रविवार, 3 नवंबर 2013

कैसा यह परिवर्त्तन ?

शोर  उठा  है  इस  नगरी  में  फिर  दीवाली  आई  है
कुछ  दीवाने  चीख़  रहे  हैं  लो  ख़ुशहाली  छाई  है

समय  बांसुरी  मौन  पड़ी  है  देख  टूटती  हर  आशा
कौन  कुबेर  भला  समझेगा  आहत  स्वरलिपि  की  भाषा

विद्युत् -मणियों  की  मालाएं  चूम  रहीं  तारों  के  मुख
माटी  के  दीपक  रोते  हैं  देख-देख  कुटियों  के  दुःख

दरबारों  में  गीत  सुनाते  हैं  चारण  आंखें  मींचे
भूख  भूख  का  आर्त्तनाद  है  विरुदावलियों  के  पीछे

जलें  झोंपड़े  मज़दूरों  के  धरती  मां  के  भाग  जले
लोकतंत्र  यह  कैसा  जिसमें  मजबूरों  पर  आग  चले

बने  सारथी  जो  प्रकाश  के  काले  उनके  भाग  हुए
विश्वासों  के  उजले  मोती  पल  में  जल  कर  राख़  हुए

राजमहल  की  जगमग-जगमग  लूट  रही  सारा  गौरव
और  झोंपड़ी   गुमसुम-गुमसुम  झेल  रही  सारा  रौरव

यह  प्रकाश  का  न्याय  नहीं  है  अंधियारे  का  नर्त्तन  है
हाय ! रौशनी  भूल  गई  सब  कैसा  यह  परिवर्त्तन  है  !

नहीं  नहीं  मत  कहो  रौशनी  यह  पागल  अंधियारा  है
सूरज  के  बेटों  को  इसने  गला  घोंट  कर  मारा  है

सदियों  से  जारी  शोषण  का  बदला  तो  लेना  होगा
अब  बलिदान  ज़रूरी  है  आगे  आ  कर  देना   होगा !

                                                                         ( दीवाली, 1975 )

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

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