ओह ! कितनी सुखी थीं
आकाशगंगाएं
जब अमेरिका नहीं था !
कितने सुखी थे प्रकृति, पृथ्वी
और मनुष्य !
तब
सारा संसार कितनी आसानी से
एकदम सही जगह पर
सम पर आ जाता था !
तब
नीली छतरी में 'ब्लैक होल' नहीं था
ग्लेशियर यूं ही नहीं पिघलते थे
मॉनसून
कुसमय नहीं आते थे
और 'काला हांडी' में भी
चावल पकते थे
और नदियां
अपना रास्ता नहीं बदलती थीं
अचानक और अकारण !
बेशक़, अख़बार भी नहीं थे
उन दिनों
न पहाड़-जैसी मशीनें
न स्मार्ट-फ़ोन
न 'वेपन्स ऑफ़ मॉस डिस्ट्रक्शन'.....
किन्तु, शब्द थे,
स्वप्न थे भरपूर
और ढेर-सारी फ़ुर्सत
अनगिनत स्वप्न देखने की
और थे संकल्प, साहस, ऊर्जाएं
एक-एक स्वप्न को साकार करते
सर्व-सामर्थ्यवान् मानवीय हाथ
तब स्वप्न
एक संस्कार था
और कोई भी आकाशगंगा
नि:स्वप्न नहीं थी।
सचमुच, बेहद सहज-सरल था
सब-कुछ
जब अमेरिका नहीं था !
( 2002 )
-सुरेश स्वप्निल
* पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
आकाशगंगाएं
जब अमेरिका नहीं था !
कितने सुखी थे प्रकृति, पृथ्वी
और मनुष्य !
तब
सारा संसार कितनी आसानी से
एकदम सही जगह पर
सम पर आ जाता था !
तब
नीली छतरी में 'ब्लैक होल' नहीं था
ग्लेशियर यूं ही नहीं पिघलते थे
मॉनसून
कुसमय नहीं आते थे
और 'काला हांडी' में भी
चावल पकते थे
और नदियां
अपना रास्ता नहीं बदलती थीं
अचानक और अकारण !
बेशक़, अख़बार भी नहीं थे
उन दिनों
न पहाड़-जैसी मशीनें
न स्मार्ट-फ़ोन
न 'वेपन्स ऑफ़ मॉस डिस्ट्रक्शन'.....
किन्तु, शब्द थे,
स्वप्न थे भरपूर
और ढेर-सारी फ़ुर्सत
अनगिनत स्वप्न देखने की
और थे संकल्प, साहस, ऊर्जाएं
एक-एक स्वप्न को साकार करते
सर्व-सामर्थ्यवान् मानवीय हाथ
तब स्वप्न
एक संस्कार था
और कोई भी आकाशगंगा
नि:स्वप्न नहीं थी।
सचमुच, बेहद सहज-सरल था
सब-कुछ
जब अमेरिका नहीं था !
( 2002 )
-सुरेश स्वप्निल
* पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/अप्रसारित रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
2 टिप्पणियां:
कोलंबस से जवाब तलब करें!
सुरेन्द्र जे एक बेहतरीन पेशकश | सोंचने का ढंग में अच्छा और कविता भी | बाहुत दिनों बाद कहीं कुछ कहने का मन हुआ |
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