लोग सोचते हैं
कि कवि
कोई अन्य ही प्राणी होता है
किसी भिन्न लोक से उतरा हुआ
कि उसे न भूख लगती है
न प्यास
न ही उसे ज़रूरत होती है
काम करने
या पैसा कमाने की
कि वह हर ऋतु में
बना रहता है
एक जैसा !
कि वह परे होता है
हर दुःख-सुख से
शोक में रोता नहीं
न हर्ष में हंसता है
वह तो परमहंस होता है
कि जिसे
दैहिक-दैविक-भौतिक ताप
कभी नहीं व्यापते …
कोई भी मनुष्य
इतना निर्विकार नहीं होता, मित्रों !
कवि भी नहीं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
.
कि कवि
कोई अन्य ही प्राणी होता है
किसी भिन्न लोक से उतरा हुआ
कि उसे न भूख लगती है
न प्यास
न ही उसे ज़रूरत होती है
काम करने
या पैसा कमाने की
कि वह हर ऋतु में
बना रहता है
एक जैसा !
कि वह परे होता है
हर दुःख-सुख से
शोक में रोता नहीं
न हर्ष में हंसता है
वह तो परमहंस होता है
कि जिसे
दैहिक-दैविक-भौतिक ताप
कभी नहीं व्यापते …
कोई भी मनुष्य
इतना निर्विकार नहीं होता, मित्रों !
कवि भी नहीं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
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