मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

मात्र एक श्रद्धांजलि...!

अम्मां बताती  थीं  कि  कैसे
दौड़ते  हुए
चढ़  जाती  थीं  वे
रतनगढ़  मंदिर  की  सीढ़ियां
और  किस-किस  से  सीखे
उन्होंने  माता  के  भजन
उन्हीं  सीढ़ियों  पर  बैठ   कर
किसने  सिखाया  उन्हें
मैया  जी  की  भेंट  गाना

इसी  रतनगढ़  मंदिर  की  देन  तो  था
अम्मां  का  संगीत !

नहीं,  कोई  दोष  नहीं
मरने  वालों  का
और  न  माता  रानी  का
वे  तो  देने  वाली  हैं  सभी  को
मनचाहे  वरदान….

कल  जब  रतनगढ़  मंदिर  की  सीढ़ियों  पर
गिनी  जा  रही  थीं  लाशें
जब  सिंध-जैसी  नाले नुमां  नदी  में
बहती  देखी  गईं
बच्चे-बूढ़े  और  स्त्रियों  की  लाशें
मुझे  बहुत  याद  आई  अम्मां
और  'रतनगढ़'  वाली  मैया  की
बचपन  में  सुनी  कहानियां  ….
और  आल्हा-ऊदल  के
मुंह  में  ढाल-तलवार  दाब  कर
बाढ़  में  तैरने  के  क़िस्से  !

मैं  जानता  हूं  कि  इस  दुर्घटना  से
मेरा  या  मेरे  परिवार  का
कोई  लेना-देना  नहीं
कि  मेरी  अम्मां  को  गए
बीत  चुके  हैं  न  जाने  कितने  बरस
कि  हम  भाई-बहनों  ने
रास्ता  भी  नहीं  देखा
'रतनगढ़  वाली  माता'  के  मन्दिर  का ....

लेकिन  मैं  कैसे  भूलूं  कि
इन्हीं  माता  रानी  की  देन  थीं
मेरी  अम्मां
और  इन्हीं  के  नाम  पर
रखा  गया  था  अम्मां  का  नाम
किसी  मन्दिर  से  मिला  था  उन्हें  संगीत 
कि  इस  मन्दिर  के  प्रांगण  से
अभी  भी  नज़र  आता  है
मेरा  ननिहाल .....

गांव-रिश्ते  से
मरने  वाले  सब  के  सब  
रिश्ते में  आते  थे  मेरे.....

यह  कोई  कविता  नहीं  है
क्षमा  कीजिए  पाठक-गण....
यह मात्र  एक  श्रद्धांजलि  है 
एक  कवि  की
अपने  अनाम  रिश्तेदारों  के  नाम  !