अंधेरा ! अंधेरा !
अमावस की रात !
अपनी राह अंधेरे को सौंप कर
थक-हार कर बैठा मुसाफ़िर
खण्डित विश्वास !
मुसाफ़िर के कांधे पर
मार्मिक स्पर्श
बर्फ़ीले हाथ !
यंत्रणा मय सांसों की टकराहट
पास, फिर पास , और पास
फिर उठा तूफ़ान
मुसाफ़िर जो थक गया था
मुसाफ़िर जो रुक गया था
अब फिर सफ़र में है !
और वह अकेला भी नहीं
ख़ामोश सफ़र ज़ारी है !
रौशनियों के जंगल से दूर
गुमसुम रात के अंधेरे में
दो साये ....!
मौन चले जाते हैं
हाथों में लिए हाथ !
उनके क़दमों तले कुचल कर
सूखे पत्ते
टूटते हैं, चिटख़ते हैं
सन्नाटा बिंध गया है
और मौन, अवश
कहीं भाग जाने की हड़बड़ाडाहट में
विकल है
अमावस की रात !
( 1976 )
-सुरेश स्वप्निल
प्रकाशन: 'देशबंधु' भोपाल, 1976 एवं 'अंतर्यात्रा-13', 1983 ।
अमावस की रात !
अपनी राह अंधेरे को सौंप कर
थक-हार कर बैठा मुसाफ़िर
खण्डित विश्वास !
मुसाफ़िर के कांधे पर
मार्मिक स्पर्श
बर्फ़ीले हाथ !
यंत्रणा मय सांसों की टकराहट
पास, फिर पास , और पास
फिर उठा तूफ़ान
मुसाफ़िर जो थक गया था
मुसाफ़िर जो रुक गया था
अब फिर सफ़र में है !
और वह अकेला भी नहीं
ख़ामोश सफ़र ज़ारी है !
रौशनियों के जंगल से दूर
गुमसुम रात के अंधेरे में
दो साये ....!
मौन चले जाते हैं
हाथों में लिए हाथ !
उनके क़दमों तले कुचल कर
सूखे पत्ते
टूटते हैं, चिटख़ते हैं
सन्नाटा बिंध गया है
और मौन, अवश
कहीं भाग जाने की हड़बड़ाडाहट में
विकल है
अमावस की रात !
( 1976 )
-सुरेश स्वप्निल
प्रकाशन: 'देशबंधु' भोपाल, 1976 एवं 'अंतर्यात्रा-13', 1983 ।