मैं जब समुद्र था
बहुत-से आकाश थे
मेरे भीतर
अजेय, अपरिमेय
असीम…
स्वयं मेरे अपने विस्तार से
कहीं बहुत अधिक विशाल
अक्सर मेरे मनोबल को
चुनौती देते !
जब मैं सूर्य था
तब
अनगिनत नदियां प्रवाहित थीं
मेरे अंतर्मन की अग्नि को
शांत करती
अपनी शिशु-सहज अठखेलियों से
बहलाती हुई मुझे
मैं जब मनुष्य था
मेरे भीतर
सारे समुद्र थे
सारे आकाश
और सारी नदियां
करोड़ों आकाश-गंगाएं
तरह-तरह की संस्कृतियां
अबूझ, अविस्मरणीय,
एक-दूसरे से जूझते इतिहास
बनती-मिटती सभ्यताएं ....
यह प्रश्न पूछा जा सकता है
सहज ही
कि मैं इतना कुछ होते हुए भी
क्यों कभी बचा नहीं पाया
अपनी अस्मिता....
सम्भवत: , मैं मात्र एक विचार ही था
अविकसित, अपरिपक्व
एक अपूर्ण शरीर
एक भ्रमित मस्तिष्क में
बार-बार सिमटता-फैलता
जन्म लेता और मरता हुआ ....
नहीं, कोई कथा नहीं है मेरी
जिसे कहा-सुना जा सके
अगली बार जब जन्म लूं
प्रयास करूंगा
कि पा सकूं एक नाम
स्पष्ट और सुनिश्चित....!
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
..
बहुत-से आकाश थे
मेरे भीतर
अजेय, अपरिमेय
असीम…
स्वयं मेरे अपने विस्तार से
कहीं बहुत अधिक विशाल
अक्सर मेरे मनोबल को
चुनौती देते !
जब मैं सूर्य था
तब
अनगिनत नदियां प्रवाहित थीं
मेरे अंतर्मन की अग्नि को
शांत करती
अपनी शिशु-सहज अठखेलियों से
बहलाती हुई मुझे
मैं जब मनुष्य था
मेरे भीतर
सारे समुद्र थे
सारे आकाश
और सारी नदियां
करोड़ों आकाश-गंगाएं
तरह-तरह की संस्कृतियां
अबूझ, अविस्मरणीय,
एक-दूसरे से जूझते इतिहास
बनती-मिटती सभ्यताएं ....
यह प्रश्न पूछा जा सकता है
सहज ही
कि मैं इतना कुछ होते हुए भी
क्यों कभी बचा नहीं पाया
अपनी अस्मिता....
सम्भवत: , मैं मात्र एक विचार ही था
अविकसित, अपरिपक्व
एक अपूर्ण शरीर
एक भ्रमित मस्तिष्क में
बार-बार सिमटता-फैलता
जन्म लेता और मरता हुआ ....
नहीं, कोई कथा नहीं है मेरी
जिसे कहा-सुना जा सके
अगली बार जब जन्म लूं
प्रयास करूंगा
कि पा सकूं एक नाम
स्पष्ट और सुनिश्चित....!
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
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