मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

विश्व मज़दूर दिवस : हमारा तराना

बोल  मजूरा  हल्ला  बोल
बोल  जवाना  हल्ला  बोल
बोल  किसाना  हल्ला  बोल
हल्ला  बोल  कि  हिल  जाए  धरती
डोले  आकाश ...

सदियों  से  तेरी  मेहनत  का  फल
औरों   ने  खाया  है
नहीं-नहीं  अब  सोना  कैसा
सूरज  सिर  पर  आया  है

हुआ  सबेरा  आँखें  खोल
बाज़ू  की  ताक़त  को  तौल
ले  अपनी  मेहनत  का  मोल
तू  सब-कुछ  है  अपने  मन  में
पैदा  कर  विश्वास ...

बोल  मजूरा  हल्ला  बोल

जाग  कि  दुनियां  को  बतला  दे
क्या  है  तेरी  क़ीमत
अपने  मेहनतकश  हाथों  से
लिख  दे  जग  की  क़िस्मत

तुझसे  आँख  मिलाए  कौन
आंधी  से  टकराए  कौन
अपनी  मौत  बुलाए  कौन
कब  तक  तुझसे  हार  न  मानेंगे
क़ातिल  एहसास ....

बोल  मजूरा  हल्ला  बोल
बोल  जवाना  हल्ला  बोल
बोल  किसाना  हल्ला  बोल  !

                                               (1 मई,1976 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 


*मौलिक/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु सर्वसुलभ, केवल सूचना आवश्यक।

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

नमस्कार, मित्र गण !
मैं कुछ अत्यंत निजी कारणों से आपसे कुछ समय हेतु विदा ले रहा हूं। जैसे ही स्थितियां अनुकूल होंगी, पुनः आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। तब तक के लिए, मेरी शुभकामनाएं आपके साथ रहेंगी ही। संध्या-समय मैं अपने फ़ेस बुक पृष्ठ पर उपस्थित रहने का प्रयास करूंगा।
आप सब सुखी-स्वस्थ-सानंद रहें।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

गौरैयाएं और लड़कियां !

दो  ही  जीव  हैं  संसार  में
जो  विलुप्ति  की  कगार  पर  हैं
पहली  गौरैया, दूसरी  लड़कियां !

एक  समय  था  जब  दोनों घर-आंगन,
खेत-खलिहान, गांव-शहर…
हर  जगह  चहचहाती  नज़र  आ  जाती  थीं
यहां  तक  कि  स्वप्नों  और  कविताओं  में  भी !

अब  गौरैयाएं  केवल  गहरे  वनों  में
और  कभी-कभार  खेतों  में  ही  दिखती  हैं
और  लड़कियां ?
सिर्फ़  तस्वीरों  और  पुरातत्व  की  किताबों  में !

आख़िर  कौन  निगल  गया
दुनिया  की  आबादी  को ?

                                                                ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

*नवीनतम,पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

वह/ और शब्द/ और खटमल !

"मैं/ मैं हूं/ एक  साधारण  शरीर !
एक  जोड़ी  आंखें/ और  एक-एक  जोड़ी/ हाथों  और  पांवों  के  अलावा
सञ्चित  है  जिसमें/ पांच-साढ़े  पांच  किलोग्राम/ गाढ़ा-लाल  रक्त
अपने  ढाई-ढाई  फ़ीट  के  पैरों  पर/ दिन  भर/ लुढ़कता-पुढ़कता  मैं
अपने  सञ्चित  रक्त-कोष  की  रक्षा की/ कोशिश  को/ रखे  हुए हूं  बरक़रार !

शब्द/ शब्द  हैं/ किसी  भी  व्यक्तित्व  पर  चिपक  कर/ संज्ञा  बन  जाने  को  आतुर
चारों  ओर  भटकते  हुए/ ढूंढते  फिरते  अपना  शिकार !
पतले,  धारदार  शब्द/ मोटे,  भोथरे  शब्द/ गंदे,  लिजलिजे  शब्द ....
बच्चों-जैसे  मासूम/ फूल-जैसे  सुंदर/ और  बकरियों-जैसे/ निरीह  शब्द ...
और  'समय'  और  'भाग्य'-जैसे/ निहायत  सड़े-बुसे  शब्द 
जैसे  इनके  बिना/ चल  ही  नहीं  सकता/ आदमी  का  कार-बार !

और  हैं  खटमल !
फूले-फूले,  गुलगुले/ संतृप्त  खटमल/ और  सूखे-सुखाए/ बेजान-से/ भूखे-प्यासे  खटमल
बिस्तरों  में/ अलमारियों  में/ दीवारों  पर  उभर  आई  दरारों  में/ और  किताबों  के  पन्नों  में/
दुबके  हुए/ अपने  न  कुछ-से  शरीर  की/ भूख  मिटाने को/
करते  हुए  रात  का  इंतज़ार !

