गुरुवार, 31 जनवरी 2013

आओ, अमरीका !

आओ,  अमरीका

हम  ग़रीब
हम  नंगे
हम  भूखे
खड़े  हैं  आरती  लिए
इक्कीसवीं  सदी  के
दरवाज़े  पर

ले  चलो  हमें  आगे
उंगली  पकड़ा  कर

फैली  है  झोली  हमारी
पूँजी  दो
क़र्ज़  दो
हथियार  दो
तकनीक  दो
अपने  भक्तों  को
भोग - विलास  के
नए-नए  सामान  दो

आओ , अमरीका !

खोलो  कारख़ाने
सस्ता  श्रम
सुविधाएँ
कच्चा  माल  लो
जंगल-ज़मीन  लो
भरपूर  ब्याज़  लो 
जीवित  जनसंख्या  लो
प्रयोग  करो  जैविक  युद्धों  के
नवीनतम  हथियारों  के

मानव-विनाश  की
खुली  प्रयोगशाला  हम
हमसे  सस्ता  मानव
कहाँ  पर  मिलेगा ?

आओ, अमरीका !

                               ( 1985 )

                          - सुरेश स्वप्निल 

* अप्रकाशित, अप्रसारित 

बुधवार, 30 जनवरी 2013

टेलीविज़न, बच्चे और सपने

रोज़  शाम  को
सूरज  ढलने  के  साथ- साथ
निकल  पड़ते  हैं  बच्चे
टोलियाँ  बना  कर
टेलीविज़न  देखने

बच्चे  ताक-झांक  करते  हैं
खिड़कियों-दरवाज़ों  से
और सींक-जैसी  दरारों  में
आँखें  गड़ा कर  बैठ  जाते  हैं

वे  इंतज़ार  करते  हैं
मैगी, मॉल्टोवा   और  मिल्कमेड  के  इश्तहारों  का
और  बूस्ट  और  बोर्नविटा  वाले  बच्चों  का
वे  दून  स्कूल  के  बच्चों  से  सीखते  हैं
" सारे  जहाँ  से  अच्छा ......"

वे  डॉक्टर  की  बातें
बड़े  ध्यान  से  सुनते  हैं
और  याद  करते  हैं
कि  कहाँ-कहाँ  से  मिलते  हैं
विटामिन  ए , बी-1, बी-2, सी , डी ....

बच्चे  जब  सोते  हैं
तो उनके  सपनों  में  आते  हैं
अंडे, मछलियाँ , ताज़ी-हरी  सब्ज़ियां
दूध  और  मिल्क-चॉकलेट्स

बच्चे
सुबह  काम  पर  निकलने  से  पहले
सूखी  रोटियां  चाय  में  डुबो  कर
खाते  हुए
सोचते  हैं  शाम  के  बारे  में।                

                                                              ( 1985 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: अनेक प्रतिष्ठित समाचार -पत्रों एवं पत्रिकाओं में , 1985-1988

 

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

पतंग लूटते बच्चे

अभी  वे  आएंगे
नंगे  पांव  दौड़ते  हुए
बांसों  पर  टंगी  आँखों  से
आसमान  निहारते-
कटी  हुई  पतंग  के  पीछे-पीछे।

पतंग  लूटते  बच्चे  बहुत  मासूम  हैं।
उन्हें  नहीं  मालूम
कितना  मुश्किल  है
कटी  हुई  पतंग  की  चाल  भांपना।

-पतंग  तितली  नहीं  होती
कि  सिर्फ़
फूलों  पर  बैठे।

रास्ते  के  बीचों-बीच
खड़ा  हुआ  पेड़
और  उसकी  हज़ार  बांहें
आश्वस्त  हैं
पतंग
कहाँ  जाएगी  बच  कर ?

अगर  मैं  पेड़  के  नीचे  खड़ा  हूँ ,
मेरी  नीयत  पर  शंका  मत  करो
मैं  उस  बच्चे  को  पेड़  पर  चढ़ना  सिखाऊंगा
जिसकी  आँखें 
सबसे  ज़्यादा  चमकदार  हैं
और  हाथ .......सबसे  नन्हे  !

                                                       ( 1981 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

प्रकाशन: अंतर्यात्रा-13 ( जन ., 1983 );  'साक्षात्कार' ( जुलाई-सितं ., 1984 )

सोमवार, 28 जनवरी 2013

शहर बढ़ रहा है ....

शहर  बढ़  रहा  है
सील  मछलियों  के  शिशुओं  की  तरह
एक-दूसरे  को  कुचलते-रौंदते
प्रगति  और  विकास  की  तूफ़ानी  लहरों  से
टकरा  कर
ढहते  और  उठते

शहर  बढ़  रहा  है

सबसे  पहले  काटे  गए  जंगल
फिर  हुए  मैदान  समतल
उड़ती  गई  धीरे-धीरे
वन्य-पशुओं  की  आदिम  गंध
और  नवजात  मैदानों  में
बढ़ती  गई  ग़ुलामों  की  आमद
खड़े  हुए  घास-फूस-मिट्टी  के  दड़बे
बनने  लगीं  श्रेष्ठि-वर्ग  की
विशाल  अट्टालिकाएं
शहर  के  सबसे  सुविधाजनक   स्थानों  पर

शहर  बढ़  रहा  है

खुल  रहे  हैं  कारख़ाने
सरकारी  कार्यालय
बड़े-बड़े  व्यापारिक  संस्थान
बाज़ार
सरकारी  कर्मचारियों  के  आवास गृह
खेलों  के  मैदान
रोटरी , लायंस ,  जेसीज़  क्लब
सभ्यता  और  संस्कृति  के  अजायबघर
सरकारी  कला  संस्थान

शहर  बढ़  रहा  है

कम  पड़ती  जा  रही  है  ज़मीन
चल  रहे  हैं  बुलडोज़र
गिर  रही  हैं  झोपड़ियाँ
खदेड़े  जा  रहे  हैं  ग़ुलाम
शहर  की  सीमाओं  से  बाहर
नई  झोपड़ियों  के  लिए
मुआवज़ा  दे  कर।

शहर  बढ़  रहा  है
शहर  के  भीतर
बढ़  रहा  है  सभ्यता  का  जंगल।

                                             ( 1985 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल


रविवार, 27 जनवरी 2013

मैं बहुत जल्दी नहीं मरूंगा

मेरी आँख
आवारा हो गई है
सचमुच

अब देखो,
कल तुम्हारे ड्राइंग रूम में घुस गई
और टटोलती रही
पर्दे, शो-पीशेस , अल्मारियां
उनके तहख़ाने
और तुम्हारे तमाम काले-उजले पन्नों पर फुदकती
उनके चित्र  खींच लाई
वह तुम्हारे बेड रूम में भी जाती
लेकिन
तुम्हारा पालतू तोता चीख़ा
और वह लौट आई

मेरे  हाथ भी आवारा होना चाहते हैं
अबकी बार
वे  आँख के साथ जाएंगे
तुम्हारे पालतू तोते के इलाज के लिए

तुम मेरी आँख को सज़ा दोगे
मुझे मालूम है
तुम मेरे हाथों को सज़ा दोगे
मुझे मालूम है
मुझे यह भी मालूम है
कि तुम
मेरे हर उस अंग को सज़ा दोगे
जो तुम्हारे निर्द्वन्द साम्राज्य में
घुसपैठ करेगा

मैं ज़्यादा दिन नहीं जिऊंगा
मैं जानता हूँ
मैं बहुत जल्दी नहीं मरूंगा
यह तुम भी जानते हो।

                                                ( 1982 )

                                     -सुरेश स्वप्निल

* अब तक अप्रकाशित/अप्रसारित रचना, प्रकाशनार्थ उपलब्ध।


शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

जय गणतंत्र !

ऊंचा  झण्डा
नीची  आँखें
जय  गणतंत्र !

वोट  पके
सरकार बनाओ
जय गणतंत्र !

दल  तोड़ो
सरकार  गिराओ
जय गणतंत्र !

दोनों  हाथों
माया लूटो
जय गणतंत्र !

क़र्ज़  कबाड़ो
खेल कराओ
जय  गणतंत्र !

पटरी  तोड़ो
रेल गिराओ
जय गणतंत्र !

झगड़ा -दंगा
भाषण झाड़ो
जय गणतंत्र !

भूख-ग़रीबी
लाठी-गोली
जय गणतंत्र !

खीस निपोरो
ध्वज फहराओ
जय गणतंत्र !

आंसू पोंछो
गाना  गाओ
जय गणतंत्र !

जय गणतंत्र !
जय गणतंत्र !
जय गणतंत्र !

               ( 1982 )

         - सुरेश स्वप्निल 

* पूर्णतः अप्रकाशित/अप्रसारित रचना 

जाते कहाँ हैं प्रश्न ?

प्रश्न  यह  कि  आख़िर
जाते  कहाँ  हैं  प्रश्न ?

जहाँ-जहाँ  से  गुज़रता  है  वह
पांवों  के  नीचे
कुचले  जाते  प्रश्न
चीख़  कर  उछलते  हैं
और  उसकी  जेब  में  जा  बैठते  हैं !

तुम्हें  उत्तर  चाहिए ?

तो  प्रश्नों  के  पीछे
मज़बूती  से खड़े  रहना  सीखो।

                                             ( 1985 )

                                 -सुरेश  स्वप्निल 

* अब तक अप्रकाशित/अप्रसारित रचना।

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

धूप सिर्फ़ अख़बार पर है

ख़बर यह कि
बदल गए फूलों  के रंग

सफ़ेद आसमान
सफ़ेद ख़बर
रक्तहीन  क्रांति ?
क्रन्तिहीन रक्त!

आस्तीनों  में सांप
शब्दों को दुहते हुए
ख़ून की आख़िरी बूँद तक!

बुझे हुए स्टोव पर चाय !
आग
कौन ले गया चुरा कर
तुम्हारी ?

तुम्हारा पुंसत्व
नई सृष्टि नहीं गढ़ता
तो सोओ अभी
ठंडा है  सूरज!

धूप सिर्फ़ अख़बार पर है
और तुम्हारा चेहरा
एक शाम
तनहा
उदास !

                                                            ( 1983 )

                                                - सुरेश स्वप्निल 

* अभी तक अप्रकाशित 

बुधवार, 23 जनवरी 2013

मछुए

सागर  की  चौड़ी  छाती  पर
सूरज  की  धुंधलाती  आभा
तैर  रही  है।
लौट   रहे  हैं  पंछी  घर  को
धीरे-धीरे ......

दर्पण-जैसे  शांत  नीर  को
चीर  रही  हैं  दो  नौकाएं
उन  मछुओं  की
जिनको  मछली  नहीं  मिली  है
कल-परसों  से।

वे  अपनी  झोपड़-पट्टी  में
आज  लौट  कर  नहीं  आएंगे
ख़ाली  हाथों।

-हो  सकता  है  आज  उठे
तूफ़ान  भयंकर
मौसम  के  विभाग  से
ऐसी  ख़बर  मिली  है।

                                             (1977)

                               -सुरेश  स्वप्निल

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

आओ, अपनी रोटी छीनें

आओ,   अपनी    रोटी    छीनें

यहाँ   बाघ   हैं,    वहां   भेड़िये
सारे   क़ातिल,    सारे    वहशी
सबके   मुंह   में   ख़ून   लगा   है

आओ,     अपनी     रोटी     छीनें

हम   छिटपुट  हैं,  और  निहत्थे
वे    ताक़तवर ,    और    इकट्ठे
वे  मुट्ठी  भर , हम  अगणित हैं

आओ,     अपनी     रोटी    छीनें

नाख़ूनों     पर     धार     चढ़ाओ
खुली  जंग  का   वक़्त  आ गया
साथी ,  मिल   कर   धावा  बोलें

आओ,     अपनी    रोटी    छीनें।

                                        (1981)

                          -सुरेश  स्वप्निल 

प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल , 1981

सोमवार, 21 जनवरी 2013

मुझे इंतज़ार है ...

किस क़दर ख़ामोश हैं ये पेड़ सब!
देखो/  हवा भी तो नहीं चलती!
परिंदे मौन हैं/ ख़रगोश सब दुबके हुए हैं झाड़ियों में

ये किस शेर के मौजूद होने का अहसास है/ जिसके .खूंख्वार जबड़ों से
आती कच्चे गोश्त की बू/ सारे जंगल में/ फैलती जाती है ?

एक अव्यक्त भय / सबकी रग़ों में दौड़ता है / कभी-कभी / सन्नाटे को तोड़ कर /
गूँज उठती हैं अचानक / चीख़ें / तिनकों की तलाश में निकले ख़रगोशों की।
सब/ पड़े रहते हैं चुपचाप / सुन कर भी नहीं सुनते / उन आवाज़ों को ....

अपनी आँतों में फंसे / आहार को चुभलाते / उसके ख़त्म होकर /
शरीर से बाहर निकलने तक / कोई नहीं हिलता !

फिर किसी दिन / आँतों की कुलबुलाहट से परेशान / आहार की तलाश में
निकलता है कोई जानवर।
फिर इसी तरह / गूंजती हैं चीख़ें ....
सब के सब / पड़े रहते हैं चुपचाप / पेड़ तक ख़ामोश।
और हवा ...नहीं चलती।

मुझे इंतज़ार है / हवा के उस झोंके का / जो / किसी के रोके नहीं रुकेगा
और जो / सब पेड़ों को हिलाएगा। / पक्षी गीत गाएंगे / और ख़रगोश
उछलेंगे-कूदेंगे / जिसके आने पर / और वह हवा का झोंका
जंगल के सभी जानवरों को / एक होने की / प्रेरणा देगा ....

उस दिन / शेरों को सूंघ जाएंगे सांप / और शहर के अख़बार
छापेंगे यह ख़बर : 'जंगल में क्रांति हो गई।'.....
                                                                                                      ( 1979 )

                                                                                            -सुरेश स्वप्निल 

रविवार, 20 जनवरी 2013

सूरज कितनी दूर होगा उन हाथों से ?

एक  सूरज  है / लिपटा  हुआ अँधेरे  में /
आकाश  पर / बादलों  के  बीच
और  दो  हाथ हैं / अपनी  नस-नस  को  झनझनाते  हुए /
और  सभी  तंतुओं  की / सम्मिलित  शक्ति  को /
अँधेरे  के  विरुद्ध / सहेजते  हुए !

और, एक  दलदल  है / पांवों  के ठीक  नीचे ....

पांव  धंसते  जाते  हैं / निरंतर /
दलदली  कीचड़  में  / और  हाथ / उठते  जाते  हैं /
अँधेरा  हटाते / सूरज  की  ओर !

ज़रा  देखो / और  बताओ / कि  सूरज /
कितनी  दूर  होगा /
उन  हाथों  से ?

                                                                           ( 1979 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

देश एक शरीर है ....

देश  का  अर्थ  है  देश
-यानी  प्रदेश/यानी ज़मीन / यानी  पेड़/ यानी  हवा, पानी, कोयला
यानी शहर/ यानी गाँव/ यानी आदमी।

आदमी  को  लगती है भूख/ भूख  को  चाहिए  रोटी/ रोटी के लिए पैसा/
पैसे  के  लिए नौकरी/ नौकरी  के  लिए  रिश्वत।

-देश  का  अर्थ  है  भूख/ देश  का  अर्थ  है  रोटी/ देश  का अर्थ  है-
-पैसा/ नौकरी/ देश  का  अर्थ  है  रिश्वत/ भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार  की माँ है कुर्सी / कुर्सी  के  लिए  चाहिए  वोट/ वोट  के  लिए -
-आश्वासन / मक्कारी/ हरामख़ोरी।

देश  का  अर्थ  है  कुर्सी/ देश  का  अर्थ  है  वोट/ देश  का  अर्थ  है/-
-आश्वासन/ मक्कारी / हरामख़ोरी।

 देश की  मालिक  है जनता/ जनता  की  आँखें  हैं  अंधी
देश/ उसकी  मुट्ठी में/  दबी  हुई रेवड़ी
देश  का  सेवक  है  नेता / आँखें  चमकती  हुईं/  और  हाथ ...फैले  हुए।

देश  का  अर्थ  है  जनता/ उसकी अंधी  आँखें/ देश  का  अर्थ  है  नेता/-
-उसकी  खुली  आँखें

देश  का  अर्थ  है  लुटता  हुआ  माल / देश  का  अर्थ  है ' सेवक'  ख़ुशहाल /
देश  का  अर्थ  है  'मालिक'  फटेहाल!

-देश - एक  शरीर  है/  क्षत-विक्षत , घायल / तिल-तिल  कर  मरता  हुआ/
गिद्धों  की  भीड़  में  नुचता  हुआ! ! !

( नोट:- हमारे  देश  में  एक  किताब  चलती  है, 'प्रजातंत्र ' ! देश  के  ये अर्थ उस  किताब के
 विभिन्न  अध्यायों  में  से  उद्धृत  हैं। यह  किताब गीता, बाइबिल  और  क़ुरआन से  भी  महान
 है क्योंकि  यही  व्यक्ति  को  सच्चे  सुख  के  मार्ग  दिखाती  है। जो  भी  श्रद्धालु  इस  किताब  में
बताए  गए  पथ  का  अनुसरण  करेगा , लक्ष्मी  उसके  चरणों  में  खेलेगी  और  सत्ता  में  उसे
महत्वपूर्ण  पद  प्राप्त  होगा। इस  किताब  का माहात्म्य  अपार  है, अक्षुण्ण  है।
                 अतः, एक साथ मिल  कर  बोलिए--प्रजातंत्र  की  जय! ! !)
                                                                                                                 ( 11 अगस्त ,1975)
                                                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल
 

( यह कविता  आपातकाल  में  लिखी  और  चार  दिन  बाद , 15 अगस्त, 1975 को  'दैनिक  देशबंधु'  के 
तत्कालीन भोपाल संस्करण में प्रथमतः  प्रकाशित  हुई  थी ।  तदनंतर, 1982 में  'दैनिक नवभारत' के 
दीपावली विशेषांक में  एवं पुनः, भोपाल से प्रकाशित  अनियतकालीन  पत्रिका  'अंतर्यात्रा' के 13वें अंक
(सुरेश स्वप्निल  विशेषांक ) में 1983 में प्रकाशित हुई। उसके  पश्चात्, लगभग 20 अन्य पत्र-पत्रिकाओं 
में, यत्र -तत्र  प्रकाशित हुई।)