रंगों की बौछार देख कर डर लगता है
व्यर्थ गई जल-धार देख कर डर लगता है
पीने के पानी से होली खेल रहे हैं
संतों के दरबार देख कर डर लगता है
बूंद-बूंद को तरस रहे हैं कंठ करोड़ों
पानी का व्यापार देख कर डर लगता है
धरती के चप्पे-चप्पे पर पड़ी दरारें
अंधों की सरकार देख कर डर लगता है
सब-कुछ गिरवी है पूंजी-पतियों के हाथों
अब तो हर त्यौहार देख कर डर लगता है !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम/मौलिक/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना।
व्यर्थ गई जल-धार देख कर डर लगता है
पीने के पानी से होली खेल रहे हैं
संतों के दरबार देख कर डर लगता है
बूंद-बूंद को तरस रहे हैं कंठ करोड़ों
पानी का व्यापार देख कर डर लगता है
धरती के चप्पे-चप्पे पर पड़ी दरारें
अंधों की सरकार देख कर डर लगता है
सब-कुछ गिरवी है पूंजी-पतियों के हाथों
अब तो हर त्यौहार देख कर डर लगता है !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम/मौलिक/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना।
1 टिप्पणी:
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति सुरेश जी,होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
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