अनपेक्षित  शब्दों  की  भीड़  से  बच  कर/ अपनी  फ़ैक्टरी  तक  पहुंचने  के  लिए/ मैंने  ढूंढ  ली  है/
एक  संकरी-सी,  गुमनाम-सी  गली/ जिससे  या  तो  मैं  गुज़रता  हूं/
या  नगर-निगम  के  सफ़ाई-कर्मचारी !
शब्दों  को/ मूर्ख  बना  कर/ इस  गली  से/ इत्मीनान  से/ बच  निकलता  हूं  मैं/ हर  बार !"

..............................................

यह  बयान  जिस  आदमी  का  है/ वह  मारा  गया/ मेरे  सामने !
न  जाने  उन्हें  किसने  दी  थी  ख़बर/ और  वे/ गली  में  उसके  घुसते  ही/
चेंट  गए  थे  उसके  शरीर  से/ मोटे-मोटे  होंठों/ फूली  हुई  तोंदों/ और  दरांतियों-जैसे  दांतों  वाले/
खूंख्वार  शब्द/ और  उसके  छटपटाने  पर/ मुंह  खोल  कर  हंसने  वाले  शब्द ....
धीरे-धीरे/ घुसते  गए  थे  वे/ उसके  शरीर  में/ और  निचुड़  कर  आता  रहा  बाहर
गाढ़ा-गर्म  और  लाल-सुर्ख़  ख़ून !

शब्दों  के  उस  शरीर  से/ अलग  हो  चुकने  के  बाद/ मैंने  छुआ  उसे/ और  सहलाता  रहा/ कुछ  देर
उसने  शायद/ मुझे  अपना  दोस्त  समझा/ और  सौंप  दी  मुझे/ अपनी  डायरी/
जिसमें  लिखा  था  यह  सब/ और  यह  भी/ कि/ उसे/ अपने  खटमलों  से  है  प्यार !

वह/ मेरे  हाथों  में  मर  कर/  छोड़  गया  है  एक  प्रश्न/ कि  रात  के  आने  पर/ क्या  होगा/
उन  खटमलों  का  ? ? ? !

                                                                                                       ( 1978 )

                                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: 'अंतर्यात्रा', 1983

रविवार, 21 अप्रैल 2013

हम सूर्यत्व हैं !

हां,  हम  जिएंगे
जीते  रहेंगे
रचते  रहेंगे  अमरत्व  की
अपार  संभावनाएं

हम  विचार  हैं
विदेह

हम  न  दिन  में  मरते  हैं,  न  रात  में
और  न  संधि-काल  में
न  अस्त्र  से,  न  शस्त्र  से
न  किसी  ब्रह्मास्त्र  से

हम  सूर्यत्व  हैं,  हुज़ूर !

हम  मज़दूर  हैं
स्वतंत्र,  स्वायत्त,  संप्रभु
सरफ़रोश  सिरजनहार
हमें  क्या  देर  लगती  है
नई  दुनिया  रचने  में  !

                                                        ( 2004 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

*पूर्णतः मौलिक/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु सानुमति  उपलब्ध।

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

सबसे उपयुक्त समय

कितना  भी  सम्हल  कर  चले  आदमी
हाथ  से  फिसल  कर
गिरता  है  समय
और  चूर-चूर  हो  जाता  है !

कितनी  सारी  किरचें  बिखरी  हुई  हैं
ज़मीन  पर !

समय  के  रेशे-रेशे  को  चुनना  होगा
अपनी   पलकों  से
कि  कोई  तस्वीर  बने

कोई  अक्स  मुकम्मल  नहीं
न  दुनिया,  न  समाज
न  एक  अकेला  आदमी
यहां  तक  कि  कोई  बाल  या  नाख़ून  तक  नहीं

अब
बहुत  मुमकिन  है  कि  बहुत  जल्द
पेड़,  नदी,  पहाड़
आस्थाएं  और  विचार
सब-कुछ
नाभिकों  में  बदल  जाएं

संक्षिप्ततः ,
यही,  यही  सबसे  उपयुक्त  समय  है
सारी  कायनात  को  एक  बाज़ार  में  बदलने  के  लिए !

कोई  बचा  सकता  है  समय  को
बिकाऊ  जिन्स  में  बदलने  से  ? !

                                                                         ( 1986 )

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

*पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु सानुमति उपलब्ध।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

जब अमेरिका नहीं था !

ओह !  कितनी  सुखी  थीं
आकाशगंगाएं
जब  अमेरिका  नहीं  था  !
कितने  सुखी  थे  प्रकृति,  पृथ्वी
और  मनुष्य  !

तब
सारा  संसार  कितनी  आसानी  से
एकदम  सही  जगह  पर
सम  पर  आ  जाता  था  !

तब
नीली  छतरी  में  'ब्लैक  होल'  नहीं  था
ग्लेशियर  यूं  ही  नहीं  पिघलते  थे
मॉनसून 
कुसमय  नहीं  आते  थे
और  'काला  हांडी'  में  भी
चावल  पकते  थे
और  नदियां
अपना  रास्ता  नहीं  बदलती  थीं
अचानक  और  अकारण  !

बेशक़,  अख़बार  भी  नहीं  थे
उन  दिनों
न  पहाड़-जैसी  मशीनें
न  स्मार्ट-फ़ोन
न  'वेपन्स  ऑफ़  मॉस  डिस्ट्रक्शन'.....

किन्तु,  शब्द  थे,
स्वप्न  थे  भरपूर
और  ढेर-सारी  फ़ुर्सत
अनगिनत  स्वप्न  देखने  की
और  थे  संकल्प,  साहस,  ऊर्जाएं
एक-एक  स्वप्न  को  साकार  करते
सर्व-सामर्थ्यवान्  मानवीय  हाथ

तब  स्वप्न
एक  संस्कार  था
और  कोई  भी  आकाशगंगा
नि:स्वप्न  नहीं  थी।

सचमुच,  बेहद  सहज-सरल  था
सब-कुछ
जब  अमेरिका  नहीं  था  !

                                            ( 2002 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

* पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन  हेतु उपलब्ध।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

मेरी चुप्पी के साथ

हां ,  मैं  ख़ामोश  हूं
अपने  झरोखे  बैठ  कर
सबका  मुजरा  लेता  हुआ
बहुत  देर  से  !

मैं  जानता  हूं ,  खल  रही  है  तुम्हें
यह  चुप्पी
यह  धैर्य,  यह  संयम
दु:खी  कर  रही  हैं  घटनाएं
आस-पास  की
और  खीझ  हो  रही  है
नेपथ्य  में  खड़े  होने  से

किंतु ,  क्या  करे
बिना  किसी  भूमिका  के  ?

जब  कुछ  भी
न  सुनिश्चित  हो,  न  सुस्पष्ट
तो  क्या  बेहतर  है
तुम्हारी  दृष्टि  में
मेरे  लिए ?

हां,  मैं  ख़ामोश  हूं
क्योंकि  मेरा  नहीं  है  यह  रंगमंच
यह  रंग-समय  भी  नहीं  है  मेरा

बोलूंगा  अवश्य
जब  ज़रूरत  होगी
समय  को
जब  मिट  चुकेंगी  सारी  दूरियां
तुम्हारे  और  मेरे  बीच  की
जब  ख़त्म  हो  जाएगा
वैचारिक  ऊसरपन

उस  दिन  जब  मैं  बोलूंगा
तब  शब्द  नहीं
बरसेंगे  बीज  !


और  निभा  लो
कुछ  दिन
मेरी  चुप्पी  के  साथ  !

                                     ( 2013 )

                             -सुरेश  स्वप्निल 

* नवीनतम  रचना। पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/अप्रसारित। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

                                               

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

मोक्षयिष्यामि मा शुचः ...

बहुत  पहले
बहुsssत  पहले
गंगाधर  पंडित  के  द्वारे  पर
गूंजे  थे  सोहरे
बँटी  थीं  मिठाइयाँ
जी-भर  कर।

कथा  सत्यनारायण  की
भोज  कन्याओं  का
नेग  दाई-नाई  का
सभी  कुछ  हुआ  था

चाचा  ने, ताऊ  ने
चौधरी-पटेल  ने
गाँव-गली-गैल  ने
दी  थीं  बधाइयाँ

वेत्रवती  के  तट  पर
महकी  थी  मौलिश्री
बेला  की  नई-नई
कलियाँ  मुस्काई  थीं। 

दूध  और  केसर  के
मिश्रण-सा  गौर-वर्ण
कस्तूरी  हिरनी  के
छौने-से  चपल  अंग
पूनम-सी  छटा  थी
अमावस-से  गहन  भाव
पंडित  की  कन्या  थी
साक्षात्  पार्वती .....

दूध  में  ऋचाएं  मिलीं
घूंटी  में  चौपाई
वेद-शास्त्र-ज्ञान  मिला
पिता  के  स्नेह  में

क्वाँर  के  महीनों  में
सुअटा  के  गीत  गाए
अकती  पर  गुड़ियों  के
ब्याह  भी  रचा  डाले
कदम्ब  की  डालों  पर
श्रावण  के  झूलों  की 
पींगों-सी  पल-पल
बड़ी  हुई  पार्वती ...

