एक अव्यक्त भय
फैला हुआ है
वातावरण में
जैसे समुद्र के जल में
ज्वार-भाटे तक नहीं आते
सही समय पर
शहर और गांवों में
पक्षी भी दिखाई नहीं देते
वनों में
हिंस्र पशु भी चुपचाप पड़े रहते हैं
अपनी भूख दबा कर…
मनुष्य का दख़ल
बढ़ता ही जा रहा है
प्रकृति के हर क्षेत्र में
तथाकथित विकास के नाम पर
ध्वस्त किए जा रहे हैं
सारे संतुलन
पता नहीं
कुछ मनुष्य अथवा समूहों की
समृद्धि की अतृप्त आकांक्षाएं
कौन से दिन दिखाएंगी
प्रकृति, पर्यावरण
और स्वयं मनुष्यता को !
(2013)
-सुरेश स्वप्निल
.
फैला हुआ है
वातावरण में
जैसे समुद्र के जल में
ज्वार-भाटे तक नहीं आते
सही समय पर
शहर और गांवों में
पक्षी भी दिखाई नहीं देते
वनों में
हिंस्र पशु भी चुपचाप पड़े रहते हैं
अपनी भूख दबा कर…
मनुष्य का दख़ल
बढ़ता ही जा रहा है
प्रकृति के हर क्षेत्र में
तथाकथित विकास के नाम पर
ध्वस्त किए जा रहे हैं
सारे संतुलन
पता नहीं
कुछ मनुष्य अथवा समूहों की
समृद्धि की अतृप्त आकांक्षाएं
कौन से दिन दिखाएंगी
प्रकृति, पर्यावरण
और स्वयं मनुष्यता को !
(2013)
-सुरेश स्वप्निल
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