तीस लाख
उठे हुए हाथ
तीस लाख
झुके हुए सिर
तीस लाख
बुझे हुए दिल
तीस लाख कंठों से
निकलते जयघोष ...
मेरे मासूम सिपहसालार !
विजय से मदांध
अपना माथा गर्व से उठाते हुए
अधरों पर मुस्कान लाने से पहले
सोचना होगा तुम्हें !
सोचना होगा
कि
इन तीस लाख शरीरों के साथ
अनिवार्यतः, शामिल हैं
तीस लाख पेट
और धधकते उनमें
तीस लाख आग के पहाड़ !
मेरे यार !
अपनी चेतना के समस्त तंतुओं को
प्रेरित करो
कि जानें
सत्य के अर्थ को
और
अपनी दोनों आँखों में
समेटो
दुःख, करुणा , असहायता
और ऐसे ही नाम वाले
उन तमाम सागरों की विशालता
जो
इन तीस लाख निर्विकार चेहरों पर
लटकती
साठ लाख आँखों में
जीवित हैं
युग-युग से ...
और, इस अपार वैभवशाली
जल-राशि से
लो, केवल एक बूंद
और उसे ढलने दो
अपनी आँखों के किनारों से ...
यार, बस काफ़ी है इतना ही
साठ करोड़ पेटों में
धधकती आग को
एक और भागीरथी में
बदलने के लिए !
मेरे दोस्त !
उठेंगे फिर
अनगिनत जयघोष -
साठ करोड़ ,
एक सौ बीस करोड़
दो सौ चालीस करोड़
और वे तमाम संख्याएं
जो काग़ज़ों पर आती हैं
उतने ही कंठों से !
और उन सब आवाज़ों से
ऊपर की दुनिया में
होगी
सिर्फ़ तुम्हारी शास्वत मुस्कान
नए अर्थ ,
नई दृष्टि ,
नई संवेदनाओं के साथ !
( 1979 )
-सुरेश स्वप्निल
*पूर्व-प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह के स्वागत में 1979 में दिल्ली में आयोजित किसान रैली पर एक प्रतिक्रिया।
** प्रकाशन: 'अंतर्यात्रा'-13 ( 1983 ) तथा अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
उठे हुए हाथ
तीस लाख
झुके हुए सिर
तीस लाख
बुझे हुए दिल
तीस लाख कंठों से
निकलते जयघोष ...
मेरे मासूम सिपहसालार !
विजय से मदांध
अपना माथा गर्व से उठाते हुए
अधरों पर मुस्कान लाने से पहले
सोचना होगा तुम्हें !
सोचना होगा
कि
इन तीस लाख शरीरों के साथ
अनिवार्यतः, शामिल हैं
तीस लाख पेट
और धधकते उनमें
तीस लाख आग के पहाड़ !
मेरे यार !
अपनी चेतना के समस्त तंतुओं को
प्रेरित करो
कि जानें
सत्य के अर्थ को
और
अपनी दोनों आँखों में
समेटो
दुःख, करुणा , असहायता
और ऐसे ही नाम वाले
उन तमाम सागरों की विशालता
जो
इन तीस लाख निर्विकार चेहरों पर
लटकती
साठ लाख आँखों में
जीवित हैं
युग-युग से ...
और, इस अपार वैभवशाली
जल-राशि से
लो, केवल एक बूंद
और उसे ढलने दो
अपनी आँखों के किनारों से ...
यार, बस काफ़ी है इतना ही
साठ करोड़ पेटों में
धधकती आग को
एक और भागीरथी में
बदलने के लिए !
मेरे दोस्त !
उठेंगे फिर
अनगिनत जयघोष -
साठ करोड़ ,
एक सौ बीस करोड़
दो सौ चालीस करोड़
और वे तमाम संख्याएं
जो काग़ज़ों पर आती हैं
उतने ही कंठों से !
और उन सब आवाज़ों से
ऊपर की दुनिया में
होगी
सिर्फ़ तुम्हारी शास्वत मुस्कान
नए अर्थ ,
नई दृष्टि ,
नई संवेदनाओं के साथ !
( 1979 )
-सुरेश स्वप्निल
*पूर्व-प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह के स्वागत में 1979 में दिल्ली में आयोजित किसान रैली पर एक प्रतिक्रिया।
** प्रकाशन: 'अंतर्यात्रा'-13 ( 1983 ) तथा अन्यत्र। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
1 टिप्पणी:
बहुत ही बेहतरीन रचना,सार्थक संदेश.
एक टिप्पणी भेजें