पंडित  की  छाती  पर
जाने  कब  बोझ  हुई
चम्पे-सी  महक  भरी
बिटिया  सयानी  !

विन्ध्यगिरि  पर्वत-से
माथे  को  झुका  गई
किस-किस  की  देहरी
किस-किस  के  चरण  छुए ..
जोग  नहीं  बैठा
अभाव  का  समृद्धि  से
शीशम-सी  काया  भी
सूख  हुई  दुहरी  !

... सुना  एक  दिन  यूं  ही
पनघट  पर  बातों  में
मुंह  काला  कर  गई
कलंकिनी  किसी  के  संग ....

बात  क्या  हुई  आख़िर
किसी  को  नहीं  पता
कोई  कुछ  कहता  है
कोई  कुछ  कहता ....

वही  वेत्रवती  का  तट  है
वही  गाँव,  घर  वही
सुना  है  कि  मौलिश्री
अब  नहीं  महकती

बस, गंगाधर  पंडित
बौराया-सा  फिरता  है
"दीनबंधु, शरण  लो!"
गुहार  लगाता  हुआ

भूल  गए  गिरधारी
क्या  तुम  अपना  ही  स्वर
"अहं  त्वां  सर्व पापेभ्यम्
मोक्षयिष्यामि  मा  शुचः " ????? !!!

                                                ( 1979 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल 

*प्रकाशन: 'साक्षात्कार', भोपाल, 1983 । पुनः प्रकाशन हेतु सानुमति उपलब्ध।




एक ग़ज़ल

क्या  करेगा  अब  किसी  का  आदमी
नाम    है    जब    बेबसी  का  आदमी

छल   रहे   हैं   आज   सारे  इस  तरह
हो   नहीं   पाता   किसी   का   आदमी

चक्रव्यूहों    में    उलझ    कर    रास्ता
ढूंढता      है     वापसी     का    आदमी

औपचारिकता      निभाना     शेष    है
बिक  चुका  तो  है  कभी  का   आदमी

आत्महत्या  की    बना  कर  भूमिका
मुन्तज़िर  है    ज़िंदगी  का     आदमी

आदमी     के    वेश   में     हैं    भेड़िये
हाथ  थामे   क्या   किसी  का   आदमी  ?

                                                   ( 1975 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल, 1975 एवं  अन्यत्र।

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

पूंजीवाद को गरियाओ मत !

जितने  में  पोस्टर  छपे
उतने  में
घर-घर  में  नज़र  आने  लगती
गौरैया !

यही  कहानी  है  बाघ  की
और  लुप्त  होती  जानवरों
और  वनस्पतियों  की
तमाम  प्रजातियों  की  !

पूंजीवाद  पहले  नष्ट  करता  है
फिर  संरक्षित  करता  है
नमूने  के  लिए
प्रजातियों  को !

इस  नेक  काम  में  कुछ  व्यक्ति
और  संस्थाएं
तो  कमा  ही  लेती  हैं  पुण्य
और  पैसा  भी  !

पूंजीवाद  को  गरियाओ  मत
उसकी  मदद  करो
प्रकृति  को  संग्रहालय  बनाने  में  !

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

* नवीनतम/ मौलिक / अप्रकाशित / अप्रसारित रचना। प्रकाशनार्थ उपलब्ध।

रविवार, 14 अप्रैल 2013

जो कभी सो नहीं पाते

जो  सो  सकते  हैं  आराम  से
इतने  वाहियात  समय  में
उनसे  कुछ  नहीं  कहना  मुझे

मुझे  उनसे  भी
कुछ  नहीं  कहना
जो  कारण  हैं
दिनों  दिन  मंडराते  युद्ध  के
और  नाभिकीय  हथियारों  के
निर्माता  और  उनके  वित्तीय  मालिकों  के

मुझे  जो  भी  कहना  है
मैं  कहूंगा  उनसे
जो  कभी  सो  नहीं  पाते
अफ़ग़ानिस्तान  से  ज़ाम्बिया  तक  फैले
पूँजी  के  अभागे  शिकारों  से

मुझे  कहना  है  महमूद  अहमदीनेजाद  से

पीछे  मत  हटना  दोस्तों
इससे  पहले  कि
शत्रु  फिर  एक  नया  ईराक़  गढ़  दे
या  फिर  कोई  इज़राइल  तैयार  कर  दे
साबित  करना  ही  होगा
कि  ज़िंदा  हैं  हम
अपने  अस्तित्व  की  सुरक्षा  को
हर  तरह  से  चाक-चौबंद !

किसी  न  किसी  को  तो
मिटना  ही  होगा
मनुष्यता  के  सबसे  बड़े  शत्रुओं  को
या  मनुष्यता  को !

                                                 ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

* नवीनतम/ मौलिक/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

                                                      

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

सिर्फ़ एक कोशिश ..

