रविवार, 31 मार्च 2013

... प्रसव में देर है अभी !

मेरा  बेटा
ज़िद  करता  है
कहानी  सुनाने  की
मैं  उसे  सुनाता  हूं : " एक  दयालु  राजा  था ..."
" और  उसने  किसी  ग़रीब  पर
अहसान  किया !"
उसके  लहज़े  में  व्यंग्य
और  आंखों  में  प्रश्न
देख  कर
मैं  दूसरी  कहानी  छेड़ता  हूं:
" एक  ग़रीब  लड़का  था
और  एक  राजकुमारी .."
" और  उन  दोनों  की  शादी  हो  गई ! "
उसका  व्यंग्य  और  मुखर  होता  है -
" आपके  इन  दोनों  ध्रुवों  के  बीच
ऐसी  जगह  नहीं  कोई
जहां  एक  आदमी
अपने  पांव  जमा  सके ?"

अब
मैं  उसे  एकदम  नई  कहानी
सुनाना  चाहता  हूं
एक  ऐसे  आदमी  की
जिसके  तीन  पैर  हैं !
उसकी  मुद्रा  आक्रामक  होती  है
और  वह
अपनी  नाक  की  सीध  में
अंगुली  खड़ी  कर
चेतावनी  के  स्वर  में
बोल  उठता  है ;
" देखो, डैडी !
कहानियों  के  बहाने
इस  तरह  सरासर  झूठ
क्यों  पेलना  चाहते  हैं  आप ?
कहीं  आप  भी
उन  लोग  की  साज़िश  में
शरीक़  तो  नहीं
जो  सारी  की  सारी  पीढ़ी  को
अपनी  टांगों  के  बीच  से
निकाल  देना  चाहते  हैं ?
कभी  तो  सुनाइए
किसी  अत्याचारी  शासक  के  ख़िलाफ़
जनता-जनार्दन  के
जाग  उठने  की  कहानी
ज़ारों  के  पतन  के  इतिहास
हिटलर  की  मौत
किसी  फ़िलिस्तीनी / वियतनामी  की
संघर्ष-गाथा
किसी  भारतीय  बेरोज़गार  के  पिता  की  व्यथा
किसी  शहीद  की  बेटी  के  ब्याह  की  कथा-
क्या  सचमुच
ऐसी  कोई  कहानी  नहीं  है  आपके  पास ? "

मैं  शर्मिंदा  हूं/ कहना  चाहता  हूं,
" सॉरी  बेटे
ऐसी  कोई  कहानी
नहीं  आती  मुझे… ! "

मेरी  पीड़ा 
मेरी  आंखों  से  छलकती  होगी ..
आप  महसूस  कर  सकते  हैं  उसे
कहानी
मेरे  अंतर  में  कुलबुलाती  है
करवट  लेती  है
लेकिन .... प्रसव  में  देर  है  अभी !

                                           ( 1985 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल 

* संभवतः, अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशनार्थ उपलब्ध।

शनिवार, 30 मार्च 2013

दिल्ली का ऊंट !

कल  यदि  शुरू  ही  हो  जाए
तीसरा  विश्वयुद्ध
तो  क्या  आशा  करते  हैं  आप
कि  किस  करवट  बैठेगा
दिल्ली  का  ऊंट  !

क्या  करेंगे  हम  और  आप
यदि  सरकार  अमेरिका  की  क़तार  में  हो
और  सारा  देश
न्याय  की  ओर
क्या  बिक  जाने  देंगे  हम  निहत्थे
अपनी  संप्रभुता  को
वित्तीय  घाटे  की  आड़  में  ?

यह  कोरी  अफ़वाह  नहीं  है
और  न  कोई  आकाशीय  भविष्यवाणी
न  ही  कोई  व्यापारिक  हथकंडा
बेहद  भयानक  और  क्रूर  आशंका  है  यह
जो  किसी  भी  क्षण  सत्य  हो  सकती  है ...

अपने  स्वर  को  आकार  दो
मांज  कर  रखो  अपने  गले
तैयार  कर  लो  अपने  सारे  तर्क-वितर्क
इसके  पहले  कि  महंगे  डॉलर्स  की  आड़  में
फिर  ग़लत  करवट  ले  बैठे
दिल्ली  का  ऊंट
साबित  करना  होगा  कि  ज़िंदा  हैं  हम
हम,  आज़ाद  देश  के  आज़ाद  नागरिक
हम  हिंदुस्तानी

( 30 मार्च, 2013 )                                                                            - सुरेश  स्वप्निल 


* नवीनतम, नितांत मौलिक/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशनार्थ उपलब्ध।

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

जो मारे गए दोनों ओर से

यह  क्या  किया , कॉमरेड ?
इतनी  लाशें ! ! !

अच्छी  तरह  से  देख  लो
उलट-पलट  कर
एक-एक  लाश  का  चेहरा  ग़ौर  से  जांच  लो
चाहो  तो  रक्त  के  नमूने  सहेज  लो
और  सुनिश्चित  होना  है  तो  कुछ-एक
बाल  भी  नोच  लो  सब  लाशों  के
देख  लो  DNA  मिला  कर
क्या  सचमुच  वर्ग-शत्रु  थे  वे
जो  मारे  गए  दोनों  ओर  से
या  वर्ग-द्रोही  या  सिर्फ़
व्यक्ति-शत्रु  ? ! !

कॉमरेड ,
इतनी  अपेक्षा  तो  है  तुमसे
कि  तुम  पुलिस  या  फ़ौज  की  तरह
पेश  न  आओ
अपने  ही  केडर  से ....

बंदूक़ों  की  आंखें  नहीं  होतीं, कॉमरेड  !

