आंखों की आदत बिगड़ गई है
शायद
या चश्मे में कुछ ख़राबी
आ गई है
कुछ भी अच्छा, शुभ
या सुंदर दिखाई नहीं देता
आजकल
या सचमुच हालात
इतने ही ख़राब हो गए हैं
देश के
हर तरफ़
सूखे, मुरझाए चेहरे
गड्ढों में धंसी आंखें
फटे-पुराने, अपर्याप्त कपड़े पहने
सुबह से
दो वक़्त के खाने की जुगत में
लगे हुए बच्चे …
दूसरी ओर
निर्लज्ज्ता की सीमाएं लांघती
समृद्धि
स्वप्न से भी बाहर हो चुके
ऊंचे, वैभवशाली मकान
फ़ुटपाथ पर सोते हुए
अक्सर
किसी मदांध रईस की गाड़ी से
नींद में ही मारे जा चुके
ग़रीब-मज़दूर....
और विकास के झूठे सपने
दिखाते तथाकथित जन-प्रतिनिधि
सीधे-सरल जीवन की
तमाम संभावनाएं
नष्ट करती हुई सरकारी नीतियां....
आख़िर क्यों
इसी देश में जन्म लेना
ज़रूरी था मुझे ???
यहां तो शर्म आती है
नागरिकों को
अपने अधिकार की
लड़ाई लड़ते हुए...!
(2013)
-सुरेश स्वप्निल
.
शायद
या चश्मे में कुछ ख़राबी
आ गई है
कुछ भी अच्छा, शुभ
या सुंदर दिखाई नहीं देता
आजकल
या सचमुच हालात
इतने ही ख़राब हो गए हैं
देश के
हर तरफ़
सूखे, मुरझाए चेहरे
गड्ढों में धंसी आंखें
फटे-पुराने, अपर्याप्त कपड़े पहने
सुबह से
दो वक़्त के खाने की जुगत में
लगे हुए बच्चे …
दूसरी ओर
निर्लज्ज्ता की सीमाएं लांघती
समृद्धि
स्वप्न से भी बाहर हो चुके
ऊंचे, वैभवशाली मकान
फ़ुटपाथ पर सोते हुए
अक्सर
किसी मदांध रईस की गाड़ी से
नींद में ही मारे जा चुके
ग़रीब-मज़दूर....
और विकास के झूठे सपने
दिखाते तथाकथित जन-प्रतिनिधि
सीधे-सरल जीवन की
तमाम संभावनाएं
नष्ट करती हुई सरकारी नीतियां....
आख़िर क्यों
इसी देश में जन्म लेना
ज़रूरी था मुझे ???
यहां तो शर्म आती है
नागरिकों को
अपने अधिकार की
लड़ाई लड़ते हुए...!
(2013)
-सुरेश स्वप्निल
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