चलो, एक और कोशिश
करके देखते हैं
ज़िंदा रहने की
इसी दुनिया, इसी देश
और इसी शहर में !
करते हैं कोशिश
अपनी खाने, सोने, पहनने,
पढ़ने-लिखने और बात-बात पर
असंतुष्ट होने की आदत
बदल डालने की
कोशिश करते हैं
दिन पर दिन बढ़ती मंहगाई से
तालमेल बैठाने की
और सब-कुछ को
नियति मान कर चुपचाप
स्वीकार कर लेने की
या
सिर्फ़ एक कोशिश करते हैं
अपनी आवाज़ को
इतना बुलंद बनाने की
कि मनुष्य-विरोधी व्यवस्थाओं के सूत्रधारों के
कान के परदे फटने लगें
हमारे एक-एक शब्द से
दुनिया बदलनी है
तो अपने को बदलने की शुरुआत
करनी ही होगी।
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम/अप्रकाशित/अप्रसारित/मौलिक रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
करके देखते हैं
ज़िंदा रहने की
इसी दुनिया, इसी देश
और इसी शहर में !
करते हैं कोशिश
अपनी खाने, सोने, पहनने,
पढ़ने-लिखने और बात-बात पर
असंतुष्ट होने की आदत
बदल डालने की
कोशिश करते हैं
दिन पर दिन बढ़ती मंहगाई से
तालमेल बैठाने की
और सब-कुछ को
नियति मान कर चुपचाप
स्वीकार कर लेने की
या
सिर्फ़ एक कोशिश करते हैं
अपनी आवाज़ को
इतना बुलंद बनाने की
कि मनुष्य-विरोधी व्यवस्थाओं के सूत्रधारों के
कान के परदे फटने लगें
हमारे एक-एक शब्द से
दुनिया बदलनी है
तो अपने को बदलने की शुरुआत
करनी ही होगी।
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
* नवीनतम/अप्रकाशित/अप्रसारित/मौलिक रचना। प्रकाशन हेतु उपलब्ध।
1 टिप्पणी:
बहुत ही सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति,आभार.
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