आपदा मेरी नहीं थी
मैंने वे हिमखण्ड नहीं देखे
जो धरती का तापमान बढ़ने पर
पिघल गए
वे पर्वत भी नहीं देखे मैंने
जहां मेघ फटे
और बहा ले गए गांव के गांव
जो लोग अदृश्य हो गए
भागीरथी-अलकनंदा के प्रवाह में
उनमें संभवतः कोई भी
परिचित नहीं था मेरा
मगर मैं क्या करूं
इतने सारे शव
और भय से कांपते मनुष्य,
पशु-पक्षी और पेड़-पौधे देख कर
संभवतः उन्मादी हो गया हूं मैं
कोई तर्क, कोई धारणा मेरे काम नहीं आते
कोई अदृश्य शक्ति मुझे
सांत्वना नहीं दे पाती
कोई ईश्वर तैयार नहीं कारण समझाने को ....
मुझे पता नहीं कि कब तक
नींद नहीं आएगी मुझे
पता नहीं कब तक
वे अपरिचित चेहरे
भय और दुःख में डूबे हुए
रुलाते रहेंगे मुझे
पता नहीं कब
मैं लिख पाऊंगा
नई कविता !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
मैंने वे हिमखण्ड नहीं देखे
जो धरती का तापमान बढ़ने पर
पिघल गए
वे पर्वत भी नहीं देखे मैंने
जहां मेघ फटे
और बहा ले गए गांव के गांव
जो लोग अदृश्य हो गए
भागीरथी-अलकनंदा के प्रवाह में
उनमें संभवतः कोई भी
परिचित नहीं था मेरा
मगर मैं क्या करूं
इतने सारे शव
और भय से कांपते मनुष्य,
पशु-पक्षी और पेड़-पौधे देख कर
संभवतः उन्मादी हो गया हूं मैं
कोई तर्क, कोई धारणा मेरे काम नहीं आते
कोई अदृश्य शक्ति मुझे
सांत्वना नहीं दे पाती
कोई ईश्वर तैयार नहीं कारण समझाने को ....
मुझे पता नहीं कि कब तक
नींद नहीं आएगी मुझे
पता नहीं कब तक
वे अपरिचित चेहरे
भय और दुःख में डूबे हुए
रुलाते रहेंगे मुझे
पता नहीं कब
मैं लिख पाऊंगा
नई कविता !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
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