हां , मैं ख़ामोश हूं
अपने झरोखे बैठ कर
सबका मुजरा लेता हुआ
बहुत देर से !
मैं जानता हूं , खल रही है तुम्हें
यह चुप्पी
यह धैर्य, यह संयम
दु:खी कर रही हैं घटनाएं
आस-पास की
और खीझ हो रही है
नेपथ्य में खड़े होने से
किंतु , क्या करे
बिना किसी भूमिका के ?
जब कुछ भी
न सुनिश्चित हो, न सुस्पष्ट
तो क्या बेहतर है
तुम्हारी दृष्टि में
मेरे लिए ?
हां, मैं ख़ामोश हूं
क्योंकि मेरा नहीं है यह रंगमंच
यह रंग-समय भी नहीं है मेरा
बोलूंगा अवश्य
जब ज़रूरत होगी
समय को
जब मिट चुकेंगी सारी दूरियां
तुम्हारे और मेरे बीच की
जब ख़त्म हो जाएगा
वैचारिक ऊसरपन
उस दिन जब मैं बोलूंगा
तब शब्द नहीं
बरसेंगे बीज !
और निभा लो
कुछ दिन
मेरी चुप्पी के साथ !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम रचना। पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/अप्रसारित। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
अपने झरोखे बैठ कर
सबका मुजरा लेता हुआ
बहुत देर से !
मैं जानता हूं , खल रही है तुम्हें
यह चुप्पी
यह धैर्य, यह संयम
दु:खी कर रही हैं घटनाएं
आस-पास की
और खीझ हो रही है
नेपथ्य में खड़े होने से
किंतु , क्या करे
बिना किसी भूमिका के ?
जब कुछ भी
न सुनिश्चित हो, न सुस्पष्ट
तो क्या बेहतर है
तुम्हारी दृष्टि में
मेरे लिए ?
हां, मैं ख़ामोश हूं
क्योंकि मेरा नहीं है यह रंगमंच
यह रंग-समय भी नहीं है मेरा
बोलूंगा अवश्य
जब ज़रूरत होगी
समय को
जब मिट चुकेंगी सारी दूरियां
तुम्हारे और मेरे बीच की
जब ख़त्म हो जाएगा
वैचारिक ऊसरपन
उस दिन जब मैं बोलूंगा
तब शब्द नहीं
बरसेंगे बीज !
और निभा लो
कुछ दिन
मेरी चुप्पी के साथ !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम रचना। पूर्णतः मौलिक/ अप्रकाशित/अप्रसारित। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
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