गुरुवार, 18 जुलाई 2013

तुम्हारे बच्चे नहीं थे न !

वे  जो  मार   डाले  गए
ज़हर  मिला  खाना  खिला  कर
वे  तुम्हारे  बच्चे  नहीं  थे  न  !

वे  तो  मनुष्य  भी  नहीं  थे  शायद
सड़े-गले  जानवरों  का  मांस
और  तुम्हारी  जूठन  पर
जीवित  रहने  वाले
चूहे  खाने  वाले
मुसहर  कहीं  के  !

तुम्हारी  कृपा  न  होती
तो  जान  पाते  क्या  वे
गेहूं  की  रोटी
और  अरहर  की  दाल  का  स्वाद  ?

हम  भी  कितने  कृतघ्न  हैं
कि  संदेह  कर  रहे  हैं
तुम्हारी  दयालुता  पर  !

अच्छा,  जो  बच्चे  मर  गए
एक  समय  के  भोजन  के  लालच  में
वे  जीवित  रहते  तो  क्या  करते  ?
अंततः,  बंधुआ  ही  तो  बनते  तुम्हारे  !

अच्छा  हुआ
जो  मार डाला  तुमने
ज़हर  खिला  कर
मुक्त  तो  हुए
जीवन-भर  की  दरिद्रता
और  रोज़ी-रोटी  की  चिंता  से  !

जो  कुछ  भी  हुआ
अच्छा  ही  हुआ
वे  क्या  पढ़-लिख  कर
प्रधानमंत्री  बन  जाते  !

मत  रोओ  उनके  नाम  पर
महा मूर्खों !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल