श्रद्धांजलि : मन्ना दा
बात संभवत: 1977-'78 की है। मैं अपनी रोज़ी-रोटी से निवृत्त हो कर घर लौट कर आ रहा था। रास्ते में अचानक एक मर्म-भेदी चीत्कार जैसे कोई चातक अपने बिछुड़े हुए साथी को पुकार रहा हो, सुनाई पड़ी : 'पिया ssss ओ ओ ओ '… ! मैं जहां था वहीं ठिठक कर रह गया। रेडियो पर एक नया गीत बज रहा था। गीत ख़त्म होने पर ध्यान आया कि मैं बीच सड़क पर खड़ा फूट-फूट कर रो रहा हूं …
कोई अच्छा गीत सुन कर इस तरह रो पड़ना मेरे साथ न तो कोई अजीब बात थी और न नई बात। अक्सर मैं अपनी अम्मां के गीत सुन कर भी रो देता था। लेकिन यह एक अद्भुत संगीत-रचना, एक अद्भुत गायन था। मुखड़ा था 'पिया मैंने क्या किया, मोहे छोड़ के जइयो न', आवाज़ मन्ना दा की थी, यह तो ख़ैर समझ में आ गया किंतु अन्य विवरण मैं नहीं सुन पाया। मन पर इस गीत का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था, घर पहुंच कर सीधे अम्मां की गोद में सर रख कर काफ़ी देर तक सिसकता रहा। अम्मां मेरी आदत से परिचित थीं सो बिना कुछ पूछे मेरे बालों में हाथ फेरती रहीं। ….
लगभग दो-तीन महीने तक वह गीत लाख चाहने पर भी मैं नहीं सुन पाया। एक दिन 'रंग महल थियेटर' के सामने से गुज़रते हुए फ़िल्म 'उस पार' के पोस्टर्स देखे, टिकिट खिड़की ख़ाली पड़ी थी सो आराम से टिकिट ले कर फ़िल्म देखने बैठ गया। यह फ़िल्म 19वीं सदी की एक फ़्रेंच कहानी पर आधारित अत्यंत भावपूर्ण प्रेम-त्रिकोण है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ी, पता नहीं कहां से मन में मन्ना दा का गाया वही गीत बार-बार गूंजने लगा। मध्यांतर में भी वही गीत याद आता रहा…. अंततः, कुछ ही समय बाद फ़िल्म में वह गीत आ ही गया !
जहां तक मेरी व्यक्तिगत रुचि का प्रश्न है, मुझे आज भी मन्ना दा के गाए हुए गीतों में यही सर्वश्रेष्ठ लगता है। वैसे मुझे मन्ना दा के गाए लगभग सभी गीत समान रूप से प्रिय हैं, विशेष रूप से उनके और रफ़ी साहब के साथ में गाए गीत, यथा, 'न तो कारवां की तलाश है' ( फ़िल्म 'बरसात की रात' ), 'वाक़िफ़ हूं ख़ूब इश्क़ के तर्ज़े-बयां से मैं' ( फ़िल्म 'बहू बेगम ), 'एक जानिब है शम्मे-महफ़िल, एक जानिब है रूहे-जाना', आदि-आदि।
यह भी मुझे लगता रहा है कि कम से कम हिंदी फ़िल्म-जगत ने उनके साथ न्याय नहीं किया, अन्यथा मन्ना दा के गाए गीतों की संख्या कई गुना अधिक होती….
आज दिन भर आकाशवाणी और समाचार-चैनल्स पर आप मन्ना दा के गीत सुनते रहेंगे, मैं चाह कर भी और आगे लिखने की मन:स्थिति में नहीं हूं, अतः आप से सम्प्रति क्षमा चाहूंगा। किसी दिन मन्ना दा के गायन पर विस्तार से लिखूंगा, यह वादा रहा !
अलविदा, मन्ना दा !
( 24 अक्टू. 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
.
बात संभवत: 1977-'78 की है। मैं अपनी रोज़ी-रोटी से निवृत्त हो कर घर लौट कर आ रहा था। रास्ते में अचानक एक मर्म-भेदी चीत्कार जैसे कोई चातक अपने बिछुड़े हुए साथी को पुकार रहा हो, सुनाई पड़ी : 'पिया ssss ओ ओ ओ '… ! मैं जहां था वहीं ठिठक कर रह गया। रेडियो पर एक नया गीत बज रहा था। गीत ख़त्म होने पर ध्यान आया कि मैं बीच सड़क पर खड़ा फूट-फूट कर रो रहा हूं …
कोई अच्छा गीत सुन कर इस तरह रो पड़ना मेरे साथ न तो कोई अजीब बात थी और न नई बात। अक्सर मैं अपनी अम्मां के गीत सुन कर भी रो देता था। लेकिन यह एक अद्भुत संगीत-रचना, एक अद्भुत गायन था। मुखड़ा था 'पिया मैंने क्या किया, मोहे छोड़ के जइयो न', आवाज़ मन्ना दा की थी, यह तो ख़ैर समझ में आ गया किंतु अन्य विवरण मैं नहीं सुन पाया। मन पर इस गीत का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था, घर पहुंच कर सीधे अम्मां की गोद में सर रख कर काफ़ी देर तक सिसकता रहा। अम्मां मेरी आदत से परिचित थीं सो बिना कुछ पूछे मेरे बालों में हाथ फेरती रहीं। ….
लगभग दो-तीन महीने तक वह गीत लाख चाहने पर भी मैं नहीं सुन पाया। एक दिन 'रंग महल थियेटर' के सामने से गुज़रते हुए फ़िल्म 'उस पार' के पोस्टर्स देखे, टिकिट खिड़की ख़ाली पड़ी थी सो आराम से टिकिट ले कर फ़िल्म देखने बैठ गया। यह फ़िल्म 19वीं सदी की एक फ़्रेंच कहानी पर आधारित अत्यंत भावपूर्ण प्रेम-त्रिकोण है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ी, पता नहीं कहां से मन में मन्ना दा का गाया वही गीत बार-बार गूंजने लगा। मध्यांतर में भी वही गीत याद आता रहा…. अंततः, कुछ ही समय बाद फ़िल्म में वह गीत आ ही गया !
जहां तक मेरी व्यक्तिगत रुचि का प्रश्न है, मुझे आज भी मन्ना दा के गाए हुए गीतों में यही सर्वश्रेष्ठ लगता है। वैसे मुझे मन्ना दा के गाए लगभग सभी गीत समान रूप से प्रिय हैं, विशेष रूप से उनके और रफ़ी साहब के साथ में गाए गीत, यथा, 'न तो कारवां की तलाश है' ( फ़िल्म 'बरसात की रात' ), 'वाक़िफ़ हूं ख़ूब इश्क़ के तर्ज़े-बयां से मैं' ( फ़िल्म 'बहू बेगम ), 'एक जानिब है शम्मे-महफ़िल, एक जानिब है रूहे-जाना', आदि-आदि।
यह भी मुझे लगता रहा है कि कम से कम हिंदी फ़िल्म-जगत ने उनके साथ न्याय नहीं किया, अन्यथा मन्ना दा के गाए गीतों की संख्या कई गुना अधिक होती….
आज दिन भर आकाशवाणी और समाचार-चैनल्स पर आप मन्ना दा के गीत सुनते रहेंगे, मैं चाह कर भी और आगे लिखने की मन:स्थिति में नहीं हूं, अतः आप से सम्प्रति क्षमा चाहूंगा। किसी दिन मन्ना दा के गायन पर विस्तार से लिखूंगा, यह वादा रहा !
अलविदा, मन्ना दा !
( 24 अक्टू. 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें