हारने की क़सम खाई है क्या ?
तो शोक किस बात का है !
जैसा बोया, वही उगेगा भी
बीज महंगे थे , फ़सल और भी
महंगी होगी
दाल-चावल को तरस जाएंगे
क्या तो ओढ़ेंगे , क्या बिछाएंगे
कौन जाने , विकास किसका है
हम जहां थे, वहां से और पिछड़ जाएंगे
और कुछ लोग
हर एक स्वप्न छीन लेंगे हमसे
हम ही नाकारा हैं, क्या किसी से कहें
हमें तो चीखना तक नहीं आता ...
आख़िर ज़िन्दा ही क्यूं हैं हम लोग ?
हक़ न मांगें, तो शिकायत कैसी ?
बेवक़ूफ़ कहीं के !
सरकार सुनती नहीं तो बदल क्यूं नहीं देते ?
नई तहरीर लिखो
मारे तो वैसे भी जाओगे
लड़ कर मरोगे तो जीत जाओ शायद
हार भी जाओ तो कहीं कुछ तो
निज़ाम बदलेगा, बदलना ही होगा
तुम असफल रहे तो पीछे खड़ी है
नई और युवा पीढ़ी !
लड़ो, लड़ो, लड़ते रहो पीढ़ी दर पीढ़ी
हमारा इतिहास विजेताओं का है
भविष्य अलग हुआ भी तो कितना होगा ?
योद्धा हुए बिना विकल्प नहीं है, कॉमरेड !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
तो शोक किस बात का है !
जैसा बोया, वही उगेगा भी
बीज महंगे थे , फ़सल और भी
महंगी होगी
दाल-चावल को तरस जाएंगे
क्या तो ओढ़ेंगे , क्या बिछाएंगे
कौन जाने , विकास किसका है
हम जहां थे, वहां से और पिछड़ जाएंगे
और कुछ लोग
हर एक स्वप्न छीन लेंगे हमसे
हम ही नाकारा हैं, क्या किसी से कहें
हमें तो चीखना तक नहीं आता ...
आख़िर ज़िन्दा ही क्यूं हैं हम लोग ?
हक़ न मांगें, तो शिकायत कैसी ?
बेवक़ूफ़ कहीं के !
सरकार सुनती नहीं तो बदल क्यूं नहीं देते ?
नई तहरीर लिखो
मारे तो वैसे भी जाओगे
लड़ कर मरोगे तो जीत जाओ शायद
हार भी जाओ तो कहीं कुछ तो
निज़ाम बदलेगा, बदलना ही होगा
तुम असफल रहे तो पीछे खड़ी है
नई और युवा पीढ़ी !
लड़ो, लड़ो, लड़ते रहो पीढ़ी दर पीढ़ी
हमारा इतिहास विजेताओं का है
भविष्य अलग हुआ भी तो कितना होगा ?
योद्धा हुए बिना विकल्प नहीं है, कॉमरेड !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम/अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
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