गुरुवार, 9 जनवरी 2014

यथार्थ की धरा पर...!

मन  के  किसी  अज्ञात
नन्हे-से  कोटर  में
दुबक  कर  बैठी  रहती  हैं
अच्छे  दिनों  की  स्मृतियां…

बचपन  के  बिखरे  पन्नों  में
यहां-वहां
अक्सर  अधूरे  छूट  गए  चित्र
छोटी-छोटी  बातों  पर
मित्रों  का  रूठना-मनाना
भाई-बहनों  की  छेड़ छाड़…
किशोरावस्था  में
शरीर  का  धीरे-धीरे  वयस्क  होते  जाना
अचानक  किसी  का
अच्छा  लगने  लगना
अक्सर  बिना  किसी  ठोस  कारण  के…

यथार्थ  की  धरा  पर
पहला  क़दम  पड़ते  ही
न  जाने  कहां  बिला  जाते  हैं
सारे  स्वप्न...

यहां  तक  कि
किराने  का  हिसाब  भी
डराने  लगता  है  किसी प्रेत-जैसा !

कितना  भयंकर  होता  है
वयस्क  हो  जाने  का  एहसास
और  उससे  भी  अधिक
बचपन  के  बिछुड़ जाने  का !

                                                        ( 2014 )
                                                 
                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

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