बहुत पहले
बहुsssत पहले
गंगाधर पंडित के द्वारे पर
गूंजे थे सोहरे
बँटी थीं मिठाइयाँ
जी-भर कर।
कथा सत्यनारायण की
भोज कन्याओं का
नेग दाई-नाई का
सभी कुछ हुआ था
चाचा ने, ताऊ ने
चौधरी-पटेल ने
गाँव-गली-गैल ने
दी थीं बधाइयाँ
वेत्रवती के तट पर
महकी थी मौलिश्री
बेला की नई-नई
कलियाँ मुस्काई थीं।
दूध और केसर के
मिश्रण-सा गौर-वर्ण
कस्तूरी हिरनी के
छौने-से चपल अंग
पूनम-सी छटा थी
अमावस-से गहन भाव
पंडित की कन्या थी
साक्षात् पार्वती .....
दूध में ऋचाएं मिलीं
घूंटी में चौपाई
वेद-शास्त्र-ज्ञान मिला
पिता के स्नेह में
क्वाँर के महीनों में
सुअटा के गीत गाए
अकती पर गुड़ियों के
ब्याह भी रचा डाले
कदम्ब की डालों पर
श्रावण के झूलों की
पींगों-सी पल-पल
बड़ी हुई पार्वती ...
पंडित की छाती पर
जाने कब बोझ हुई
चम्पे-सी महक भरी
बिटिया सयानी !
विन्ध्यगिरि पर्वत-से
माथे को झुका गई
किस-किस की देहरी
किस-किस के चरण छुए ..
जोग नहीं बैठा
अभाव का समृद्धि से
शीशम-सी काया भी
सूख हुई दुहरी !
... सुना एक दिन यूं ही
पनघट पर बातों में
मुंह काला कर गई
कलंकिनी किसी के संग ....
बात क्या हुई आख़िर
किसी को नहीं पता
कोई कुछ कहता है
कोई कुछ कहता ....
वही वेत्रवती का तट है
वही गाँव, घर वही
सुना है कि मौलिश्री
अब नहीं महकती
बस, गंगाधर पंडित
बौराया-सा फिरता है
"दीनबंधु, शरण लो!"
गुहार लगाता हुआ
भूल गए गिरधारी
क्या तुम अपना ही स्वर
"अहं त्वां सर्व पापेभ्यम्
मोक्षयिष्यामि मा शुचः " ????? !!!
( 1979 )
-सुरेश स्वप्निल
*प्रकाशन: 'साक्षात्कार', भोपाल, 1983 । पुनः प्रकाशन हेतु सानुमति उपलब्ध।
बहुsssत पहले
गंगाधर पंडित के द्वारे पर
गूंजे थे सोहरे
बँटी थीं मिठाइयाँ
जी-भर कर।
कथा सत्यनारायण की
भोज कन्याओं का
नेग दाई-नाई का
सभी कुछ हुआ था
चाचा ने, ताऊ ने
चौधरी-पटेल ने
गाँव-गली-गैल ने
दी थीं बधाइयाँ
वेत्रवती के तट पर
महकी थी मौलिश्री
बेला की नई-नई
कलियाँ मुस्काई थीं।
दूध और केसर के
मिश्रण-सा गौर-वर्ण
कस्तूरी हिरनी के
छौने-से चपल अंग
पूनम-सी छटा थी
अमावस-से गहन भाव
पंडित की कन्या थी
साक्षात् पार्वती .....
दूध में ऋचाएं मिलीं
घूंटी में चौपाई
वेद-शास्त्र-ज्ञान मिला
पिता के स्नेह में
क्वाँर के महीनों में
सुअटा के गीत गाए
अकती पर गुड़ियों के
ब्याह भी रचा डाले
कदम्ब की डालों पर
श्रावण के झूलों की
पींगों-सी पल-पल
बड़ी हुई पार्वती ...
पंडित की छाती पर
जाने कब बोझ हुई
चम्पे-सी महक भरी
बिटिया सयानी !
विन्ध्यगिरि पर्वत-से
माथे को झुका गई
किस-किस की देहरी
किस-किस के चरण छुए ..
जोग नहीं बैठा
अभाव का समृद्धि से
शीशम-सी काया भी
सूख हुई दुहरी !
... सुना एक दिन यूं ही
पनघट पर बातों में
मुंह काला कर गई
कलंकिनी किसी के संग ....
बात क्या हुई आख़िर
किसी को नहीं पता
कोई कुछ कहता है
कोई कुछ कहता ....
वही वेत्रवती का तट है
वही गाँव, घर वही
सुना है कि मौलिश्री
अब नहीं महकती
बस, गंगाधर पंडित
बौराया-सा फिरता है
"दीनबंधु, शरण लो!"
गुहार लगाता हुआ
भूल गए गिरधारी
क्या तुम अपना ही स्वर
"अहं त्वां सर्व पापेभ्यम्
मोक्षयिष्यामि मा शुचः " ????? !!!
( 1979 )
-सुरेश स्वप्निल
*प्रकाशन: 'साक्षात्कार', भोपाल, 1983 । पुनः प्रकाशन हेतु सानुमति उपलब्ध।