हम, जो  शहर  में  हैं
तुम्हारे  सहानुभूतिक
क्या  जवाब  दें  सारी  दुनिया  को
और  अपने-आप  को  ?

कॉमरेड ,
युद्ध  से  इनकार  नहीं
मगर  क्यों
और  किससे  ?

                                                     ( 28 मार्च, 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

* छतरा, झारखण्ड में 27 मार्च, 2013 को मारे गए माओवादी सैनिकों के नाम। प्रकाशन हेतु नहीं।



गुरुवार, 28 मार्च 2013

योद्धा हुए बिना ...

हारने  की  क़सम  खाई  है  क्या  ?
तो  शोक  किस  बात  का  है !

जैसा  बोया,  वही  उगेगा  भी
बीज  महंगे  थे ,  फ़सल  और  भी
महंगी  होगी
दाल-चावल  को  तरस  जाएंगे
क्या  तो  ओढ़ेंगे ,  क्या  बिछाएंगे
कौन  जाने , विकास  किसका  है

हम  जहां  थे, वहां  से  और  पिछड़  जाएंगे
और  कुछ  लोग
हर  एक  स्वप्न  छीन  लेंगे  हमसे
हम  ही  नाकारा  हैं, क्या  किसी  से  कहें
हमें  तो  चीखना  तक  नहीं  आता ...

आख़िर  ज़िन्दा  ही  क्यूं  हैं  हम  लोग ?
हक़  न  मांगें, तो  शिकायत  कैसी  ?

बेवक़ूफ़  कहीं  के !
सरकार  सुनती  नहीं  तो  बदल  क्यूं  नहीं  देते  ?
नई  तहरीर  लिखो
मारे  तो  वैसे  भी  जाओगे
लड़  कर  मरोगे  तो  जीत  जाओ  शायद
हार  भी  जाओ  तो  कहीं  कुछ  तो
निज़ाम  बदलेगा, बदलना  ही  होगा
तुम  असफल  रहे  तो  पीछे  खड़ी  है
नई  और  युवा  पीढ़ी !

लड़ो, लड़ो, लड़ते रहो  पीढ़ी  दर  पीढ़ी
हमारा  इतिहास  विजेताओं  का  है
भविष्य  अलग  हुआ  भी  तो  कितना  होगा ?

योद्धा  हुए  बिना  विकल्प  नहीं  है, कॉमरेड !

                                                            ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

* नवीनतम/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

मंगलवार, 26 मार्च 2013

त्यौहार देख कर डर लगता है !

रंगों  की  बौछार  देख  कर  डर  लगता  है
व्यर्थ  गई  जल-धार  देख  कर  डर  लगता  है

पीने  के  पानी  से    होली     खेल  रहे  हैं
संतों  के  दरबार  देख  कर  डर  लगता  है

बूंद-बूंद  को  तरस   रहे  हैं  कंठ  करोड़ों
पानी  का  व्यापार  देख  कर  डर  लगता  है

धरती  के  चप्पे-चप्पे  पर  पड़ी  दरारें
अंधों  की  सरकार  देख  कर  डर लगता है

सब-कुछ  गिरवी  है  पूंजी-पतियों  के  हाथों
अब  तो  हर  त्यौहार  देख  कर  डर  लगता  है !

                                                                  ( 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल

* नवीनतम/मौलिक/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना।

सोमवार, 25 मार्च 2013

यह समय जो शत्रु है...

जब  समय  ही  शत्रु  हो  जाए
तो  क्या  करे  मनुष्य  ?

नहीं, असंभव  है  मनुष्य  का
बिना  लड़े  हार  मान  लेना
मनुष्य  ही  है  जो  गढ़ता  है
समय  के  मापदण्ड
और  उसकी  तमाम  इकाइयां,
परिभाषाएं ...

समय  यदि  शत्रु  होने  लगे
तो  मनुष्य  किसी  भी  क्षण  उठा  सकता  है  हथियार
और  बदल  सकता  है  सारे  मापदण्ड,  इकाइयां
और  परिभाषाएं  समय  की
और  उखाड़  कर  फेंक  सकता  है  सारी  सत्ताएं
समय  के  तथाकथित  अधिनायकों  की

मनुष्य  कोई  व्यक्ति  या  समूह  नहीं
चोर-लुटेरों-अत्याचारियों  का

मनुष्य  एक  समग्रता  है
जिसे  आता  है
ख़ुद  अपने  ही  सड़े-गले  अंग  काट  कर  फेंक  देना
और  रच  देना  नई  क्रांतियां

यह  समय  जो  शत्रु  है
उसे  बदलना  ही  होगा  अपने-आप  को
मनुष्य  के  हित  में
इसके  पहले  कि  मनुष्य  सहेजने  लगे
अपने  हथियार
और  कृत-संकल्प  हो  बैठे
समय  को  बदल  डालने  के  लिए ...

सुन  लें  समय  के  तथाकथित  मालिकान
अब  अधिक  समय  नहीं  है  उनके  पास !

                                                             ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

* नितांत मौलिक/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

शनिवार, 23 मार्च 2013

मौन है फागुन बहुत

मौन  है  फागुन  बहुत
इस  साल
जाने  क्या  हुआ  है
फाग  के  अब  सुर  नहीं  मिलते
बयारों  में

कोई  तो  होगा  सबब
शायद
किसी  ने  फिर  किया  विश्वास
झूठे  प्यार  पर
या, दर्द  जागा
फिर  किसी  विरही  हृदय  में

वसंतों  में
किसी  का  प्यार  न  यूं  चोट  खाए
मीत  मेरे
प्रीत  के  प्यासे  सभी  मन  एक  हैं
वादा  करे  कोई  किसी  से, तोड़  दे
वह  दर्द  उसका , सिर्फ़  उसका  ही  नहीं
जिसका  हृदय  घायल  हुआ  है ....

प्रीत  का  उपवन  अगर  ख़ामोश  है
ओ  मीत  मेरे
आओ, इन  टूटे  दिलों  को  जोड़  दें
हम  बांट  दें  अपने  हृदय  की  प्रीत  सबको !

                                                             ( 2 मार्च, 1977 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

प्रकाशन: 'देशबंधु', भोपाल, मार्च, 1977

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

मेज़ नंबर नौ

मेज़  नंबर  नौ
रिज़र्व  है  बरसों  से  उनके  लिए
जो  रोज़  सात  बजे  आते  हैं
और  कॉफ़ी  के  दो-तीन  प्याले  पी  कर
रात  को  दस  बजे  जाते  हैं !

कॉफ़ी  हाउस  के  वेटर  जानते  हैं  उन  सब  को
कि  सिर्फ़  उनके  इरादे  ख़तरनाक  हैं,
वे  ख़ुद  नहीं !

वे  आते  हैं
कंधों  पर  झोले  लटकाए
अपनी  बेतरतीब  दाढ़ी  में  उंगलियां  फंसाते
और  अपने  मैले  कुरतों  की
जेबें  टटोलते
अपनी  पीली-पीली  आंखों  में
तैरते  सवाल  लिए
मेज़  नंबर  नौ  पर  जम  जाते  हैं
अक्सर  सबसे  सस्ती  बीड़ियां  सुलगा  कर
बहस  में  जुट  जाते  हैं
पता  नहीं  कब  ग़ुस्सा  उनके  सर  पर  सवार  हो  जाता  है
और  उनकी  आंखें  लाल  होती  चली  जाती  हैं !

वे  बहस  करते  हैं
कभी  खेत, कभी  खलिहान
कभी  पत्थरों  की  खान
कभी  कपड़ा-मिलों
और  कभी  बीड़ी-मज़दूरों , उनकी  बीवी-बेटियों
और  शोषण  के  बारे  में
और  हर  बार
उन्हें  कविताओं  में  खींच  लाते  हैं !

वे  हड़ताल, प्रदर्शन  और  विद्रोह  की  बातें  करते
खांसते  हैं, खंखारते  हैं
मुट्ठियां  बांधते-खोलते  हैं
और  मेज़  नंबर  नौ
थरथराने  लगती  है !

फिर  वे  कविताएं  सुनाते  हैं
जिनमें  पेड़  होते  हैं, नदियां  होती  हैं, चिड़ियें  भी  होती  हैं
और  आतंक  होता  है
और  अवश्यंभावी  क्रांति  होती  है

कॉफ़ी  हाउस  के  वेटर  नहीं  जानते
कि  दुनिया  की  किस  भाषा  में
मज़दूर  का  अर्थ  पेड़, नदी  और  चिड़िया  होता  है।
 दरअसल  उन्हें  कविता  की  समझ  नहीं  है
वे  बहुत  जल्दी  ऊब  जाते  हैं
और  मेज़  नंबर  नौ  से  बेहद  कतराते  हैं
उन्हें  यह  भी  नहीं  मालूम
कि  मेज़  नंबर  नौ  के  ख़ुफ़िया  तहख़ाने  में
एक  अदद  दिल  है
और  दिमाग़  भी !
उसे  कविताओं  की  ख़ासी  समझ  है
और  वह  भी
मज़दूरों  के  विश्वव्यापी  शोषण  के  ख़िलाफ़  है।

जब  वे  सब
व्यवस्था  के  निकम्मेपन  पर
ग़ुस्से  से  कांपते  हैं
और  अपनी  मुट्ठियां  मेज़  पर  दे  मारते  हैं
तो  मेज़  नंबर  नौ
उनके  समर्थन  में  चरमराती  है !
हालांकि, कवि-गण  उसकी  भावनाओं  को  नहीं  समझ  पाते !
वे  तो  बस, पौने  दस  बजते  ही  अपनी  बहस  ख़त्म  करते  हैं
और  कॉफ़ी  की  आख़िरी  प्याली  पी  कर
हड़बड़ी  में  बाहर  निकलते  हैं
क्योंकि  शहर  के  किसी  भी  हिस्से  को
जाने  वाली  आख़िरी  बसें
सवा  दस  तक  चली  जाती  हैं।

मेज़  नंबर  नौ  के  पास
सिर्फ़  ज़ुबान  और  होती
तो  वह  ज़रूर  पूछती  उनसे
कि  कॉफ़ी  हाउस  के  वेटरों  का  ज़िक्र
कब  आएगा  कविताओं  में ? !

                                                                                     ( 1986 )

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

* संभवतः, अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

गुरुवार, 21 मार्च 2013

औरतों को अखरता है...

बादल  फिर  नहीं  छाए  इस  साल
बीत  चुका  आषाढ़  कब  का

मुंह-अंधेरे
निकल  पड़ती  हैं  औरतें
नंग-धड़ंग  बच्चों  की  उंगलियां  थामे
गागर  उठाए

गांव  से  तीन  कोस  दूर
आता  है
राजधानी  से
पानी  का  टैंकर
सबेरे  सात  से  साढ़े  सात  के  बीच

आठ  बजे
मज़दूर  अपने  घरों  से  निकलते  हैं
फ़ैक्ट्रियों  और  खेतों  के  लिए
रात  की  बासी  रोटियां  खा  कर ...

औरतों  को  नहीं  अखरता
इतनी  दूर  तक  घिसट कर
पानी  लाना
उन्हें  अखरता  है  सिर्फ़
अपने  पतियों  का  बासी  रोटियां  खा  कर
मज़दूरी  पर  जाना  !

                                                           ( 1985 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

*अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन  हेतु  उपलब्ध।

बुधवार, 20 मार्च 2013

हमारे लहू के दाग़ ...

हमने
अपने  ख़ून-पसीने  से  लिखा  इतिहास
उनका  जाम  छलका
और  सब  मिट  गया !

शक्ति ? हां, हममें  है- श्रम-शक्ति, नैतिकता, ईमानदारी
शक्ति  उनमें  भी  है- वाक्-शक्ति, छल-कपट, चतुराई
हमने  नहीं  जाना  अपना  मूल्य
उन्होंने  जाना  है।
इसीलिए  तो  वे  लाभ  उठाते  हैं
हमारे  खून-पसीने  की  कमाई  रोटी
छीन  खाते  हैं !

उनके  हाथों  में  है  हमारी  रोटी
उनकी  आस्तीन  पर
हमारे  लहू   के  दाग़ ...

हम  क्यों  नहीं  कुछ  कर  पाते
चुप  रह  जाते  हैं ?
क्या  वे
और  हिंसक  हो  गए  हैं ?
या  हम  ही  नपुंसक  हो  गए  हैं ?!!

कुछ  तो  करना  ही  होगा
न  सही  वर्त्तमान,
भविष्य  के  लिए  मरना  ही  होगा
ताकि
हमारी  अगली  पीढ़ी
अपना  कमाया  ख़ुद  खा  सके
और  धो  सके
हमारी  नपुंसकता  के  गुनाह  को।

                                                ( 1976 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: 'देश बंधु', भोपाल ( 1976 ), 'अंतर्यात्रा'-13, ( 1983 ). पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।



मंगलवार, 19 मार्च 2013

नई बस्ती की शाम

शाम  हुई
रोया  रमतूला  कोरी  का
लौटे  डंगर
डकराते

उठती  है  आवाज़  अखाड़े  से
आओ ! आओ !
निकले  पट्ठे  ले कर  लंगोट
टकराते  गबरू  सांड़ों  से
दे  पीठ
उठा  कर  पल्लू
दाबा  दांतों  से  लल्ली  ने
फिर  लेकर  हिलोर
थामे  गगरे  हाथों  में

खपरैलों  के  नीचे
धुंधुआते  चूल्हे  में
फूंक  मारती  अम्मां
बहती  नाक
आंख  में  पानी
कंथरी  ओढ़े  तकते  बच्चे
सिंकती  रोटी  की  गोलाई
थूथन  उठा-उठा  कर
टोह  लगाते  कुत्ते ...

कैसे  थके-थके  आते  हैं
रेलवई  के  बाबू
माथे  पर  टांके
हिसाब  के  चिह्न
झुकी  आंखों  के  नीचे
काले  गड़हे 
पांवों  में  जैसे  बांट  बंधे  हों
मन-मन  भर  के

और  खलासी ?
बेशर्मी  से  ठी-ठी  करते
बहन-मतारी  को  गरियाते
एक-दूसरे  की
पीठों  पर  धौल  जमाते
कभी  थकन  आती  है  इनको ?

नई  बस्ती  के  पूत
अजब  सुर  में  गाते  हैं
और  हांक  कर  आते  हैं  हर  रात
शाम  को  भिनसारे  के
दरवाज़े  तक !

                                                         ( 1987 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

* 'नई बस्ती', उत्तर प्रदेश के झांसी  शहर का एक मोहल्ला। कवि का जन्म इसी मोहल्ले में हुआ था।
** अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

सोमवार, 18 मार्च 2013

और कुछ छोटी कविताएं

संदिग्ध 

तिरुपति  देवस्थानम  के  दान-पात्र  में 
डाल  गया  है  कोई  भक्त 
बीस  हज़ार  पौंड्स  के  नोट 
और  एक  स्वचालित  विदेशी  पिस्तौल 

दिल्ली  की  रिपोर्ट  है 
सांसद  की  हत्या  के  आरोप  में 
जमना-पार  की  बस्ती  से  पकड़ा  गया 
संदिग्ध  हत्यारा 
रिक्शे वाला !

मनौती 

सरकारी  वैज्ञानिक  के  घर  में 
सत्य साईं  बाबा  के  चित्र  से 
टपकता  है 
शहद  और  सिन्दूर 

अभी-अभी  निकले  हैं  मुख्य-मंत्री 
दर्शन  करके 
और  मनौती  मांग  कर 
सूखा-ग्रस्त  क्षेत्रों  के  दौरे  पर !

आधारशिला 

आज  भूमि-पूजन  हुआ 

कंप्यूटर-सेंटर  की 
आधारशिला  पर 
शंकराचार्य  का  नाम  खुदा !

                                           ( 1983 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: सभी कविताएं विभिन्न लघु-पत्रिकाओं में प्रकाशित। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

रविवार, 17 मार्च 2013

बूढ़ी संसद नहीं चलेगी

युवा  देश  में  बूढ़ी  संसद  
नहीं  चलेगी

नहीं  चलेंगे  बूढ़ों  के  करतब
ज़्यादा  दिन
चोर-बाज़ारी, रिश्वत-ख़ोरी,
अमरीका  की  ठकुर-सुहाती
टाटा-बिड़ला-अम्बानी-मित्तल-जिंदल  से
गठ-बंधन  भी  नहीं  चलेंगे

अबकी  बार  हिसाब  मांगने  वाले
युवा-वर्ग  को
झांसे  देना  महंगा  होगा
अबके  जंतर-मंतर  से  बदलेगी  सारी  सत्ता,
सत्ता  के  सारे  समीकरण  यहीं  बनेंगे

अब  ज़्यादा  दिन  नहीं  बचे  हैं
इस  संसद  के
इस  अंधियारे  के  मौसम  के

अब  यह  संसद  नहीं  चलेगी
या  यह  जनता  नहीं  चलेगी !

                                                     ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

* एकदम नई रचना, अप्रकाशित, अप्रसारित। प्रकाशन हेतु उपलब्ध। 

शनिवार, 16 मार्च 2013

मत दिखाना झूठे सपने ...

अख़्तर  मियां !
जब  तुम्हारी  नन्हीं  पोती
पैयां-पैयां  चल  कर
तुम्हारे  पास  आएगी
और
दोनों  हाथ  पकड़  कर
झूल  जाएगी
तो  क्या  दोगे  तुम  उसे ?
कपड़े  की  गुड़िया
गैस  का  गुब्बारा
पर-टूटी  प्लास्टिक  की  चिड़िया
दस  पैसे  का  घिसा  हुआ  सिक्का
या,
ऊन-जैसे  नर्म-गर्म  गालों  पर
सिर्फ़,  एक  पप्पी ?

औरों  की  तरह 
तुमने  भी 
देखे  होंगे  सपने
सोचा  होगा  बहुत-कुछ
अपनी  अज़रा  के  लिए ...
परियों-जैसे  लिबास
ढेरों  खिलौने
सुंदर-सी  गाड़ी
फूलों  के  बिछौने -
और ,
शाहज़ादों  की
ढेरों  कहानियां ...

मगर
है  ही  क्या  तुम्हारे  पास
अख़्तर  मियां ?

झूठे  दिलासे/ मत देना
झूठे  बहाने/ मत  बहाना
मत  दिखाना  झूठे  सपने ...
अभी  आती  ही  होगी
तुम्हारी  नन्हीं  पोती
अपनी  फटी  हुई  फ्रॉक  में
उंगलियां  फसाए ...
धूल  में  लिपटी
" बाबा-बाबा ! हमतो  धली  दिला  दो"-कहती

तब  तुम
उसे  गोदी  में  उठा  कर
ख़ूब  प्यार  करना ...
हक़ीक़त  को
छिपाना  नहीं  अख़्तर  मियां
रोना  भी  नहीं  अख़्तर  मियां

यह  नई  पीढ़ी
सच  को  प्यार  करती  है
-कभी  कह  कर  देखो !

                                                       ( 1982 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

* अपने बचपन के दिनों के परम शुभ-चिन्तक , अख़्तर भाई साइकिल वालों के लिए।
** संभवतः, अप्रकाशित/अप्रसारित; प्रकाशन हेतु उपलब्ध।




शुक्रवार, 15 मार्च 2013

50 वीं पोस्ट : पहली उड़ान के लिए

चीं-चीं-चुक्
उठो,  मेरे  प्यारे  नन्हों
अपने  पंखों  से  रगड़  कर
अपनी  चोंचें  साफ़  करो
दोनों  पंजे  और  दोनों  पंख                                   
एक  साथ  उठाओ
और  तैयार  होओ 
पहली  उड़ान  को !                                                                      

देखो  कि  तुम्हारी  चोंचों  के  इर्द-गिर्द
छाई
दूधिया  सफ़ेदी
साफ़  हो  चुकी  है  अब
और  तुम  सक्षम  हो
बिल्लियों,  कौवों  और  कुत्तों  से
अपने  बचाव  में

देखो,  तुम्हारे  हर  ओर
फैले  हुए  हैं
खेत,  खलिहान  और  सूपों  में
बिखरे  हुए  दाने

उठो,  मेरे  प्यारे  नन्हों  !
अपने  कण्ठों  को  खोल  कर
चुनौती  का  स्वर  दो
अपने  पंखों  से  रगड़  कर
अपनी  चोंचें  साफ़  करो
दोनों  पंजे  और  दोनों  पंख
एक  साथ  उठाओ
उड़ो,  ऊंचे  आकाश  में
दाने  की  तलाश  में !
                                     ( 1978 )

                               -सुरेश  स्वप्निल 

*प्रकाशन: 1978 से 1985 के  मध्य, अनेक  पत्र-पत्रिकाओं में। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

गुरुवार, 14 मार्च 2013

स्वागत है, हे कला-साधकों..

स्वागत  है, हे  कला-साधकों
आगे  आएं
आप  सुनाएं  राग  कोई  भी
इस  महफ़िल  में
( पञ्चम  से  निषाद  तक
 सारे  स्वर  वर्जित  हैं! )
'दीपक' या  'दुर्गा',  चाहें  तो
गुनगुनाइए
लेकिन, पहले  चार  स्वरों  में
( आगे  के  सारे  स्वर
 'दरबारी' की  ख़ातिर  आरक्षित  हैं! )

ख़ुशफ़हमी  न  रखें,
विरोध  का  तो
ख़्याल  भी  नहीं  चलेगा
टप्पे, ठुमरी
सभी  समर्थन  के  ही  गाएं
वर्ना  धेला  नहीं  मिलेगा !

जल  में  रह कर
बैर  मगर  से  ठाने  रखना
कौन  अक्लमंदी  है  भाई ?
आश्चर्य है,
इतनी  सीधी  बात,  अभी  तक
कैसे  नहीं  समझ  में  आई!

सत्य  सदा  लाञ्छित  होता  है
इसका  रगड़ा  नहीं  पालना
यहां  दाम  अच्छे  मिलते  हैं
बेच  सको  तो
अपनी  स्वरलिपि  बेच  डालना!

                                          ( 1981 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

*संदर्भ: भा .ज .पा . के पूर्व-अवतार 'भारतीय जनसंघ' का चुनाव-चिन्ह दीपक हुआ करता था, वहीं 1971 के भारत-पाक  युद्ध के पश्चात् पूर्व-प्रधानमंत्री अटल जी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री सुश्री इंदिरा गाँधी को 'दुर्गा' की उपमा दी थी। 'दरबारी' वस्तुतः म. प्र. में 1970-80 के दशक में तथाकथित रूप से घटित 'सांस्कृतिक क्रांति' के 
नायक एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी की तानाशाही-प्रवृत्ति से संदर्भित है। 

बुधवार, 13 मार्च 2013

ज़िंदा दिल शहर का इतिहास

यह  कैसी  आग  है
जिसमें  जलते  हैं  दिल
ख़ाक  होते  हैं  जिस्म
बरसता  है  लहू-
उठते  हुए  शो'लों  को
और  भड़काने  के  लिए ?

ये  जलती  हुई  झोंपड़ियां
ये  ध्वस्त  होते  मकान
सुलगती  सड़कें-
और रह-रह  कर , घुट-घुट  कर
गूंजती  हुई  चीख़ें -

और  तुम्हारे  पैरों  में  उलझती  हुई
अधजली  लाश ..

यह  सरिता  है
कि  शबाना  है  ?
और  यह  शहर ,
यह  मुरादाबाद  है
कि  अलीगढ़  है
या  इलाहाबाद
कि  हैदराबाद ????

बता  सकते  हैं  मुझे,
श्रीमान ?
मुझे, 
इस  ज़िंदा दिल शहर  का
इतिहास  लिखना  है !

                                 ( 1976 )

                           -सुरेश  स्वप्निल 

*संभवतः, प्रकाशित। पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

रस्सी कूदती हुई लड़कियां

सुबह-सबेरे
कोहरे  की  छाती  फोड़  कर
उग  आती  हैं  मैदान  में
रस्सी  कूदती  हुई  लड़कियां

एक  शोर  उभरता  है
एक  लय  बंधती  है
एक  गीत  मचलता  है
रस्सी  कूदती  हुई  लड़कियां
कुछ  गुनगुनाती  हैं
कोहरे  की  दीवारें  प्रतिध्वनित  करती  हैं
हिलती  हैं
टूट  जाती  हैं -
और  गीतों  के  बोल
हवाओं  के  पंखों   पर  बैठ  कर
उड़  जाते  हैं !

इस  समय
रस्सी  कूदती  हुई  लड़कियों  के  पांव
ज़मीन  से  काफ़ी  ऊपर  होते  हैं

फिर  लड़कियां  खिलखिलाती  भी  हैं
बात-बात  पर
उनकी  जेबों  में  रखे  हुए  पैसे
और  चोटियों  में  खुंसे  हुए  फूल
गिर  जाते  हैं

रस्सियां  ऊपर-नीचे-दाएं-बाएं
लहराती  हैं

धूप
धीरे-धीरे
दिन  की  लंबी  सड़क  नापती  हुई
काफ़ी  दूर  आ  जाती  है
छायाएं  बौनी  होती  जाती  हैं
और  लड़कियों  की  गति
तेज़, तेज़ तर  होती  जाती  है

माथों  पर  बूंदें  छलछलाती  हैं
चेहरों  पर  तमतमाहट
और  सांसों  में  तूफ़ान  उठते  हैं
रस्सियों  की  मूठों  कसे  हुए  हाथ
छिल  जाते  हैं
और  सूरज  के  सिर  पर  आते-आते
लड़कियां  मुरझा  जाती  हैं

उनके  पांव  रुकते  नहीं
हालांकि  बड़ी  मुश्किल  से  उठते  हैं

धूप  के  ढलने  का  समय  निश्चित  होता  है
सुबह  के  उड़े  हुए  बोल
अपना  अश्वमेध  पूरा  कर
लौट  आते  हैं
नई  कहानियां
नए  गीतों  की
संभावनाएं  ले  कर

और  लड़कियां  धूप  के  पटाक्षेप  के  साथ
इंच-इंच
धरती  में  समा  जाती  हैं।

कभी-कभी  लड़कियों  के  मां -बाप
उनकी  रस्सियां  छिपा  देते  हैं
लड़कियां  उस  दिन  उदास  होती  हैं
फिर  भी  मैदान  में  उगती  हैं
ख़ाली  हाथ
नंगे  पांव
और  खुले  हुए  बाल  ले  कर

उन्हें  अपना गीत
उसकी  स्वरलिपि
उसकी  ताल  और  लय
सब-कुछ  याद  है

वे  पूर्व-निश्चित  क्रम  में
गोल  घेरा  बनाती  हैं
और  अपने  सफ़ेद  होठों  से
अपना  गीत  गुनगुनाते  हुए
हाथों  को  गति  देती  हैं
खुले  हुए  बाल  हवाओं  में
लहराते  हैं
और  पांव
ज़मीन  से  ऊपर  उठ  जाते  हैं
अन्य  दिनों  की  अपेक्षा  कहीं  अधिक  ऊंचाई  तक

उस  दिन  लड़कियां  परवाह  नहीं  करतीं
मई-जून  के  साफ़  आकाश  की
जिनमें  पारे  की  लकीरें
थर्मामीटर  की  सीमाएं  तोड़  कर
चिलचिलाने  लगती  हैं

लड़कियां  थकती  नहीं
और  न  मुरझाती  हैं
उनके  कोमल  तलुओं  में  तिनके
अपनी  नोकें  गड़ा  देते  हैं
और  उनके  निश्चित  क्रम  में  घूमते  हुए  हाथ       फ्रा
दर्द  से  फटने  लगते  हैं
धूप  आंखों  में  पानी  भर  जाती  है।
और  हवाएं  उनकी फ्रॉकों  से  लिपट  कर
सरसराती  हैं
बालों  में  उलझ  जाती  हैं -
-एक  सिम्फ़नी
धीरे-धीरे
फ़िज़ाओं  में  घुलती  जाती  है

उस  दिन  शाम  के  बाद  भी
लड़कियां  धरती  में  नहीं  समातीं
सुनसान  अंधेरों  के  बीच
उनके  शरीर  झिलमिलाते  हैं
और  सारे  शहर  में  गूंजते  हैं
तब  लड़कियों  के  मां-बाप
अपने  छप्पर  टटोलते  हैं
और  उनकी  छिपाई  हुई  रस्सियां  निकाल  कर
वापस  दे  आते  हैं

एक  दिन

रस्सी  कूदती  हुई  लड़कियां                                                        

अपनी  रस्सियां  मैदान  में  छोड़  कर
तुम्हारे  घरों  में  आएंगी
और  मांएं  बन  जाएंगी
और  तुम्हारी  नन्हीं  लड़कियां
हर  सुबह  मैदान  में  ऊगेंगी
और  अपनी  मांओं  की  छोड़ी  हुई  रस्सियां
उठा  कर  कूदेंगी

मैदान  सब  लड़कियों  को  अच्छा  लगता  है
और  उनका  रस्सी  कूदना  मैदान  को।

                                                             ( 1982 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

*प्रकाशन: 'साक्षात्कार', भोपाल ( 1983 ).   पुनः प्रकाशन हेतु उपलब्ध।

 

सोमवार, 4 मार्च 2013

उस दिन के लिए कविता...

न  था  कुछ  भी, तो  थी  कविता
न होगा  कुछ, तब  भी  रहेगी  कविता

कि  कविता  मोहताज  नहीं  है
किसी  भाषा, किसी  लिपि
किसी  धर्म, राष्ट्र  या  सिद्धांत  की
या  समय, या  ब्रह्माण्ड  की

कविता  जानती  है
अपना  समय, अपना  संसार, अपना  मनुष्य  रचना
और  न्याय  करना
चमत्कारी  महापुरुषों  का
और  थोथी  आस्थाओं  के  व्यापारियों  का

कि  कविता  अकेली  है
जिसका  धर्म  है  ईश्वरत्व  धारण  करना
कि  वही  है  अनादि-अनंत-अछेद-अभेद
निर्गुण-निराकार  जल्व: ए नूर
अनहद  नाद

कविता  थी, है  और  रहेगी
किन्तु  वह  न्याय  अवश्य  करेगी
और  संहार  भी
अपने  अर्थ  खो  चुके  शब्दों
जैसे  ईश्वर और मनुष्य .... और  समय  का
फिर  रचेगी  वह  नए  शब्द
पंचतत्व  में  विलीन  शब्दों  की  राख़  से

उस  दिन  के  लिए
जब  कविता  अपना  धर्म  निभाने  लगे
अपनी  सच्ची  आस्थाओं  को  बचाए  रखना
कि  पा  सको  फिर  नया  जन्म
और  पहचान  सको  अपने  होने  का  अर्थ !

                                                         ( 26.02.2003 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

* अप्रकाशित / अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु  उपलब्ध।

रविवार, 3 मार्च 2013

मसलन प्यार ...

कुछ  हथियार  ज़रूरी  हैं
इंसानियत  के  लिए
मसलन  आशा, आस्था, अमन
मसलन  प्यार ...

कैसे  भूल  जाते  हैं  लोग
सृष्टि  के  सुन्दरतम  शब्द
उनके  उच्चारण, उनके  भाव
उनके  अर्थ ?

क्यों  नहीं  भूल  पातीं  क़ौमें
मानव-रक्त  और  मांस  के  स्वाद
अपने  क्रूर, नृशंस, बर्बर
और  गर्हित  इतिहास !?

क्या  सचमुच
इतना  ज़रूरी  है  ज़िन्दा  रखना
गोरी  नस्लों  की  श्रेष्ठता  के  दंभ
आर्थिक-उपनिवेशवाद ...

कैसी  भयंकर  आग  है
कितनी  भीषण  ध्वनियां
कितनी  असहनीय  गंध
और  कितने  नज़दीक़ ...

कहीं  मर  तो  नहीं  रहा
तुम्हारे
और  मेरे  भीतर  का  मनुष्य ?

हां, कुछ  हथियार  ज़रूरी  हैं
दुनिया  को  जिलाए  रखने  के  लिए !

                                                      ( 22 मार्च , 2003 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

* अपनी जीवन-संगिनी, कविता जी के जन्मदिन पर।
** अप्रकाशित / अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध 

शनिवार, 2 मार्च 2013

मारे जाओगे, तानाशाह

वह  जो  जंगल  है  तुम्हारी  नज़र  में
वह  जिस  दिन  आगे  बढ़ेगा
तुम्हारे  क़िले-नुमां  महल  की  तरफ़
और  उतर  जाएगा  तुम्हारी  धमनियों  में
पारा  बन  कर
उस  दिन  मारे  जाओगे  तुम

मारे  जाओगे, तानाशाह
वैदिक  ऋचाओं  से  अग्नि  प्रज्ज्वलित  कर
निर्दोष  मानव-रक्त-मांस  की  आहुतियां
ब्रह्म-राक्षसों  को  जगाने  वाले
मद-अंध  अघोरी
तुम्हें  पता  है
जंगल  की  शक्ति ?

तय  है  कि  जंगल  आएगा  ही
तुम्हारे  दरवाज़े
तुम्हारी  'फ़ूल-प्रूफ़' सुरक्षा-प्रणालियों  को
नेस्त-नाबूद  करता
-उसकी  तेजाबी  तरलता  अबंध्य  है
गर्म  लावे  की  तरह

जंगल  एक  प्रश्न  है
चार वेद, अठारह  पुराण
और  असंख्य  स्मृति-संहिता-उपनिषद्
धर्म शास्त्रों  के  समक्ष
और  अकेला  जवाब
तुम्हारे  तीर-तलवार-त्रिशूल
तुम्हारी  परमाणु-क्षमता
और  नाभिकीय  बमों  का
-तुम्हारी  निर्लज्ज  राज्य-लिप्सा
तुम्हारी  वीभत्स  युयुत्सा  का

वह  जो  जंगल  है  तुम्हारे  सामने
वह  तुम्हें  छोड़ेगा  नहीं !

                                                       ( 03.03.2002 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

* गुजरात में  दंगों  के  बाद  लिखी गई। शेक्स्पियर   के  नाटक 'मैकबेथ' से प्रेरित।
** अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु  उपलब्ध।
 

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

मृत्युघोष

वक़्त  आ  गया  है  कि  मैं
प्रकट  हो  जाऊं
महाशून्य  के  गर्भ  से
और  नष्ट  कर  दूं  चेतना  के
सारे  सबूतों  को

वक़्त  आ  गया  है  कि
भूगर्भीय  चट्टानों  को  गति  दी  जाए
ताकि  समतल  हो  सकें
समृद्धि  के  वीभत्स  पर्वत
और  आकाश  पर  उड़ते  देवतागण                                           
ज़मीन  पर  रेंगती  हिकारतों  में
एक-मेक  हो  जाएं

वक़्त  आ  गया  है
कि  गुरुत्वाकर्षण  को
शब्दकोष  से  हटा  दिया  जाए
और  समानार्थी   दिया  जाए
ग्रह-उपग्रह-नक्षत्र  को

वक़्त  आ  गया  है  कि  तुम्हें
हक़ीक़त  बता  दी  जाए
कि  यह  कायनात  बख्शी  गई  थी  तुम्हें
इसलिए
कि  तुम  रच  सको
सौंदर्य  के  कालातीत  महाकाव्य
और  खड़े  हो  सको   मेरे  सामने
आंखों  में  आंखें  डाल  कर
निर्विकार  उल्लास  में  भरे  हुए

ओ  मेरी  व्यर्थतम  रचना
ओ  कपूत  अपात्र  !
अब  मैं  तुम से  सारी  विरासत
और  सारे  अल्फ़ाज़  वापस  लेता  हूं
और  तुम्हारा  वक़्त  भी  !

                                                    ( 2002 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

* अप्रकाशित/ अप्रसारित  रचना। प्रकाशन  हेतु  उपलब्ध।
                                             -

बहुत पहले सुना हुआ गीत

अक्सर  ऐसा  होता  है
कि  नींद  के  पहले
याद  आता  है  उसे
बहुत  पहले  सुना  हुआ  गीत:
" सो  जा,  सो  जा  बारे  बीर
बीर  की  बलैयां  लै  लऊं
जमना  के  तीर "

और  नींद
पंख  फड़फड़ा  कर
उड़  जाती  है ....

बचपन  में
यही  गीत  सुन  कर
अपना  घोंसला  छोड़  कर
पता  नहीं  किस  खिड़की  से  आती  थी  नींद
और  उसके  सिरहाने  आ  कर
ढांप  लेती  थी  उसकी  आंखें
और  सुबह  तक  ठहरी  रहती  थी ..

उसे  याद  है  वह  धुंधला  चेहरा
ठीक  उसकी  पहली  कॉपी  के
धुंधलाए  चित्रों-जैसा
जिनमें  ही  कहीं  गड्ड-मड्ड  है
उसकी  मां  की  तस्वीर  !

अम्मां  की  थपकियों  में  जादू  था
या  कि  नींद  उनकी  सहेली
उसने  कभी  नहीं  सुनी
नींद  की  आहट
बस,  सहेजता  रहा  पलकों  की  संदूकची  में
सपनों  के  हीरे-मोती

सपनों  को  ओढ़े  कि  बिछाए
यह  समस्या  नहीं  थी  तब

जब  कभी
वह  कच्ची  नींद  से
चौंक  कर  जाग  उठता
अम्मां  बतियाती  मिलतीं
जाने   किसके  साथ
जबकि  वहां  कोई  नहीं  होता  था
अम्मां,  दिये  और  हवा  के  सिवा !

तब
अम्मां  की  उंगलियां
उसके  बालों  में  उलझने  लगतीं
और  अधूरे  छूटे  चित्र
पूरे  होने  लगते

बहुत  बार  सोचता  वह
कि  अम्मां  सोएं
और  वह  हवा  से,  दिये  से,
नींद  से   बतियाए
लेकिन  नहीं  आता  था  उसे
नींद  का  गीत
और  न  उसकी  धुन

और  अम्मां  जागती  रहीं
आख़िरी  बार  सोने  से  पहले  तक ...

अब  न  नींद  है
न  हवा,  न  नींद
और  न  अम्मां
बस  एक  गीत  है
बहुत  पहले  सुना  हुआ ...

अम्मां  कुछ  दिन  और  रुकतीं
तो  वह  उनसे  गीत  को  स्वर
और  स्वरों  को  अर्थ  देने  की  तरकीब
ज़रूर  पूछता !

                                                      ( 1984 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

* प्रकाशन: 'वर्त्तमान  साहित्य', 1984 एवं  अन्य  कुछ  पत्र-पत्रिकाओं  में। पुनः प्रकाशन हेतु  उपलब्ध।