बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

अति-नायक के हाथ सत्ता

कोई  नहीं  जानता
कि  क्या  है
अति-नायक  के  मन  में
जैसे  लोग
नहीं  जानते  कि
कब-किस  करवट  बैठ  जाए
ऊंट  !

जैसे  कोई  नहीं  जानता
कि  पागल  कुत्ता
किसको  काटेगा  अंतत:

कोई  यह  भी  नहीं  जानता
कि  तक्षक  सांप
किस  कोने  में  छिपा  बैठा  है
और  कब  हमला  कर  देगा
किसान  के  शरीर  पर....

शेर,  भालू ,  मगरमच्छ
और  शार्क  के  इरादों  को  भी
नहीं  जानता  कोई  भी....

अति-नायक   कम  नहीं  है
किसी  भी  हिंसक  पशु  से
मौक़ा  मिलते  ही
किस  पर  टूटेगा  उसका  क़हर
यह  न  आप  जानते  हैं
न  हम …

कुछ  लोग  फिर  भी
चाहते  हैं
अति-नायक  के  हाथ  में
सत्ता  सौंपना 

जिसकी  मति  मारी  गई  हो
कौन  समझा  सकता  है
भला  उसे ?

हमने  तय  किया  है
कि  हम  नहीं  होंगे
किसी  भी  अति-नायक  के  समर्थन  में …

आप  भी  तय  कर  ही  लें
अपने  बारे  में !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

श्रद्धांजलि: श्री राजेंद्र यादव

कल रात लगभग 12 बजे 'हंस' के संपादक और प्रसिद्ध कहानीकार एवं विचारक, हिंदी साहित्य से सवर्ण इजारेदारी ख़त्म करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अजेय योद्धा श्री राजेन्द्र यादव संसार से विदा हो गए !
मैं दुःखी हूं कि उन्हें लेकर जो ताज़ा विवाद उठा, उसमें मैं उनके विरोध में खड़ा रहा। वे मुझे कब और कैसे जानते थे, यह मैं उनसे कभी पूछ नहीं पाया। अनेक बार साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यक्रमों में उनसे मेरा सामना होता रहा किंतु मेरे और उनके बीच सम्बंध नमस्कार-प्रति नमस्कार से आगे नहीं बढ़ पाया। उसका एक कारण यह रहा कि मैं इतना महत्वाकांक्षी कभी रहा ही नहीं कि 'हंस' में रचना प्रकाशित करवा कर चर्चित होना चाहूं। 1982 में 'हंस' का पुनर्प्रकाशन करने के पूर्व जो पत्र मुझे लिखा था, वह अभी भी सुरक्षित है मेरे पास। यही वह समय था जब मैं सृजनात्मक रूप से सर्वाधिक सक्रिय हुआ करता था तथा 'हंस' से एक रचनाकार के रूप में जुड़ कर मैं अपने 'कैरिअर' को बहुत आगे बढ़ा सकता था।
अस्तु। मेरे और राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में कभी कोई ऐसी समानता मुझे नज़र नहीं आई कि मैं उनके पास जाने की इच्छा कर पाता, यद्यपि, मैं जानता था कि मेरे आगे बढ़ते ही वे मुझे गले से लगा लेते, ठीक वैसे ही जैसे कि उन्होंने मेरे समकालीन अनेक कहानीकारों-कवियों को लगाया।
मैं वास्तव में बेहद हैरान हूं कि मैंने सुबह से अभी तक उन रचनाकार-मित्रों की ओर से राजेन्द्र जी के निधन पर श्रद्धांजलि-स्वरूप एक भी शब्द न सुना, न पढ़ा जिनका साहित्य में जन्म ही राजेन्द्र जी और 'हंस' के माध्यम से हुआ… कृतघ्नता की सीमा यदि यह नहीं तो और क्या हो सकती है ? जिन्हें  अपने साहित्यिक व्यक्तित्व के लिए राजेन्द्र जी का आपादमस्तक, आजीवन  ऋणी होना चाहिए, जिनके वे न केवल साहित्यिक बल्कि आध्यात्मिक गुरु भी थे, वे ऐसे चुप हैं जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं !
बहरहाल, हिंदी साहित्य सदैव राजेन्द्र जी का ऋणी रहेगा भले ही उन्हें चाहे जितना नकारा जाए !
अलविदा, राजेन्द्र जी।

  ( 29/10/2013 )
                                                                                                                                 
-सुरेश  स्वप्निल

दूर रहें हमारे शहर से !

शेरों  को  हक़  नहीं
कि  वे 
खुले  आम  घूमें  शहर  में

उनकी  सत्ता  सीमित  है
अपने  वन  तक
वहीं  रहें
उन्हीं  का  शिकार  करें
जो  रियाया  है  उनकी !

वैसे  भी 
डरता  कौन  है  शहर  में
जंगली  सूअरों  और  शेरों  से
चाहे  वे  गीर  से  आएं
चाहे  कान्हाकिसली  से  !

शेरों  से  गुज़ारिश  है
कि  यहां-वहां  न  घूमें
खुले  आम  शहर  में
एक  चेतावनी  भी  है
कि  शहर  के  बच्चे
बहुत  शैतान  हो  गए  हैं
आजकल
उन्हें  शौक़  लग  चुका  है
शेरों  के  गले  में
पट्टा  डाल  कर
कुत्तों  की  तरह  घुमाने
और  बंदर  की  तरह  नचाने  का !

अपनी  सत्ता  और  सम्मान  प्यारे  हैं
तो  दूर  रहें  हमारे  शहर  से
सारे  हिंस्र, वन्य  पशु  !

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

तैयारी के बिना ...

मौसम  बदल  रहा  है
बहुत  तेज़ी  से
गर्म  कपड़े  सहेज  कर
रखे  हैं  या  नहीं  ?

कोई  भरोसा  नहीं  इस  बार
कि  मौसम 
कहां  तक  दिखाएगा  अपने  तेवर…
कोशिश  करो  कि  स्वस्थ  रह  सको
इस  बार

चेताना  ज़रूरी  है
क्यूंकि  राजनीति  से  अछूता  नहीं  अब
जीवन  का  कोई  भी  पक्ष
यहां  तक  कि  मौसम  भी
और  जीवनोपयोगी  वस्तुओं  के  भाव  भी

सरकार  की  नीयत  का  भी  तो
कोई  भरोसा  नहीं
और  न  ही  विपक्ष  की
रणनीति  का  !

तैयारी  के  बिना
अब  जीवन  का  भी
क्या  भरोसा  ?

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

नमो-नमो ????

चुनाव  आते  हैं  हमेशा
एक  दुर्भाग्य  की  तरह
और  साथ  ले  आते  हैं  अपने
चोर-लुटेरों  के  नए  गिरोह  !

संविधान  तो  कहता  है
कि  जन-प्रतिनिधि
सेवक  होते  हैं  जनता  के …

क्या  आपने  कभी  देखा  है
कि  आपके  चुने  हुए  प्रतिनिधि
पूछने  आए  हों  आपसे
आपके  दुःख-दर्द
चुनाव  के  बाद ?

क्या  महसूस  किया  है  आपने
कि  कभी  कम  हुई  हों
दैनिक  उपभोग  के  सामान
और  सेवाओं  की  क़ीमतें
नई  सरकार  आने  के  बाद ?

और  उन्हें
आप  कब  सीखेंगे
जन-प्रतिनिधियों  से  हिसाब  मांगना
और  कब  छोड़ेंगे
उन्हें 
देवता  मान  कर  पूजना ??

और  क्या  है  यह  मूर्खता
नमो-नमो,  नमो-नमो ????