चलो,  एक  और  कोशिश
करके  देखते  हैं
ज़िंदा  रहने  की
इसी  दुनिया,  इसी  देश
और  इसी  शहर  में  !

करते  हैं  कोशिश
अपनी  खाने, सोने, पहनने,
पढ़ने-लिखने  और  बात-बात  पर
असंतुष्ट  होने  की  आदत
बदल  डालने  की

कोशिश  करते  हैं
दिन  पर  दिन  बढ़ती  मंहगाई  से
तालमेल  बैठाने  की
और  सब-कुछ  को
नियति  मान  कर  चुपचाप
स्वीकार  कर  लेने  की

या
सिर्फ़  एक  कोशिश  करते  हैं
अपनी  आवाज़  को
इतना  बुलंद  बनाने  की
कि  मनुष्य-विरोधी  व्यवस्थाओं  के  सूत्रधारों  के
कान  के  परदे  फटने  लगें
हमारे  एक-एक  शब्द  से

दुनिया  बदलनी  है
तो  अपने  को  बदलने  की  शुरुआत
करनी  ही  होगी।
                                                                 ( 2013 )

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

* नवीनतम/अप्रकाशित/अप्रसारित/मौलिक रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

बाज़ार के हवाले...

सदियों  से
एक  ही  खेल  चल  रहा  है
निरंतर ...

जो  डरता  है
उसे  इतना  डराओ
कि  डर  के  मारे  आत्म-हत्या  कर  ले

जिसे  दबाया  जा  सकता  है
उसे  इतना  दबाओ
कि  उसका  स्वाभिमान
चूर-चूर  हो  जाए

जो  असहाय  है
उसे  घेर  लो  हर  ओर  से
और  उसकी  ज़ुबान   काट  लो
कि  पुकार  भी  न  सके  किसी  को
मदद  के  लिए !

जो  डरता  नहीं  है  किसी  से
जिसे  दबाया  नहीं  जा  सकता  किसी  भी  तरह
जो  इतना  असहाय  नहीं  कि  प्रतिकार  न  कर  सके
उसे  खींच  कर  बाहर  ले  आओ  घर  से

और उसे

बाज़ार  के  हवाले  कर  दो  !

                                                                       ( 2013 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

* नवीनतम, मौलिक / अप्रकाशित / अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

सुरक्षित जीना चाहते हो ,,,

कार  टकराती  है
दूसरी  कार  से
या  किसी ट्रक  या  किसी  पेड़  से
नेताजी  बच  जाते  हैं

ट्रेन  उतर  जाती  है
पटरी  से
नेता जी  बच  जाते  हैं

हवाई  जहाज़  गिर  जाता   है
ज़मीन  पर
नेताजी  फिर  बच  जाते  हैं

नेताजी  तो  तब  भी  बच  जाते  हैं
जब  उनकी  सभा  में  बम-विस्फोट  होता  है !

नेता  की  जान  है
इतनी  सरलता  से  निकलती  है  कहीं  ?

सुरक्षित  जीना  चाहते  हो  न ?
तो  नेताजी  के  आगे-पीछे  घूमो
यही  नियति  है
यही  प्रारब्ध  !

                                                                  ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

तीन नन्हीं कविताएं

              1.

आप
किस  दिल  की  बात  करते  हैं  ?

वो, जिसे  दे  के
आप  ही  को  हम
रोज़  जीते  हैं
रोज़  मरते  हैं  !

             2.

छोड़िये  भी,
कहां  की  ले  बैठे  ?

हम  तो  अपने  ही  दिल  से
हैरां  हैं
आप  अपना  भी  हमें  दे  बैठे !

          3.
ख़त्म
हो  जाएगा  सफ़र  अपना

राह  में  रूठ  गए
आप  अगर,
चाक  कर  लेंगे  हम  जिगर  अपना !

                                                  ( 1978 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: दैनिक 'नव-भारत', रायपुर, रविवासरीय। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।


मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

अंधी आस्थाओं के नाम पर !

अच्छी  तरह  से  सोचिए
और  तय  कीजिए
कि  कितने  ईश्वर  हैं  हमारे  इर्द-गिर्द !

ऐसा  क्या  अपराध  करते  हैं  हम
कौन-सी  आवश्यकताएं  हैं  जो  केवल
ईश्वर  ही  पूरी  करते  हैं ?

कौन  हैं  वे  लोग
जो  ईश्वर  के  प्रतिनिधि  बने  हुए  हैं
क्या  कल  इन्हीं  में  से  कुछ  ईश्वर  के  अवतार
फिर  कुछ  समय  बाद  स्वयं  ये  ही
ईश्वर   नहीं  बन  जाएंगे ?

