शाम हुई
रोया रमतूला कोरी का
लौटे डंगर
डकराते
उठती है आवाज़ अखाड़े से
आओ ! आओ !
निकले पट्ठे ले कर लंगोट
टकराते गबरू सांड़ों से
दे पीठ
उठा कर पल्लू
दाबा दांतों से लल्ली ने
फिर लेकर हिलोर
थामे गगरे हाथों में
खपरैलों के नीचे
धुंधुआते चूल्हे में
फूंक मारती अम्मां
बहती नाक
आंख में पानी
कंथरी ओढ़े तकते बच्चे
सिंकती रोटी की गोलाई
थूथन उठा-उठा कर
टोह लगाते कुत्ते ...
कैसे थके-थके आते हैं
रेलवई के बाबू
माथे पर टांके
हिसाब के चिह्न
झुकी आंखों के नीचे
काले गड़हे
पांवों में जैसे बांट बंधे हों
मन-मन भर के
और खलासी ?
बेशर्मी से ठी-ठी करते
बहन-मतारी को गरियाते
एक-दूसरे की
पीठों पर धौल जमाते
कभी थकन आती है इनको ?
नई बस्ती के पूत
अजब सुर में गाते हैं
और हांक कर आते हैं हर रात
शाम को भिनसारे के
दरवाज़े तक !
( 1987 )
-सुरेश स्वप्निल
* 'नई बस्ती', उत्तर प्रदेश के झांसी शहर का एक मोहल्ला। कवि का जन्म इसी मोहल्ले में हुआ था।
** अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
रोया रमतूला कोरी का
लौटे डंगर
डकराते
उठती है आवाज़ अखाड़े से
आओ ! आओ !
निकले पट्ठे ले कर लंगोट
टकराते गबरू सांड़ों से
दे पीठ
उठा कर पल्लू
दाबा दांतों से लल्ली ने
फिर लेकर हिलोर
थामे गगरे हाथों में
खपरैलों के नीचे
धुंधुआते चूल्हे में
फूंक मारती अम्मां
बहती नाक
आंख में पानी
कंथरी ओढ़े तकते बच्चे
सिंकती रोटी की गोलाई
थूथन उठा-उठा कर
टोह लगाते कुत्ते ...
कैसे थके-थके आते हैं
रेलवई के बाबू
माथे पर टांके
हिसाब के चिह्न
झुकी आंखों के नीचे
काले गड़हे
पांवों में जैसे बांट बंधे हों
मन-मन भर के
और खलासी ?
बेशर्मी से ठी-ठी करते
बहन-मतारी को गरियाते
एक-दूसरे की
पीठों पर धौल जमाते
कभी थकन आती है इनको ?
नई बस्ती के पूत
अजब सुर में गाते हैं
और हांक कर आते हैं हर रात
शाम को भिनसारे के
दरवाज़े तक !
( 1987 )
-सुरेश स्वप्निल
* 'नई बस्ती', उत्तर प्रदेश के झांसी शहर का एक मोहल्ला। कवि का जन्म इसी मोहल्ले में हुआ था।
** अप्रकाशित/ अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।