सीने में
असहनीय चुभन
सर्दियों की हवा-से पैने
समय के चाक़ुओं की
दर्द; उठ-उठ वेधता है ह्रदय !
प्राण
तोड़ते हैं सीमाएं
तन की
तन अवश, चुपचाप है
यह सोचता है मन, करें क्या ?
बोझ है जीवन,
बड़ा अभिशाप है !
काश ! पतझड़ ही मिले
मन-सुमन की पांखुरियां
मुक्त हों निर्जीव बंधन से
ह्रदय हो,
और बस, आकाश हो !
( 1975 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
असहनीय चुभन
सर्दियों की हवा-से पैने
समय के चाक़ुओं की
दर्द; उठ-उठ वेधता है ह्रदय !
प्राण
तोड़ते हैं सीमाएं
तन की
तन अवश, चुपचाप है
यह सोचता है मन, करें क्या ?
बोझ है जीवन,
बड़ा अभिशाप है !
काश ! पतझड़ ही मिले
मन-सुमन की पांखुरियां
मुक्त हों निर्जीव बंधन से
ह्रदय हो,
और बस, आकाश हो !
( 1975 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।