एक  सूची  बनाइये  इन  सब  की
और  उन  सामानों  की  जो  ये  आधुनिक  ईश्वर
बेच  रहे  हैं  आपको
बाज़ार  से  चौगुने  दामों  पर
और  तुलना  कीजिए  मूल्य  और  गुणवत्ता  की !

ठीक, अब  जवाब  ढूंढिए  उन  प्रश्नों  के
जो  इस  अभ्यास  से  उभरे  हैं
आपके  मन-मस्तिष्क  में

ईश्वर  ने  किस  को  नियुक्त  किया  है
अपने  प्रतिनिधि  के  रूप  में
किस  के  पास  है  ईश्वर  का  अनुमति-पत्र  ?
किस  ने  घोषित  किया  कि  अमुक  व्यक्ति  अवतार  है
ईश्वर  का ?
यदि  ये  लोग
जो अपने-आप को  ईश्वर का प्रतिनिधि,
अवतार  अथवा  स्वयं  ईश्वर  ही
मानते  और  मनवाते  हैं
ये  लोग जो  योग, भागवत-कथा से  लेकर
साबुन, तेल, दाल-दलिया  तक  बेच  रहे  हैं
क्या  अंतर  है  इनमें  और  आपके
किराना-व्यापारी  में ?

प्रश्न  हजारों  होने  चाहिए
आपके  मन-मस्तिष्क  में
और  हर  प्रश्न  के  उत्तर  की  आवश्यकता  भी ....

यदि  आपके  मन-मस्तिष्क  में
न  कोई  प्रश्न  ही  है
न  उत्तर  पाने  की  ललक
तो  आप  इसी  योग्य  हैं
कि  हर  व्यापारी  को  आप  ईश्वर  मानें
और  ठगे  जाते  रहें  अनंतकाल  तक
अंधी  आस्थाओं  के  नाम  पर !

                                                                  ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

*नवीनतम रचना। पूर्णतः मौलिक, अप्रकाशित/अप्रसारित। प्रकाशन हेतु सभी के लिए उपलब्ध।

सोमवार, 8 अप्रैल 2013

नई दिल्ली के कुत्ते

यदि  आप  कुत्ते  हैं
नई  दिल्ली  के  कुत्ते  हैं 

'लुट्येन्स  ज़ोन' में
रहते  हैं
अपने  गले  में  अपने  मालिक  के  नाम  का
पट्टा  पहनते  हैं
ख़ानदानी  'पेडिग्री'  हैं
सौ  फ़ीसद  विदेशी  नस्ल  के,
और  लाल  बत्ती  वाली  गाड़ियों  में
घूमते  हैं
अपने  मालिक  की  इच्छा  पर  ही  भौंकते  हैं 
तो  निश्चय  ही
आप  वी .वी .आई .पी . हैं
परम-सम्माननीय !
कहीं  भी  घूमिये
बेरोक-टोक
सारा  देश  आपका  है !

यदि  आप  कुत्ते  हैं
ख़ानदानी  'पेडिग्री'  हैं
सौ  फ़ीसद  विदेशी  नस्ल  के,
नई  दिल्ली  के
'लुट्येन्स  ज़ोन' में  भी
रहते  हैं
मगर  अपने  मालिक  के  नाम  का  पट्टा
नहीं  पहनते
न  ही  लाल  बत्ती  वाली  गाड़ियों  में
घूमते  हैं
आज़ाद ख़याल और आज़ाद ज़ुबान हैं
और  भौंकते  समय
अपने  मालिक  की  इच्छा  की
चिंता  नहीं  करते,
तब  भी  वी .आई .पी . हैं
और  कहीं  भी  घूम  सकते  हैं 
मगर  एक  हद  तक  ही !

दिल्ली  पुलिस
किसी  भी  दिन  आपको  अपनी  निगरानी  में
ले  सकती  है
और  बेहतर  क़ीमत  पर
आपको  नए  मालिक  को
सौंप  सकती  है !

यदि  आप  कुत्ते  हैं
अपने  गले  में  अपने  मालिक  के  नाम  का
पट्टा  नहीं  पहनते
ख़ानदानी आवारा   हैं
सौ  फ़ीसद  देसी  नस्ल  के,
मगर  तब  भी
नई  दिल्ली  के
'लुट्येन्स  ज़ोन' में
रहते  हैं
और  लाल  बत्ती  वाली  गाड़ियों  में
घूमते  की  कल्पना  भी
नहीं  कर  सकते 
भौंकना  आपका  संवैधानिक
और  मौलिक  अधिकार  तो  है
किंतु  क्षमा  कीजिये, श्रीमान !
आप  कभी  भी
नई  दिल्ली  महानगर  पालिका  के
कुत्ता-अतिथि  गृह  में
बलात् भेजे  जा  सकते  हैं
बधिया-करण  अथवा  ज़हर  के  इंजेक्शन  के  लिए !

यदि  आप  कुत्ते  नहीं  हैं
भारत  के  एक  सामान्य  नागरिक  हैं
सौ  फ़ीसद  खांटी  भारतीय
अभिव्यक्ति  की  आज़ादी  के
अपने  अधिकार  को
सार्वभौमिक  मान  कर
'लुट्येन्स ज़ोन'  में
भौंकने - माफ़  कीजिये  श्रीमान,
नारे  लगाने  की  जुर्रत  करते  हैं
तो  सावधान  !
किसी  भी  दिन, किसी  भी  समय
किसी  भी  जगह
आपका  'एनकाउंटर' हो  सकता  है  !

                                                  ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

* पूर्णतः मौलिक, अप्रकाशित/अप्रसारित, नवीनतम रचना। सभी के लिए, 
   पूर्वसूचना एवं यथासंभव पारिश्रमिक पर, प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

 

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

और बस, आकाश हो !

सीने  में
असहनीय  चुभन
सर्दियों  की  हवा-से  पैने
समय  के  चाक़ुओं  की
दर्द; उठ-उठ  वेधता  है  ह्रदय  !

प्राण
तोड़ते  हैं  सीमाएं
तन  की
तन  अवश,  चुपचाप  है
यह  सोचता  है  मन, करें  क्या ?
बोझ  है  जीवन,
बड़ा  अभिशाप  है !

काश ! पतझड़  ही  मिले
मन-सुमन  की  पांखुरियां
मुक्त  हों  निर्जीव  बंधन  से
ह्रदय  हो,
और  बस, आकाश  हो !

                                             ( 1975 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल एवं अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

कुछ नन्ही कविताएं


                 1.

ढूंढ  कर  लाए  तो
जवाब  कोई !

महका-महका  सा  है  चमन
शायद
छू  गए  वो  खिला  गुलाब  कोई !

              2.

देखो
कितने  शरीर  हैं  बादल

उसने  खोली  कहीं
ज़ुल्फ़ें  अपनी
जा  के  टकरा  गए  वहीं  बादल !

           3.

ख़त  पे  औरों  का  नाम
लिक्खा   है

कितनी  मासूमियत  से
आख़िर  में
उसने  मुझको  सलाम  लिक्खा  है ! 

         4.

अब  भी
कुछ  इंतज़ार  बाक़ी  है ?

महफ़िलें  ख़त्म
उठ  गए  हैं  रिंद
बस  दिल-ए-दाग़दार  बाक़ी  है !

                                                  ( 1975 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: दैनिक 'नव-भारत', समस्त संस्करण ( रविवासरीय ), 1975


बुधवार, 3 अप्रैल 2013

हिंदी रंगमंच दिवस : सोई है सरकार ..

दिन-दिन  दूना  रात  चौगुना  फैले  भ्रष्टाचार
जागे  न  जागे  न  जागे  सोई  है  सरकार

अजब  दिन  आए  रे  भैया ..

पुल  टूटा  पहली  वर्षा  में  नहर  न  देती  पानी
राहत  के  चावल  भी  सड़ियल  किसकी  कारस्तानी
चोर-सिपाही-अफ़सर-तस्कर-डाकू-थानेदार
सब  के  सब  मौसेरे  भाई  इनसे  क्या  दरकार
जागे  न  जागे  न  जागे  सोई  है  सरकार

अजब  दिन  आए  रे  भैया !

राजा  मांगे  शाल-दुशाले  रानी  मांगे  सोना
जनता  भूखी  मांगे  दाना  सबका  अपना  रोना
डिग्री  माथे   पर  चिपकाए  फिरते  हैं  बेकार
बिना  घूस  के  घास  न  मिलती  घोड़े  तक  बेज़ार
जागे  न  जागे  न  जागे  सोई  है  सरकार

अजब  दिन  आए  रे  भैया
अजब  दिन  आए  रे  भैया
अजब  दिन  आए  रे  भैया !

                                                                           ( 1988 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

* नोबेल पुरस्कार-प्राप्त  इटैलियन नाटक-कार डारियो-फ़ो  के विश्व-विख्यात नाटक ' नेकेड किंग ' के 
  श्री सतीश शर्मा द्वारा किये  गए बघेली रूपांतरण ' ठाढ़ दुआरे  नंगा ' के कवि द्वारा निर्देशित मंचन हेतु 
  विशेष रूप से लिखा गया गीत। प्रकाशन हेतु  अनुपलब्ध।

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

यह रक्त है, महाशय !

यह  रक्त  है, महाशय !
शत-प्रतिशत  शुद्ध  और  प्राकृतिक
मानव-रक्त  !

जब  तक  यह  बहता  है  शिराओं  में
केवल  तभी  तक  संवाहक  है  यह
तुम्हारी  सदा-अतृप्त  पूंजीवादी  लिप्सा
और  तथाकथित  सुधारवादी  अवधारणाओं
और  सर्वग्रासी  प्रगति  का !

ओ  पूंजी  के  निरंतर  वर्द्धमान  पर्वतों  के  स्वामियों  !
तुम्हें  स्मरण  नहीं  संभवतः
कि  इसका  यथोचित  मूल्य  भी  चुकाना  होता  है
किसी  भी  अन्य  भौतिक  संसाधन  की  भांति ...!
इसके  स्वर  को  कुचलने  का  विचार  भी  न  लाना
अपने  मस्तिष्क  में
यह  मत  सोचना  कि  तुम्हारे  दमन  के  तमाम  उपकरण
काम  में  आएंगे
तुम्हारी  निर्द्वन्द, निरंकुश  सत्ता  को
शास्वत  बनाए  रखने  में !

यह  रक्त  है,  महाशय
विशुद्ध  मानव-रक्त
इसकी  एक-एक  बूँद  में  समाहित  है
हज़ारों  नाभिकीय  बमों  की  शक्ति

यह  रक्त  है,  महाशय
जब  तक  शिराओं  में  है  तभी  तक  सुरक्षित  हो  तुम
और  तुम्हारे  आर्थिक  साम्राज्य !
शिराओं  से  बाहर  आते  ही
यह  विनाश  की  अकल्पनीय  लीला  भी  रच  सकता  है !
सैकड़ों  ज्वालामुखियों  से  निःसृत
लावे  की  अबाध्य, अबंध्य  नदियों  से  अधिक  प्रलयकारी !

समय  है, संभल  जाओ
अगली  बार
अपनी  सशस्त्र  सेनाओं  को
मनुष्यों  के  समूह  पर  फ़ायर  का  आदेश  देने  से  पहले
सोच  लेना  अवश्य
कि  भूमि  पर  गिरी  प्रत्येक  मानव-रक्त  का  मूल्य  क्या  है
और  चुकाओगे  कैसे ????

                                                                                  ( 2013 )

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

* नवीनतम, पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

तीस लाख बुझे हुए दिल

तीस  लाख
उठे  हुए  हाथ
तीस  लाख
झुके  हुए  सिर
तीस  लाख
बुझे  हुए  दिल
तीस  लाख  कंठों  से
निकलते  जयघोष ...

मेरे  मासूम  सिपहसालार !
विजय  से  मदांध
अपना  माथा  गर्व  से  उठाते  हुए
अधरों  पर  मुस्कान  लाने  से  पहले 
सोचना  होगा  तुम्हें !

सोचना  होगा
कि
इन  तीस  लाख  शरीरों  के  साथ
अनिवार्यतः, शामिल  हैं
तीस  लाख  पेट
और  धधकते  उनमें
तीस  लाख  आग  के  पहाड़ !

मेरे  यार !
अपनी  चेतना  के  समस्त  तंतुओं  को
प्रेरित  करो
कि  जानें
सत्य  के  अर्थ  को
और
अपनी  दोनों  आँखों  में
समेटो
दुःख, करुणा , असहायता
और  ऐसे  ही  नाम  वाले
उन  तमाम  सागरों  की  विशालता
जो
इन  तीस  लाख  निर्विकार  चेहरों  पर
लटकती
साठ  लाख  आँखों  में
जीवित  हैं
युग-युग  से ...
और, इस  अपार  वैभवशाली
जल-राशि  से
लो, केवल  एक  बूंद
और  उसे  ढलने  दो
अपनी  आँखों  के  किनारों  से ...

यार, बस  काफ़ी  है  इतना  ही
साठ  करोड़  पेटों  में
धधकती  आग  को
एक  और  भागीरथी  में
बदलने  के  लिए  !

मेरे  दोस्त !
उठेंगे  फिर
अनगिनत  जयघोष -
साठ  करोड़ ,
एक  सौ  बीस  करोड़
दो  सौ  चालीस  करोड़
और  वे  तमाम  संख्याएं
जो  काग़ज़ों  पर  आती  हैं
उतने  ही  कंठों  से  !
और  उन  सब  आवाज़ों  से
ऊपर  की  दुनिया  में
होगी
सिर्फ़  तुम्हारी  शास्वत  मुस्कान
नए  अर्थ ,
नई  दृष्टि ,
नई  संवेदनाओं  के  साथ !

                                   ( 1979 )

                           -सुरेश  स्वप्निल 

*पूर्व-प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह के स्वागत में 1979 में दिल्ली में आयोजित किसान रैली पर एक प्रतिक्रिया।
** प्रकाशन: 'अंतर्यात्रा'-13 ( 1983 ) तथा अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।