                                                     (2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

श्रद्धांजलि : मन्ना दा

                          श्रद्धांजलि : मन्ना  दा

बात संभवत: 1977-'78 की है। मैं अपनी रोज़ी-रोटी से निवृत्त हो कर घर लौट कर आ रहा था। रास्ते में अचानक एक मर्म-भेदी चीत्कार जैसे कोई चातक अपने बिछुड़े हुए साथी को पुकार रहा हो, सुनाई पड़ी : 'पिया ssss ओ ओ ओ '… ! मैं जहां था वहीं ठिठक कर रह गया। रेडियो पर एक नया गीत बज रहा था। गीत ख़त्म होने पर ध्यान आया कि मैं बीच सड़क पर खड़ा फूट-फूट कर रो रहा हूं …
कोई अच्छा गीत सुन कर इस तरह रो पड़ना मेरे साथ न तो कोई अजीब बात थी और न नई बात। अक्सर मैं अपनी अम्मां के गीत सुन कर भी रो देता था। लेकिन यह एक अद्भुत संगीत-रचना, एक अद्भुत गायन था। मुखड़ा था 'पिया मैंने क्या किया, मोहे छोड़ के जइयो न', आवाज़ मन्ना दा की थी, यह तो ख़ैर समझ में आ गया किंतु अन्य विवरण मैं नहीं सुन पाया। मन पर इस गीत का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था, घर पहुंच कर सीधे अम्मां की गोद में सर रख कर काफ़ी देर तक सिसकता रहा। अम्मां मेरी आदत से परिचित थीं सो बिना कुछ पूछे मेरे बालों  में हाथ फेरती रहीं। ….
लगभग दो-तीन महीने तक वह गीत लाख चाहने पर भी मैं नहीं सुन पाया। एक दिन 'रंग महल थियेटर' के सामने से गुज़रते हुए फ़िल्म 'उस पार' के पोस्टर्स देखे, टिकिट खिड़की ख़ाली पड़ी थी सो आराम से टिकिट ले कर फ़िल्म देखने बैठ गया। यह फ़िल्म 19वीं सदी की एक फ़्रेंच कहानी पर आधारित अत्यंत भावपूर्ण प्रेम-त्रिकोण है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ी, पता नहीं कहां से मन में मन्ना दा का गाया वही गीत बार-बार गूंजने लगा। मध्यांतर में भी वही गीत याद आता रहा…. अंततः, कुछ ही समय बाद फ़िल्म में वह गीत आ ही गया !
जहां तक मेरी व्यक्तिगत रुचि का प्रश्न है, मुझे आज भी मन्ना दा के गाए हुए गीतों में यही सर्वश्रेष्ठ लगता है। वैसे मुझे मन्ना दा के गाए लगभग सभी गीत समान रूप से प्रिय हैं, विशेष रूप से उनके और रफ़ी साहब के साथ में गाए गीत, यथा, 'न तो कारवां की तलाश है' ( फ़िल्म 'बरसात की रात' ), 'वाक़िफ़ हूं ख़ूब इश्क़ के तर्ज़े-बयां से मैं' ( फ़िल्म 'बहू बेगम ), 'एक जानिब है शम्मे-महफ़िल, एक जानिब है रूहे-जाना', आदि-आदि।
यह भी मुझे लगता रहा है कि कम से कम हिंदी फ़िल्म-जगत ने उनके साथ न्याय नहीं किया, अन्यथा मन्ना दा के गाए गीतों की संख्या कई गुना अधिक होती….
आज दिन भर आकाशवाणी और समाचार-चैनल्स पर आप मन्ना दा के गीत सुनते रहेंगे, मैं चाह कर भी और आगे लिखने की मन:स्थिति में नहीं हूं, अतः आप से सम्प्रति क्षमा चाहूंगा। किसी दिन मन्ना दा के गायन पर विस्तार से लिखूंगा, यह वादा रहा !

अलविदा, मन्ना दा !

                                                                                                                       ( 24 अक्टू. 2013 )

                                                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

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बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

समय विपरीत हो तो पुलिस ...

'देश-भक्ति,  जनसेवा'
अच्छा  लगता  है  न
पढ़  कर,  सुन  कर…

और  देख  कर ???

रोंगटे  खड़े  हो  जाते  हैं
जब  कोई  लहीम-शहीम  लठैत
खड़ा  हो  जाता  है
आंखों  के  सामने !

सच  बताइए, 
डर  नहीं  लगता  क्या  आपको
पुलिस  के  नाम  से ?

बच्चा-बच्चा  जानता  है
कि  पुलिस  क्या  होती  है

पुलिस  यानी  डंडा
पुलिस  यानी  बंदूक
यानी  मशीन गन
यानी  'वॉटर कैनन'….

पुलिस  यानी  सरकार  का
सबसे  विश्वस्त  अनुचर
आम  आदमी  के  विरुद्ध…

भारत  में  सुरक्षित  रहना  है  तो
पुलिस  के  हत्थे  मत  चढ़ना  कभी !

समय  विपरीत  हो
तो  पुलिस 
ख़ुद  अपने  बाप  की  भी  नहीं  होती !

                                                           ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

व्यर्थ आशाएं ...

कुछ  आशाएं 
एकदम  व्यर्थ  होती  हैं
जैसे  राजनीति  में  आ  कर  भी
साफ़-सुथरे  बने  रहना…

जैसे  काजल  की  कोठरी  में
जा  कर
श्वेत  वस्त्र  काले  किए  बिना
लौट  पाना

जैसे  विकास  की  गति  बढ़ा  कर
मंहगाई  को
नियंत्रण  में  रख  पाना
और  समाज  के  सभी  वर्गों  से
न्याय  कर  पाना

जैसे  गुरुग्रंथ  साहिब  के  उपदेशों  को
ठीक  से  समझ  कर  भी
पूंजीवादी  बने  रहना  !

                                                        ( 2013 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

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रविवार, 20 अक्टूबर 2013

असमानता का लोकतंत्र

जब  कुत्तों  की  सरकार  हो
तो  कौन  रोकेगा
भेड़ियों  को  शिकार  से ?

असमानता  का  लोकतंत्र
ऐसे  ही  चलता  आया  है
ऐसे  ही  चलेगा
आगे  भी

लेकिन  बहुत  देर  तक
नहीं  चल  सकता  ऐसे

एक  ही  मार्ग  है
जंगल  में  लोकतंत्र  बचाने  का
कि  सारे  हिंस्र  पशुओं  के
नख-दन्त  तोड़  दिए  जाएं…

जीवित  रहना  है
तो  उठाने  ही  होंगे
सारे  ख़तरे !

                                              ( 2013 )
                                     -सुरेश  स्वप्निल

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न्याय की मांग

क़िले  के  अवशेषों  में
भटकती  हैं  आत्माएं
युध्द  में  मारे  गए  सैनिकों  की …

वे  शत्रुओं  के  वंशजों  के  साथ-साथ
अपने  ही  राजा  के  वंशजों  को  भी
ढूंढ  रही  हैं
कोई  दो-तीन  सौ  वर्ष  से

वे  आत्माएं 
न्याय  चाहती  हैं  अपने  वंशजों  के  लिए
अपने  राजा  के  वंशजों  से
और  क्षमा  चाहती  हैं
उन  शत्रुओं  के  वंशजों  से
जो  मारे  गए  थे
उनके  हाथों …

शरीर  की  मृत्यु  के  साथ  ही
जीवित  हो  उठती  है
मनुष्य  की  प्रज्ञा
प्रकट  हो  जाते  हैं  सारे  रहस्य
सत्य-असत्य 
और  उचित-अनुचित  के  भेद…

शरीर  की  मृत्यु  का  अर्थ
न्याय  और  अन्याय  के  बीच 
अंतर  की  मृत्यु
नहीं  होता
और  न  ही  अपराध  और  दण्ड  के
प्रतिमान  मर  जाते  हैं

दण्ड  तो  भोगना  ही  होगा
यदि  अपराधी  नहीं
तो  उसकी  तमाम  पीढ़ियों  को
अपराध  के  अंतिम  चिह्न
नष्ट  होने  तक….

मैं  जानता  हूं  कि   मुझे
'प्रतिक्रिया वादी',  'संशोधन वादी'
'भाग्य वादी'  ….
और  पता  नहीं  किन-किन  नामों  से
पुकारा  जाएगा 
हो  सकता  है  कि  मुझे
'पक्ष-द्रोही',  'वर्ग-द्रोही'
या  'धर्म-द्रोही',  'देश-द्रोही'  भी
मान  लिया  जाए ….

क्या  मृत्यु  का  भय
इतना  बड़ा  है
कि  मनुष्य 
न्याय  की  मांग  छोड़  दे… ?

क्या  शताब्दियां  बीतने  से
ख़त्म  हो  जाते  हैं
अपराध ????

                                            ( 2013 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

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शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

ज़िम्मेदार मीडिया ?!

एक  साधु  स्वप्न  देखता  है
कि  अमुक  मस्जिद  के  नीचे
अवशेष  हैं  किसी  मंदिर  के

और  भक्त-जन
ईंट  से  ईंट  बजा  देते  हैं  मस्जिद  की

फिर  एक  और  साधु  स्वप्न  देखता  है
कि  ध्वस्त  मस्जिद  के  प्रांगण  में
अवशेष  हैं 
कल्पित  मंदिर  के  64  स्तंभों  के

और  राजा 
ध्वस्त  मस्जिद के  प्रांगण  में
स्वप्न  के  आधार  पर
64  गड्ढे  खुदवा  देता  है  …

एक  और  साधु  स्वप्न  देखता  है
किसी  क़िले  के  परिसर  में
गड़े  हुए  1000  टन  सोने  का

और  सरकार  के  ज़िम्मेदार  विभाग
खोदना  शुरू  कर  देते  हैं
चिह्नित  स्थान  पर  …!

आज  मुझे  स्वप्न  आया  है
कि  संसद  भवन  से  राष्ट्रपति  भवन  तक
भूमि  के  नीचे
अवस्थित  है  50000  टन  हीरे  की  चट्टान  ….

अब  राजा  क्या  करेगा
सरकार  के  ज़िम्मेदार  विभाग  क्या  करेंगे
और  क्या  करेगा
देश  का  ज़िम्मेदार  मीडिया ?!!!

                                                                                   ( 2013 )

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

मनुष्य इतना निर्विकार ...!

लोग  सोचते  हैं
कि  कवि
कोई  अन्य  ही  प्राणी  होता  है
किसी  भिन्न  लोक  से  उतरा  हुआ

कि  उसे  न  भूख  लगती  है
न  प्यास
न  ही  उसे  ज़रूरत  होती  है
काम  करने 
या  पैसा  कमाने  की

कि  वह  हर  ऋतु  में
बना  रहता  है
एक  जैसा !

कि  वह  परे  होता  है
हर  दुःख-सुख  से
शोक  में  रोता  नहीं
न  हर्ष  में  हंसता  है

वह  तो  परमहंस  होता  है
कि  जिसे
दैहिक-दैविक-भौतिक  ताप
कभी  नहीं  व्यापते …

कोई  भी  मनुष्य
इतना  निर्विकार  नहीं  होता,  मित्रों !
कवि  भी  नहीं  !

                                                    ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

मात्र एक श्रद्धांजलि...!

अम्मां बताती  थीं  कि  कैसे
दौड़ते  हुए
चढ़  जाती  थीं  वे
रतनगढ़  मंदिर  की  सीढ़ियां
और  किस-किस  से  सीखे
उन्होंने  माता  के  भजन
उन्हीं  सीढ़ियों  पर  बैठ   कर
किसने  सिखाया  उन्हें
मैया  जी  की  भेंट  गाना

इसी  रतनगढ़  मंदिर  की  देन  तो  था
अम्मां  का  संगीत !

नहीं,  कोई  दोष  नहीं
मरने  वालों  का
और  न  माता  रानी  का
वे  तो  देने  वाली  हैं  सभी  को
मनचाहे  वरदान….

कल  जब  रतनगढ़  मंदिर  की  सीढ़ियों  पर
गिनी  जा  रही  थीं  लाशें
जब  सिंध-जैसी  नाले नुमां  नदी  में
बहती  देखी  गईं
बच्चे-बूढ़े  और  स्त्रियों  की  लाशें
मुझे  बहुत  याद  आई  अम्मां
और  'रतनगढ़'  वाली  मैया  की
बचपन  में  सुनी  कहानियां  ….
और  आल्हा-ऊदल  के
मुंह  में  ढाल-तलवार  दाब  कर
बाढ़  में  तैरने  के  क़िस्से  !

मैं  जानता  हूं  कि  इस  दुर्घटना  से
मेरा  या  मेरे  परिवार  का
कोई  लेना-देना  नहीं
कि  मेरी  अम्मां  को  गए
बीत  चुके  हैं  न  जाने  कितने  बरस
कि  हम  भाई-बहनों  ने
रास्ता  भी  नहीं  देखा
'रतनगढ़  वाली  माता'  के  मन्दिर  का ....

लेकिन  मैं  कैसे  भूलूं  कि
इन्हीं  माता  रानी  की  देन  थीं
मेरी  अम्मां
और  इन्हीं  के  नाम  पर
रखा  गया  था  अम्मां  का  नाम
किसी  मन्दिर  से  मिला  था  उन्हें  संगीत 
कि  इस  मन्दिर  के  प्रांगण  से
अभी  भी  नज़र  आता  है
मेरा  ननिहाल .....

गांव-रिश्ते  से
मरने  वाले  सब  के  सब  
रिश्ते में  आते  थे  मेरे.....

यह  कोई  कविता  नहीं  है
क्षमा  कीजिए  पाठक-गण....
यह मात्र  एक  श्रद्धांजलि  है 
एक  कवि  की
अपने  अनाम  रिश्तेदारों  के  नाम  !



शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

स्मृति का एक सिरा ...

सिर्फ़  एक  ही  तार  तो  टूटा  है
वायलिन  का
और  देखो,
सारे  स्वर  बिखर  गए
अनियंत्रित  हो  कर….

कभी-कभी  कितनी  महत्वपूर्ण
हो  जाती  हैं
न-कुछ  सी,  छोटी-छोटी  चीज़ें
जैसे  बिटिया  का  दिया  हुआ  रूमाल
और  उसमें  बसी  नर्म-नाज़ुक  ख़ुश्बू 
15-20  वर्ष  बाद  भी 
आ  ही  जाते  हैं  याद ...
जैसे  सर्दी  आते  ही  चुभने  लगते  हैं
स्मृतियों  में
माँ  के  बुने  हुए  स्वेटर
और  मफ़लर  ….

सिर्फ़्  एक  ही  तार
टूटा  था  वायलिन  का
मगर  याद  में  गूंजने  लगे  हैं
पिता  की  पसंद  के   
सैकड़ों  राग  ….

क्या  स्मृति  का  केवल  एक  सिरा
हाथ  में  आने  से
उथल-पुथल  हो  सकता  है
सारा  संसार  ?

लगता  तो  ऐसा  ही  है  !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

...तो अभिशप्त हैं आप !

आप  षड्यंत्रों  का  प्रतिकार  कैसे  करते  हैं ?
ख़ास  तौर  पर  वे
जो  सीधे  आपके
आपके  घर-परिवार
आपके  वर्ग,  आपकी  जाति,
आपका  समाज
या  देश  के  विरुद्ध  हों ?

आप  शायद  आवाज़  उठाते  हों
जोर-जोर  से
या  बुलाते  हों  अपने  साथियों,
समूहों   को  मदद  के  लिए
या  सिर्फ  प्रतीक्षा  करते  रह  जाते  हों
अगले  चुनाव  की….

हो  तो  यह  भी  सकता  है
कि  आप  कुछ  न   करते  हों
सह  जाते  हों
सारी   पीड़ा,  सारा  अपमान
चुप  रह  कर
और  अपने  बच्चों  को  भी
यही  शिक्षा  देते  हों
कि  सब-कुछ
नियति  का  खेल  है
भगवान  की  इच्छा…

अगर  ऐसा  है
तो  अभिशप्त  हैं  आप
कई-कई  पीढ़ियों  का  भविष्य
बर्बाद  करने  के  लिए !

                                           ( 2013 )

                                    - सुरेश  स्वप्निल

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गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

कच्चे सूत पर मलखंभ !

कभी  देखे  हैं  आपने
कच्चे  सूत  पर  गुलांट  लगाने  वाले
बूढ़े-अधबूढ़े  बन्दर
भारत  के  बाहर
वह  भी  दस-पंद्रह  वर्ष  तक……?!

हमने  देखा,  पढ़ा  और  सुना  भी  नहीं  था
21 वीं  सदी  से  पहले  !

हम  मगर  इतना  अवश्य  जानते  हैं
के  किसी  भी  बन्दर  की  आयु
15-20  वर्ष  से
अधिक  नहीं  होती
भले   ही  वह  सरदार  हो
या  असरदार !

तथापि, 
ये  तो अद्भुत  बन्दर  हैं  दोनों
कच्चे  सूत  पर  मलखंभ
दिखाने  वाले  !

कुछ  भिन्नताएँ  भी  हैं  दोनों  में
पहला  जन्म-जात  सरदार 
दूसरा  अभी  बनने  की  प्रक्रिया  में
दोनों  को   अमेरिका  प्रिय  है
अपनी  मातृ-भूमि  से
मगर  एक   अमेरिका  की  नाक  का  बाल
दूसरा  अमेरिकी  आँखों  की  किरकिरी
पहला  मौन  कभी  न  तोड़ने  वाला
दूसरा  समय-असमय  कभी  भी
बोल  पड़ने  वाला
एक  इतना  विनम्र
कि  अधमरा  लगे
दूसरा  इतना  ख़ूंख़्वार
कि  सोते  बच्चे  जाग  जाएं  डर  कर ....

दोनों  के  दोनों 
पूंजीपतियों  के  ख़रीदे  हुए  गुलाम  …।

बहरहाल,  हैं  दोनों  ही 
शत-प्रतिशत  बन्दर
अपने-अपने  मदारियों  के  इशारों  पर
नाचने  वाले  !

आपका,   हमारा  और
सारे   देश  का  दुर्भाग्य
कि  चुनना  हमें  है  …

तो,   किसे  चुनेंगे   इस  बार
पहले  या  दूसरे  को
या  किसी  और  जानवर  को
जो  बन्दर  न  हो  कम  से  कम
पूंजीपतियों  के  तलुए  चाटने  वाला  !

                                                   ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल  

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बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

सितम्बर के शुरू में तितलियाँ

हो  सकता  है 
कुछ  लोग  इसे
मात्र  एक  अफ़वाह  समझें
मगर  यह  सच  है
शत-प्रतिशत
कि  हमारे  शहर  में  आज  भी
सितम्बर  के  शुरू  में  तितलियाँ
हर  साल   आती  हैं  !

वे  कभी   हमारे  शहर  से
नाराज़   नहीं   हुईं

हमारे  शहर में
कौव्वे  भी    आते   हैं
श्राद्ध-पक्ष  में  पूर्वजों   की  भाँति
और   ग्रहण  करते  हैं
अपना  अर्घ्य  !

गौरैयां ?
वे  तो  अब  भी
लगभग  हर  घर  के  आँगन  में
नज़र   आ  ही  जाती  हैं
दाने  मांगते  हुए
और   घोंसले   बनाते  हुए।

वैसे  मनुष्यता  भी  जीवित  है
हमारे  शहर  में
शहर-भर  में  फैली 
हरियाली  की  तरह …।

                                              ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल

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सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

शोर का सौन्दर्य-बोध !

यदि  उत्सव  वर्ष  चलते  रहते
तो  सोचिए
क्या  हाल  होता
आपके  कानों  का ?

