आओ, अपनी रोटी छीनें
यहाँ बाघ हैं, वहां भेड़िये
सारे क़ातिल, सारे वहशी
सबके मुंह में ख़ून लगा है
आओ, अपनी रोटी छीनें
हम छिटपुट हैं, और निहत्थे
वे ताक़तवर , और इकट्ठे
वे मुट्ठी भर , हम अगणित हैं
आओ, अपनी रोटी छीनें
नाख़ूनों पर धार चढ़ाओ
खुली जंग का वक़्त आ गया
साथी , मिल कर धावा बोलें
आओ, अपनी रोटी छीनें।
(1981)
-सुरेश स्वप्निल
प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल , 1981
यहाँ बाघ हैं, वहां भेड़िये
सारे क़ातिल, सारे वहशी
सबके मुंह में ख़ून लगा है
आओ, अपनी रोटी छीनें
हम छिटपुट हैं, और निहत्थे
वे ताक़तवर , और इकट्ठे
वे मुट्ठी भर , हम अगणित हैं
आओ, अपनी रोटी छीनें
नाख़ूनों पर धार चढ़ाओ
खुली जंग का वक़्त आ गया
साथी , मिल कर धावा बोलें
आओ, अपनी रोटी छीनें।
(1981)
-सुरेश स्वप्निल
प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल , 1981