विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
रोती है
माँ रोती है
देखो, धरती माँ रोती है !
" ओ! कहां गए मेरे प्यारे
वे छैल-छबीले नौजवान
गबरू बेटे
चौड़ी छाती, बांहें विशाल
आकाश चूमते
होनहार
चिकने पत्तों से सजे भाल
वह ओक, अशोक
वह अमलताश
सागौन, गुरज
शीशम, अर्जुन
कमरख़, करंज
कुचले, कवत्थ .....
तुम कहां गए
सब कहां गए ? !"
भटकी, सहमी, डरती-डरती
आई है बेटी मलयानिल
कहती है धरती मैया के कानों
में सब- कुछ रो-रो कर ...
"कल आई कपूतों की सेना
कुछ यंत्र, कुल्हाड़े ले-ले कर
निष्ठुर, निर्दय, निर्मम हो कर
पिल पड़ी अचानक पेड़ों पर
यह वहां गिरा
वह यहां गिरा
पल-भर में सब-कुछ हुआ साफ़
बेचारे, बेबस, बे-ज़ुबान
कट गए सभी वे निरपराध ...
कौए, कोयल, तीतर, बटेर
भैंसे, भालू, सारंग, शेर
चीखे, गरजे, फिर हुए मौन
जंगल की पीड़ा सुने कौन ?"
मलयानिल लौट गई कब की
दिन, रात, महीने, मौसम भी
आए, ठहरे, फिर बीत गए
लेकिन अब भी वह रोती है
देखो, धरती माँ रोती है !
सुनता है
कोई सुनता है
कोई सपूत यह सुनता है ? ? ?
( 1994 )
-सुरेश स्वप्निल