता  है
प्रश्न  करना  तो  कब  का  भूल  चुके  हो  तुम
हर  कोई  ईश्वर  बन  जाता  है  तुम्हारा
यहां  तक  कि  नून-तेल-लकड़ी  बेचने  वाला  भी
और  शक्कर  से  मधुमेह  का
उपचार  करने  वाला  भी ....

जब  तुम्हारी  आंखों  के  आगे
सड़क  पर  पड़ी
घायल  महिला 
दम  तोड़  रही  होती  है
तब  तुम  बहरे  हो  जाते  हो
जब  तुम्हारे  विधर्मी  पड़ोसी  का  घर
आग  के  हवाले  कर  दिया  जाता  है
तुम  आंखों  पर  हाथ  रख  कर
अंधे  बन  जाते  हो
जब  कोई  अत्याचार  का  शिकार
न्याय  की  लड़ाई  में
तुम्हें  गवाह  बनाना  चाहता  है
तुम  गूंगे  हो  जाते  हो

जब  सत्ताधीश  और  पूंजीपतियों  की  सम्मिलित  सेनाएं
तुम्हारी  आने  वाली  पीढ़ियों  के  लिए
जीवित  रहने  के  सारे  मार्ग  बंद  कर  रही  होती  हैं
तुम  अंधे-बहरे-गूंगे
और  लंगड़े-लूले  बन  कर
समर्पण  कर  देते  हो ....

तुम  इसी  योग्य  हो
कि  बीच  सड़क  पर  रौंद  दिए  जाओ
और  दफ़न  हो  जाओ  एक  मृत  राष्ट्र  की  भांति

अब  कभी  जनपथ  पर
मत  आना  न्याय  की  पुकार  लगाने !
                               
                                                                  ( 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल


गुरुवार, 4 जुलाई 2013

भेदने होंगे सारे चक्रव्यूह

शासकों  का 
हृदय-परिवर्त्तन  नहीं  होता
परिवर्त्तन  चाहिए
तो  मौन  असंतोष  से
कुछ  नहीं  होगा
और  न  छिट-पुट  विप्लवों  से

उखाड़  कर  फेंकने  होंगे
साम्राज्यों  के  स्मृति-चिह्न
तोड़ने  होंगे  सत्ताधारियों  के 
सारे  तिलिस्म
ध्वस्त  करने  होंगे
शत्रुओं  के  सुरक्षा-कवच
भेदने  होंगे
सारे  चक्रव्यूह
फाड़  कर  फेंकनी  होंगी  ध्वजाएं
गढ़ने  होंगे  नए  प्रतीक
और  प्रतिमान
तत्पर  रहना  होगा
किसी  भी  क्षण
बलिदान  के  लिए ....

क्रांति
कोई  बच्चों  का  खेल  नहीं  है !

                                                      ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल


मंगलवार, 2 जुलाई 2013

पता नहीं कब...

आपदा  मेरी  नहीं  थी
मैंने  वे  हिमखण्ड  नहीं  देखे
जो  धरती  का  तापमान  बढ़ने  पर
पिघल  गए
वे  पर्वत  भी  नहीं  देखे  मैंने
जहां  मेघ  फटे
और  बहा  ले  गए  गांव  के  गांव

जो  लोग  अदृश्य  हो  गए
भागीरथी-अलकनंदा  के  प्रवाह  में
उनमें  संभवतः  कोई  भी
परिचित  नहीं  था  मेरा

मगर  मैं  क्या  करूं
इतने  सारे  शव
और  भय  से  कांपते  मनुष्य,
पशु-पक्षी  और  पेड़-पौधे  देख  कर
संभवतः  उन्मादी  हो  गया  हूं  मैं
कोई  तर्क,  कोई  धारणा  मेरे  काम  नहीं  आते
कोई  अदृश्य  शक्ति  मुझे
सांत्वना  नहीं  दे  पाती
कोई  ईश्वर  तैयार  नहीं  कारण  समझाने  को ....

मुझे  पता  नहीं  कि  कब  तक
नींद  नहीं  आएगी  मुझे
पता  नहीं  कब  तक
वे  अपरिचित  चेहरे
भय  और  दुःख   में  डूबे  हुए
रुलाते  रहेंगे  मुझे

पता  नहीं  कब
मैं  लिख  पाऊंगा
नई  कविता  !

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल