बुधवार, 25 सितंबर 2013

सचमुच लोकतंत्र ....

सुना  आपने  ?
कुत्ते  चाहते  हैं सत्ता  हथियाना
वह  भी  भेडियों  के  हाथों  से...

अपने-अपने  भ्रम  हैं,  भाई !
भेडिए  भी सोच  रहे हैं
कि  फिर  आ  जाएंगे  सत्ता  में
भेड-बकरियों और  ख़रगोशों  के  सहारे
अपनी  'कल्याण कारी'  योजनाओं  के  दम  पर

चाहे  जो  हो,
शाकाहारी  पशुओं  को
दो  समय  की  घास  का  वादा  तो
दोनों  ही  कर  रहे  हैं....

लगता  है,  जंगल  में  सचमुच  लोकतंत्र
आ  कर  ही  रहेगा
इस  चुनाव  में  !

कोई  जानना  चाहेगा
कि  मतदाता  पशुओं  के  मन  में
क्या  है  अंतत:  ???

                                                                     ( 2013 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

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रविवार, 22 सितंबर 2013

मनुष्यता का क़ीमा

धर्म, जाति, दलित-सवर्ण,  स्त्री-पुरुष,
अमीर-ग़रीब….

राजनीति  के  क़साई
मनुष्यता  का  क़ीमा  बना  रहे  हैं
आजकल….

चुनाव  आते-आते
वे  इतने  टुकड़ों  में  बांट  चुके  होंगे
मनुष्यता  को
शक्ल  तक  न  पहचान  पाएं
आने  वाली  कई  पीढ़ियां !

अब  मेरी  लाश  को  ही  देखो
मेरा  कुत्ता  तक  असमंजस  में  है
कि  रोए 
या  भौंक-भौंक  कर
आसमान  उठा  ले  सर  पर  !

                                                       ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल


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शनिवार, 21 सितंबर 2013

मेरा समय

उम्र  उड़  रही  है
गर्म  तवे  पर  पड़ी
पानी  की  बूंद  की  तरह

स्वप्न  बदलते  जा  रहे  हैं
अति-कठोर  जीवाश्मों  में
जिन्हें  तोड़  पाना
असम्भव  है  नितांत

समय
इतना  निर्मम  कैसे  हो  सकता  है
किसी  मनुष्य  के  लिए….

मैं  जीना  चाहता  हूं
विशुद्ध  वर्त्तमान  में
जिसमें  शामिल  न  हो
अतीत  या  भविष्य  का  कोई  भी  चिह्न…

मेरा  समय  मुझे  पा  लेने  दो
मेरा  वर्त्तमान  !

                                                      ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल

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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

तुम्हारा दिल नहीं होता ?!

चुनाव  एक  षड्यंत्र  है
सियासत  करने  वालों  का
आम  आदमी  के  विरुद्ध…

एक  युद्ध  है
बे-ईमानों,  मुनाफ़ाखोर  व्यापारियों
रिश्वतख़ोर नौकरशाहों
और  देश-द्रोही  विदेशी  ताक़तों  के  दलालों  के
गठजोड़  की
सम्मिलित  सेनाओं  का
ग़रीब, मेहनतकश, निहत्थी  जनता पर
थोपा  हुआ…

जब  देश  की  अस्सी  प्रतिशत  आबादी
दाने-दाने  को  तरसती  हो
जब  दो-तिहाई  मनुष्यों  के  पास
रहने  को  घर  भी  न  हो
जब देश  की   नब्बे  प्रतिशत  आमदनी
ग़लत  हाथों  में  पहुंच  रही  हो
जब  न्याय 
खुले  आम  ख़रीदा-बेचा  जाता  हो
जब  पुलिस  और  सेनाएं
किसी  भी  जीते-जागते  मनुष्य  को
लाश  में  बदल  देते  हों
जब  हर  ओर  अन्याय  और  अत्याचार  का  ही
राज  हो….

सच  बताओ
क्या  तुम्हारा  दिल  नहीं  होता
कि  आग  लगा  दें
ऐसे  निज़ाम  को  ????

                                                               ( 2013 )

                                                         -सुरेश  स्वप्निल


गुरुवार, 19 सितंबर 2013

अपना मत फेंकते समय ...

सी. आई. ए. तय  करेगी
कौन  होगा  प्रधानमंत्री
'दुनिया  के  सबसे  बड़े  लोकतंत्र'  का

जैसे  किया  था  2004  में
और  2009  में  भी….

हमें  सिर्फ़  मत  फेंकना  है  अपना
बिना  कुछ  सोचे
या  समझे  बिना

इससे  अधिक 
कर  भी  क्या  सकते  हैं  हम
निरे  काठ  के  उल्लू  !

हम  कोई  मिस्र  या  सीरिया  के  नागरिक  हैं
जो  अन्यायी  सरकार  के  ख़िलाफ़
सड़क  पर  उतर  आएं
बिना  अपनी  जान  की  परवाह  किए….

अगली  बार 
अपना  मत  फेंकते  समय
'वॉयस  ऑफ़  अमेरिका'  सुनना
और  सी. एन. एन.  देखना
मत  भूलना  !

                                                         ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

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बुधवार, 18 सितंबर 2013

पूंजीवाद में लोकतंत्र

चलो,  अच्छा  हुआ
सारे  आदमख़ोर 
अपने-अपने  आवरण  उतार  कर
आ  गए  हैं  मैदान  में...

चुनाव  आ  रहे  हैं  न
अभी  अभ्यास  का  समय  है
एक-दूसरे  की  बोटियां  नोंच  लें
फिर  देख  लेंगे
जनता  को  भी….

यही  अर्थ  है
पूंजीवाद  में  लोकतंत्र  का  !

                                           ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

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सोमवार, 16 सितंबर 2013

बबूल मत बोना !

लोग  चुन  लें
विकल्प  हैं  सामने

एक  ओर  शांति  है,  समृद्धि  है
भावी  पीढ़ियों  के  लिए
संभावनाएं  हैं.…
दूसरी  ओर  हिंसा  है, मार-काट  है
असभ्यता  और  बर्बरता  के  जंगल  हैं
पुनः  मनुष्य  से  पशु  बनने  की
शताब्दियों  लम्बी  प्रक्रिया  है….

हमारे  पास  समय  है
दोनों  विकल्पों  के  बारे  में
सोचने-समझने
और  निर्णय  लेने  का

कोई  जल्दी  नहीं  है  अभी
किंतु  एक  भी  ग़लती  पड़  सकती  है
बहुत  भारी
कई-कई  पीढ़ियों  के  लिए

बस  इतना  ही  करना
कि  समय  के  मार्ग  में
बबूल  मत  बोना  !

                                                       ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

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शनिवार, 14 सितंबर 2013

बहुत लम्बी कविता …

शून्य
शून्य
शून्य….

यही  मेरी  नियति  है
मैं  हिंदी  हूं
तुम्हारी  मातृ-भाषा  !

                                        ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 


गुरुवार, 12 सितंबर 2013

आतंक

काफ़ी  समय  बीत  गया
गिद्ध, चील, कौए
कुत्ते, भेड़िए, शेर….
और  तमाम  मांसाहारी  पशु-पक्षियों  को
मनुष्य  का  मांस  खाना  छोड़े  हुए

अब  उन्हें  उल्टी  आती  है
सड़कों  पर  बिखरे
मरे  हुए  मानव-शरीर  और  उनके
कटे-फटे, क्षत-विक्षत  अंग  देख  कर

वे  आतंकित  और  
परेशान  हैं
सब  के  सब…
मनुष्य  के  बदले  हुए
रूप, आदतें  और
व्यवहार  को  देख  कर  !

                                               ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल


बुधवार, 11 सितंबर 2013

हरा देना हमें ...

स्थिति  नियंत्रण  में  है
फ़िलहाल

लोग  केवल  रात  में
मर-मार  रहे  हैं
एक-दूसरे  को
वह  भी  आठ-दस…
औसतन  प्रति-दिन !

लगभग  दस  करोड़  की
जन-संख्या  में  इतनी  मौतें
यूं  भी  हो  ही  जाती  हैं
और  यह  अधिकार  मिलना  चाहिए
लोकतांत्रिक  रूप  से
चुनी  गई  सरकार  को
कि  इस  नाम-मात्र  की  मृत्यु-दर  को
सामान्य  कह  सके….

अब  संविधान  का  तो  ऐसा  है
भाई  जी
कि  जिसकी  लाठी,  उसी  की  भैंस….
क़ानून  भी

चलिए,  मान  लिया  कि
सरकार  असफल  हो  गई  है  हमारी
मगर  अभी  भी
बहुमत  है  हमारे  पास
और  केंद्रीय  सत्ता,  संविधान
और  सर्वोच्च  न्यायालय
सब  हमारे  पक्ष  में  हैं….

हम  कह  रहे  हैं  न
कि  नियंत्रण  में  है  स्थिति
आप  मानें  या  न  मानें

अगले  चुनाव  में  हरा  देना  हमें
यदि  संभव  है,  तो !

                                            ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 


मंगलवार, 10 सितंबर 2013

तीन छोटी कविताएं

               ( एक )

धर्म  भी  पीछा  छोड़  दे…

मैं  अपने  नाम  के  आगे
जाति  का  दुमछल्ला
नहीं  लगाता….

सोच  रहा  हूं
कि  कोई  ऐसा  नाम  रख  लूं
कि  मेरा  धर्म  भी
पीछा  छोड़  दे  मेरा….

               ( दो )

'ज़ेड  प्लस  सुरक्षा'

मैं  ऐसे  भगवान  को
नहीं  मानता
जो  हाथ  में  हथियार  लिए  बिना
घर  से  न  निकले

मैं  ऐसे  किसी  इमाम
या  शंकराचार्य  को  भी  नहीं  मानता
जो  'ज़ेड  प्लस  सुरक्षा'  के  सहारे
धर्म  का  प्रचार  करे

मैं  किसी  ऐसे  धर्म  को
नहीं  मानता
जो  मेरे  पड़ोसी  का  घर
जलाने  की  शिक्षा  दे….

मैं  ऐसे  धर्म  या  राष्ट्र  पर
थूकता  हूं
जो  अपने  ही  देश  में
अपने  ही  नागरिकों  को
सिर्फ़  धर्म  के  आधार  पर
दूसरे  दर्ज़े  का  बना  दे….

मैं  मनुष्य  हूं
मुझे  जीने  दो
एक   मनुष्य  की  तरह  !

                     ( तीन )

धर्म  और  समाज  के  ठेकेदारों  ! 

मुझे  हथियारों  का  डर
मत  दिखाओ
मुझे  मौत  का  भी  डर  नहीं  है…

मुझे  स्वर्ग  का  लालच  मत  दो
मैं  अपनी  मातृ-भूमि  में  ही
ख़ुश  हूं …

मुझे  जन्नत,  हूरों  और  शराब
के  झांसे  भी  मत  दो
मुझे  अपनी  मेहनत  से  कमाई  रोटी
के  सिवा  कुछ  भी  प्यारा  नहीं…

मेरे  सामने  से  हट  जाओ
धर्म  और  समाज  के  ठेकेदारों  !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 




रविवार, 8 सितंबर 2013

धर्म, मात्र एक हथियार है

फिर  सफल  हो  गए  वे
दिलों  के  बीच  दीवार  बनाने  में
फिर रक्त  से  सींच  दिया
बूंद-बूंद  पानी  से  तरसती  धरती  को
फिर बिछा  दी  गईं  लाशें
निर्दोष  मनुष्यों  की
धर्म  के  नाम  पर…

वे  ध्रुवीकरण  चाहते  हैं
तथाकथित  धर्मों  के  नाम  पर
वे  चाहते  हैं  कि  मनुष्य
एक-दूसरे  की  आस्थाओं  को  नकार  दें
वे  सिद्ध  कर  देना  चाहते  हैं
कि  धर्म
मात्र  एक  हथियार  है
मनुष्यों  को  एक-दूसरे  के  विरुद्ध
खड़ा  करने  का
कि  अलग-अलग  धर्म  के  मनुष्यों  का
रक्त  भी  अलग-अलग  होता  है

कि  एक  धर्म  में  पैदा  हुए  मनुष्य
बेहतर  मनुष्य  होते  हैं
दूसरे  या  तीसरे  धर्म  के  मनुष्यों  से…

वे  उस  विचार  को  ही  मिटा  देना  चाहते  हैं
जिसे  सारा  संसार  जानता  है
'भारतीयता'  के  नाम  से

हमें  दुःख  है
बहुत-बहुत  दुःख
आपसे  यह  पूछते  हुए
कि  आप  मनुष्य  हैं
या  हिंदू
या  मुसलमान
या  बौद्ध,  या  सिख ,  ईसाई,  जैन
या  कोई  और ???

आप  मनुष्य  क्यों  नहीं  हैं,  महाशय  ?

                                                      ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल



शनिवार, 7 सितंबर 2013

प्रवचन की दूकान !

आओ  मिल  कर  लूट  मचाएं

अच्छी-ख़ासी  भीड़  लगी  है
अंधे-बहरे-गूंगे-काने
भक्त-जनों  को  मूर्ख  बनाएं
हाथ-सफाई  से  काग़ज़  को  नोट  बनाएं
ताज़े-ताज़े  लड्डू-पेड़े
आस्तीन  को  हिला-डुला  कर
मिट्टी  को  प्रसाद  बना  कर
अपनी  जय-जयकार  कराएं
ज्ञान-तर्क  की  धूल  उड़ा  कर
कीड़ों  को  भगवान  बनाएं

धर्म-ग्रंथ  में  क्या  लिक्खा  है
अच्छे-अच्छे  पढ़े-लिखे  भी  नहीं  जानते
चाहे  जो  भी  गढ़ो  कहानी
कुछ  भी  उल्टा-सीधा  बक  दो
भक्त-जनों  में  अक़्ल  कहां  है ?
तुम  मत  मांगो
लोग  मगर  फिर  भी  दे  देंगे
तुम  बस  उनको  शिष्य  बनाओ
चाहे  जैसी  दीक्षा  बांटो
चाहे  जो  गुरु-मंत्र  बता  दो  …

डायबिटीज़  की  दवा  बता  कर
रसगुल्ले  की  मांग  बढ़ाओ
लौकी-कद्दू  के  नुस्ख़े  से
जम  कर  अपनी  चांदी  काटो
दोनों  हाथों  लूट-लूट  कर
भक्तों  को  कंगाल  बनाओ
दाढ़ी-भगवा-पगड़ी  का  उपयोग  सीख  लो
'वैदिक'  का  बाज़ार  बनाओ
संस्कृति   में  आग  लगाओ…

उफ़ ! यह  इतना  छोटा  जीवन  !
करने  को  है  इतना-सारा
धर्म  और  ईमान  भूल  कर
नोट  कमाओ  ढेर  लगाओ
सात  पुश्त  की  करो  व्यवस्था
यहां-वहां  गुरुकुल  खुलवा  दो
नेताओं  को  शिष्य  बना  कर
क़ानूनों  को  धता  बताओ

कहां  लगे  हो ?
बच्चों  को  बाबा  बनने  के
गुर  सिखलाओ….

अपने  दोनों  लोक  संवारो
सातों  जन्म  सफल  कर  डालो
काम-धाम  सब  छोड़-छाड़  कर
प्रवचन  की  दूकान  चलाओ
नोट  कमाओ
भारत  का  सम्मान  बढ़ाओ  !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 


शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

वोटों के भिखारी

कुछ  लोग  जीवन-भर  भीख  मांगते  हैं
और  स्वीकार  भी  नहीं  करते
उन्हें  न  चोरी  से  परहेज़  होता  है
न  लूट  या  धोखाधड़ी  से
उन्हें  न  देश  की  चिंता
न  अपने  आत्म-सम्मान  की

वे  हर  क़ानून  को  अपनी  जेब  में  रखते  हैं
और  न्याय  को  जब  चाहे  ख़रीद  सकते  हैं
ऊंची  से  ऊंची  क़ीमत  दे  कर…

हां,  ईश्वर  से  उन्हें   बहुत  डर  लगता  है
और  उससे  भी  अधिक  उसके  दलालों  से
कम  से  कम  दिखाने  के  लिए

वे  दरअसल  ईश्वर  और  उसके  दलालों  की
वोट  खींचने  की  क्षमता  पहचानते  हैं

वे  चुनाव  लड़ते  हैं
और  जीत  कर
संसद  और  विधानसभाओं  में  बैठ  कर
मूंग  दलते  हैं
देश  की  छाती  पर  !

वे  फिर  आने  वाले  हैं
तुम्हारे  घर
वोटों  की  भीख  मांगने
ताकि  वह  सब  कुछ  लूट  लें
जो  अभी  तक  बचा  हुआ  है  तुम्हारे  पास !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 



गुरुवार, 5 सितंबर 2013

आप हत्यारे हैं !

सच-सच  बतलाइए
आप  उस  समय  कहां  थे
जब  कल  भीड़  एक  निर्दोष  को
बीच  सड़क  पर
लाठियों  से  पीट  कर
जान  ले  रही  थी  उसकी…

मुझे  मालूम  है  कि  आप  कहेंगे
'पुलिस  भी  तो  थी  वहां  पर  !'
आपने  क्या  किया  लेकिन  ?
पुलिस  को  याद  दिलाया  उसका  कर्त्तव्य  ?
जानना  चाहा  भीड़  से
उस  मरते  हुए  मनुष्य  का  दोष  ?
आंखें  गीली  हुईं  आपकी
मरते  हुए  मनुष्य  को  तड़पता  देख  कर
कुछ  तो  किया  होगा  आपने  !

याद  कीजिए
क्या  किया  सोच  रहे  थे  उस  समय  ?

मैं  बताऊँ  आप  क्या  कर  रहे  थे  ?
आप  मज़े  ले  रहे  थे  आंखें  फाड़-फाड़  कर !
मृत्यु  को  अपनी  सामने  घटित  होने  का
आनंद  उठा  रहे  थे  !

वह  जो  मरता  हुआ  मनुष्य  था
आप  परिचित  भी  थे  उससे  शायद
शहर  में  यहां-वहां  आते-जाते
दुआ-सलाम  भी  की  होगी  अक्सर
संभव  है  कहीं  कुछ  भावनाएं  भी  जुड़ी  रही  हों  आपकी

तो  भी  आप  मौन  रहे
आपने  सिर्फ़  आनंद  लिया
एक  जीवित  मनुष्य  को
मृत  शरीर  में  बदलते  देखने  का …

कल  यही  भीड़  आपको  घेर  ले
कल  आपका  छोटा  भाई
या  आपकी  संतान  या  आपके  माता-पिता
भीड़  के  हाथ  चढ़  गए  तो ???

आख़िर  किससे  मदद  मांगेंगे  आप  ?

नहीं,  न्याय  की  बात  मत  कीजिए
मत  दीजिए  दोष  पुलिस  को
पल-पल  नष्ट  होते  सामाजिक  मूल्यों  को

अपनी  आत्मा  को  छू  कर  देखिए
आप  हत्यारे  हैं  महाशय
स्वयं  अपने  ही  विवेक  के  !

                                                       ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल

*झारखण्ड में एक छात्र-नेता की बीच  सड़क पर लाठियों से पीट-पीट कर की गई हत्या पर…



बुधवार, 4 सितंबर 2013

मूर्ख हैं हम और आप

कोई  प्रतिरोध  नहीं
कोई  प्रतिकार  नहीं
कहीं  कोई  विरोध  का  स्वर  नहीं

यदि  यही  रवैया  रहा  जनता  का
यदि  ऐसे  ही  चलती  रहीं  सरकारें
यदि  ऐसे  ही  बढ़ती  रही  मंहगाई
और  बेरोज़गारी
तो  इत्मीनान  रखिए
कोई  नहीं  बचा  सकता  देश  को
उसकी  स्वतंत्रता, संप्रभुता, एकता
और  अखंडता  को….

सरकारें  चाहती  हैं
सब  कुछ  चलता  रहे  यों  ही
सब  कुछ  सहती  रहे  जनता….

मूर्ख  हैं  हम  और  आप
या  कायर
कि  होने  दें  सरकार  की  सारी  इच्छाएं  पूरी ???

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

 

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

बदल जाएंगे भूगोल !

फिर  रक्त-पिपासा  बढ़  गई
आदम ख़ोरों  की
फिर  ढूंढ  लिए  गए  निरीह,  बेबस  मनुष्य
नवीनतम  हथियारों  के  परीक्षण  के  लिए
गढ़  लिए  गए  नए  बहाने
शक्ति-प्रदर्शन  के  लिए
फिर  तलाश  लिए  गए
नए  तेल-क्षेत्र 
मुनाफ़ाखोर ख़ोर  व्यापारियों  की  मंशा  के  अनुरूप

दिल्ली  से  दमिश्क  तक
दलालों  के  तथा-कथित  समर्थन  के  दम  पर
कब  तक  सहेंगे  दुनिया  के  ग़रीब  लोग
सुनियोजित,  सु-संगठित   'मानवता  के  रक्षकों'  के  आतंक  ?
 दुखद  समाचार  है  वॉशिंगटन  के  लिए
मौत  की  पूर्व-सूचना  है
अमेरिका  के  चारण-भांडों  के  लिए
कि  इतना  आसान  नहीं  होगा  अब
झूठ  के  दम  पर  किसी  अन्य  ईराक़  को  गढ़ना
इतना  आसान   नहीं  होगा
तेल  के  भावों  को  मनमर्ज़ी  से
चढ़ाना-गिराना….

अबकी  बार 
सिर्फ़  अर्थ-व्यवस्था  ही  नहीं  बदलेगी
बदल  जाएंगे  भूगोल
दिल्ली  से  दमिश्क  तक  !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

*





सोमवार, 2 सितंबर 2013

बचो अमेरिकी चालों से, मूर्खों !

संसार  का  ठेका  ले  रखा  है
अमेरिका  ने  !

सीरिया  में  किसने  क्या  खाया
तुर्की  में  किसने  क्या  पिया
सऊदी  अरब  में  किसको  छींक  आई
भारत  ने  किससे  क्या  ख़रीदा
सब  का  हिसाब  चाहिए  अंकल  सैम  को…

आख़िर  किसने  बनाया  चौधरी  अमेरिका  को
सारी  दुनिया  का ?

अब  भी  समय  है
अपने-आप  को  स्वतंत्र,  स्वायत्त,  संप्रभु  देश
मानने  वाले
प्रबंध  कर  लें  अपनी  आज़ादी  बचाने  का

बचो,  अमेरिकी  चालों  से
मूर्खों  !

                                                                  ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 




रविवार, 1 सितंबर 2013

डर नहीं लगता आपको ?

आपको  डर  नहीं  लगता
तरह-तरह  की  दाढ़ी  वाले
बाबा,  संत,  महंतों  और  मौलानाओं  से

क्या  आपको  डर  नहीं  लगता
गाँधी-टोपी,  काली  टोपी  या   लाल
या  किसी  अन्य  रंग  की  टोपी  वाले
नेताओं  और  उनके  समर्थकों  से

क्या  लाल, पीली, नीली  बत्तियों  वाली
गाड़ियों  से  भी
डर  नहीं  लगता  आपको ????

यदि  सचमुच  आपको
इन  तरह-तरह  की  पहचान  वाले
अधि-मानवों  से  डर  नहीं  लगता
तो  वाक़ई  आप  बहादुर  भारतीय  हैं …

                                                    ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल