बादल फिर नहीं छाए इस साल
बीत चुका आषाढ़ कब का
मुंह-अंधेरे
निकल पड़ती हैं औरतें
नंग-धड़ंग बच्चों की उंगलियां थामे
गागर उठाए
गांव से तीन कोस दूर
आता है
राजधानी से
पानी का टैंकर
सबेरे सात से साढ़े सात के बीच
आठ बजे
मज़दूर अपने घरों से निकलते हैं
फ़ैक्ट्रियों और खेतों के लिए
रात की बासी रोटियां खा कर ...
औरतों को नहीं अखरता
इतनी दूर तक घिसट कर
पानी लाना
उन्हें अखरता है सिर्फ़
अपने पतियों का बासी रोटियां खा कर
मज़दूरी पर जाना !
( 1985 )
-सुरेश स्वप्निल
*अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
बीत चुका आषाढ़ कब का
मुंह-अंधेरे
निकल पड़ती हैं औरतें
नंग-धड़ंग बच्चों की उंगलियां थामे
गागर उठाए
गांव से तीन कोस दूर
आता है
राजधानी से
पानी का टैंकर
सबेरे सात से साढ़े सात के बीच
आठ बजे
मज़दूर अपने घरों से निकलते हैं
फ़ैक्ट्रियों और खेतों के लिए
रात की बासी रोटियां खा कर ...
औरतों को नहीं अखरता
इतनी दूर तक घिसट कर
पानी लाना
उन्हें अखरता है सिर्फ़
अपने पतियों का बासी रोटियां खा कर
मज़दूरी पर जाना !
( 1985 )
-सुरेश स्वप्निल
*अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।