शहर बढ़ रहा है
सील मछलियों के शिशुओं की तरह
एक-दूसरे को कुचलते-रौंदते
प्रगति और विकास की तूफ़ानी लहरों से
टकरा कर
ढहते और उठते
शहर बढ़ रहा है
सबसे पहले काटे गए जंगल
फिर हुए मैदान समतल
उड़ती गई धीरे-धीरे
वन्य-पशुओं की आदिम गंध
और नवजात मैदानों में
बढ़ती गई ग़ुलामों की आमद
खड़े हुए घास-फूस-मिट्टी के दड़बे
बनने लगीं श्रेष्ठि-वर्ग की
विशाल अट्टालिकाएं
शहर के सबसे सुविधाजनक स्थानों पर
शहर बढ़ रहा है
खुल रहे हैं कारख़ाने
सरकारी कार्यालय
बड़े-बड़े व्यापारिक संस्थान
बाज़ार
सरकारी कर्मचारियों के आवास गृह
खेलों के मैदान
रोटरी , लायंस , जेसीज़ क्लब
सभ्यता और संस्कृति के अजायबघर
सरकारी कला संस्थान
शहर बढ़ रहा है
कम पड़ती जा रही है ज़मीन
चल रहे हैं बुलडोज़र
गिर रही हैं झोपड़ियाँ
खदेड़े जा रहे हैं ग़ुलाम
शहर की सीमाओं से बाहर
नई झोपड़ियों के लिए
मुआवज़ा दे कर।
शहर बढ़ रहा है
शहर के भीतर
बढ़ रहा है सभ्यता का जंगल।
( 1985 )
-सुरेश स्वप्निल
सील मछलियों के शिशुओं की तरह
एक-दूसरे को कुचलते-रौंदते
प्रगति और विकास की तूफ़ानी लहरों से
टकरा कर
ढहते और उठते
शहर बढ़ रहा है
सबसे पहले काटे गए जंगल
फिर हुए मैदान समतल
उड़ती गई धीरे-धीरे
वन्य-पशुओं की आदिम गंध
और नवजात मैदानों में
बढ़ती गई ग़ुलामों की आमद
खड़े हुए घास-फूस-मिट्टी के दड़बे
बनने लगीं श्रेष्ठि-वर्ग की
विशाल अट्टालिकाएं
शहर के सबसे सुविधाजनक स्थानों पर
शहर बढ़ रहा है
खुल रहे हैं कारख़ाने
सरकारी कार्यालय
बड़े-बड़े व्यापारिक संस्थान
बाज़ार
सरकारी कर्मचारियों के आवास गृह
खेलों के मैदान
रोटरी , लायंस , जेसीज़ क्लब
सभ्यता और संस्कृति के अजायबघर
सरकारी कला संस्थान
शहर बढ़ रहा है
कम पड़ती जा रही है ज़मीन
चल रहे हैं बुलडोज़र
गिर रही हैं झोपड़ियाँ
खदेड़े जा रहे हैं ग़ुलाम
शहर की सीमाओं से बाहर
नई झोपड़ियों के लिए
मुआवज़ा दे कर।
शहर बढ़ रहा है
शहर के भीतर
बढ़ रहा है सभ्यता का जंगल।
( 1985 )
-सुरेश स्वप्निल
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