कितना भी सम्हल कर चले आदमी
हाथ से फिसल कर
गिरता है समय
और चूर-चूर हो जाता है !
कितनी सारी किरचें बिखरी हुई हैं
ज़मीन पर !
समय के रेशे-रेशे को चुनना होगा
अपनी पलकों से
कि कोई तस्वीर बने
कोई अक्स मुकम्मल नहीं
न दुनिया, न समाज
न एक अकेला आदमी
यहां तक कि कोई बाल या नाख़ून तक नहीं
अब
बहुत मुमकिन है कि बहुत जल्द
पेड़, नदी, पहाड़
आस्थाएं और विचार
सब-कुछ
नाभिकों में बदल जाएं
संक्षिप्ततः ,
यही, यही सबसे उपयुक्त समय है
सारी कायनात को एक बाज़ार में बदलने के लिए !
कोई बचा सकता है समय को
बिकाऊ जिन्स में बदलने से ? !
( 1986 )
-सुरेश स्वप्निल
*पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु सानुमति उपलब्ध।
हाथ से फिसल कर
गिरता है समय
और चूर-चूर हो जाता है !
कितनी सारी किरचें बिखरी हुई हैं
ज़मीन पर !
समय के रेशे-रेशे को चुनना होगा
अपनी पलकों से
कि कोई तस्वीर बने
कोई अक्स मुकम्मल नहीं
न दुनिया, न समाज
न एक अकेला आदमी
यहां तक कि कोई बाल या नाख़ून तक नहीं
अब
बहुत मुमकिन है कि बहुत जल्द
पेड़, नदी, पहाड़
आस्थाएं और विचार
सब-कुछ
नाभिकों में बदल जाएं
संक्षिप्ततः ,
यही, यही सबसे उपयुक्त समय है
सारी कायनात को एक बाज़ार में बदलने के लिए !
कोई बचा सकता है समय को
बिकाऊ जिन्स में बदलने से ? !
( 1986 )
-सुरेश स्वप्निल
*पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु सानुमति उपलब्ध।