मंगलवार, 19 नवंबर 2013

सात आकाश भी कम...

वह  नृशंस  हत्यारा
जब  भी  खाना  खाने 
बैठता  है
अपने  कारनामों  का  वीडिओ
चला  लेता  है

उसे  अपने  गुर्ग़ों  के
काटो-मारो  के  स्वर
वैदिक  ऋचाओं  जैसे  लगते  हैं
और  वह
अपने-आप  को
देवासुर  संग्राम  का  महानायक
समझने  लगता  है

भय  से  थर-थर  कांपते
अंग-भंग  किए  जाते
ज़िंदा  जलाए  जाते
मनुष्यों  के  आर्त्तनाद
उसकी  भूख  बढ़ा  देते  हैं
और  वह  अपनी  रक्त  की  प्यास  बुझाने
नए  तरीक़े  सोचने  लगता  है …

वह  दिग्विजय  करने  निकला  है
सारे  देश  में
नए  गुर्ग़े  और  नए  शिकार
तलाश  करने…

वह  जहां-जहां  जाता  है
आस-पास  के  सारे  रक्त-पिपासु
इकट्ठे  हो  जाते  हैं
प्रेरणा  लेने

मनुष्यता  के  लिए
सबसे  बड़ा  संकट  है
एक  निर्लज्ज  तानाशाह
सात  आकाश  भी  कम  हैं
उसकी  निर्लज्ज्ता  ढंकने  के  लिए !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल

.

कोई टिप्पणी नहीं: