क्या करेगा अब किसी का आदमी
नाम है जब बेबसी का आदमी
छल रहे हैं आज सारे इस तरह
हो नहीं पाता किसी का आदमी
चक्रव्यूहों में उलझ कर रास्ता
ढूंढता है वापसी का आदमी
औपचारिकता निभाना शेष है
बिक चुका तो है कभी का आदमी
आत्महत्या की बना कर भूमिका
मुन्तज़िर है ज़िंदगी का आदमी
आदमी के वेश में हैं भेड़िये
हाथ थामे क्या किसी का आदमी ?
( 1975 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल, 1975 एवं अन्यत्र।
नाम है जब बेबसी का आदमी
छल रहे हैं आज सारे इस तरह
हो नहीं पाता किसी का आदमी
चक्रव्यूहों में उलझ कर रास्ता
ढूंढता है वापसी का आदमी
औपचारिकता निभाना शेष है
बिक चुका तो है कभी का आदमी
आत्महत्या की बना कर भूमिका
मुन्तज़िर है ज़िंदगी का आदमी
आदमी के वेश में हैं भेड़िये
हाथ थामे क्या किसी का आदमी ?
( 1975 )
-सुरेश स्वप्निल
* प्रकाशन: दैनिक 'देशबंधु', भोपाल, 1975 एवं अन्यत्र।
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