मां  एक  भजन  गाती  थीं
तो  दिन-भर 
कोई  और  गीत  सुनने  का
मन  नहीं  होता  था

कभी  लता  दी  का  गाया  भजन 
ज़ुबान  पर  आ  जाता
तो  सारे  काम  छूट  जाते
अधूरे

कभी  रफ़ी  साहब  के  भजन 
सुनाई  दे  जाते
तो सारा  दिन  सफल  हो  जाता 

मन्ना  दा 
मुकेश  जी
सुधा  मल्होत्रा  जी
हरि  ओम  शरण ....
कितने  अनमोल  भजन-गायक  होते
एक  से  एक  अनुपम 
सीधे  आत्मा  तक  पहुंचते  शब्द...
छोड  कर 
लोग  हर  बे-सुरे,  बे-ताले 
फटे  बांस  जैसी  आवाज़ों  वाले
पैरोडी-भजन 
जबरन  आपके  कानों  में 
ठूंस  रहे  होते  हैं
तो  सच  बताइए, 
क्या  आपको  धर्म  के  नाम  से  ही 
घिन  नहीं  होने  लगती ???

                                                   ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल 

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शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

नवरात्र आ गए !

गर्भ  में  जो  पल  रही  है
वह  बेटी  है...

उसकी  पूजा  करोगे
या  मार  डालोगे ?

मारोगे  कैसे
क्या  जन्म  से  पहले
या  जन्म  के  बाद
गले  में  तम्बाकू  दबा  कर
या  जीती-जागती  ही  खेत  में
गाड़ डालोगे

ज़िंदा  रखोगे  तो  कब  तक
क्या  ब्याह  दोगे  बचपन  में  ही
या  ससुराल  वालों  को  सौंप  दोगे
जला  कर  मार  देने  के  लिए

मन-मर्ज़ी  से  ब्याह  कर  लिया
तो  क्या  बेटी-दामाद  को  स्वीकार  करोगे
या  दोनों  को  उतार  दोगे  मौत  के  घाट ?


अच्छा, पाल  कर  क्या  करोगे
शिक्षा  दिलाओगे
नौकरी  करने दोगे
आगे  बढ़ने  दोगे  उसे
कुल  का  नाम  ऊंचा  करने  के  लिए ?

तुम्हारे  लिए  केवल 
कुल  का  सम्मान  प्रासंगिक  है
तुम  क्या  करोगे  बेटी  को  जन्म  दिला  कर

तुम  तो  बस  देवी  पूजो
नवरात्र   आ  गए  !

                                                                     ( 2013 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

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गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

समय अंतिम न्यायाधीश है !

समय- न्यायाधीश ने
फिर  सान पर  रख  दी हैं
अपनी  तलवारें
फिर  छलछलाने लगा है रक्त
उस सर्व-शक्तिमान की आंखों  में

कुछ सिर  कट  गिरे  हैं 
बहुत  से  सिर
और  तख़्त-ताज  बाक़ी हैं  अभी
जिन्हें कट  कर  गिरना  है

देखते  जाइए
कल  किसकी  बारी  है
हम  भी  संभवत:  उसकी  सूची  में
होंगे  कहीं  न  कहीं
अपने  मौन  और  अकर्मण्यता  के  चलते...

समय  अंतिम  न्यायाधीश  है
जिससे  आशाएं  की  जा  सकती  हैं
अभी भी !

मौन  भयंकर  अपराध  है
समय  की  आंखों  में
और  अकर्मण्यता  भयंकरतम !

                                                   ( 2013 )
                                       
                                         -सुरेश  स्वप्निल

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मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

कितना कठिन होता है

होता तो बहुत कुछ है मन में
लेकिन  पूरा  कहां  होता  है  अक्सर
मन  का सोचा  हुआ  ?

मसलन,  देश  और  समाज  के  प्रति
अपना  कर्त्तव्य-बोध
माता-पिता  के  लिए
अपूरित  इच्छाओं  का  बोझ
संतान  के  लिए  चिंताएं
और  उनके  लिए  बनाई  गई

तमाम  योजनाएं....

एक  मध्यम-वर्गीय  भारतीय  के  लिए
कितना  कठिन  होता है
उम्र  भर  अपने-आप  को
नेक  रास्ते  पर 
चलाते  रहना...

काश !  सरकारें  समझ  पातीं
कि  यदि
जनता  के  मन  में  दबे  हुए  ज्वालामुखी 

फट  जाएं  किसी  दिन
तो  कैसी  प्रलय  आ  सकती  है
देश  में  !

                                                        (2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल