कुछ दिन रह आए वे भी
सत्ता के अंत: गृह में
जो हमेशा भगा दिए जाते थे पहले
उस गली में घुसने से पहले !
दलित, वंचित और समाज से बहिष्कृत
सभी को
मिल ही गया एक अवसर
एक नई कर्म-संस्कृति को
जन्म देने का !
कभी-कभी
लोकतंत्र सचमुच लगने लगता है
बड़े काम का !
कभी-कभी
तंत्र का एक न एक अंग
अचानक जाग उठता है
अपने कर्त्तव्यों को लेकर !
लेकिन जो कुछ भी सार्थक
नज़र आता है
वह चार दिन का तमाशा ही हो कर
क्यों रह जाता है ?
आख़िर क्यों नहीं होता ऐसा
लोकतंत्र में
कि संविधान में शामिल
सारी अच्छी बातें
सामान्य लगने लगें
रोज़मर्रा के कामों की तरह ?
मिथक तोड़ दिए गए हैं
और द्वार खोल दिए गए हैं
सारी लोकतांत्रिक संभावनाओं के
आम आदमी के लिए
आम आदमी द्वारा !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
...
सत्ता के अंत: गृह में
जो हमेशा भगा दिए जाते थे पहले
उस गली में घुसने से पहले !
दलित, वंचित और समाज से बहिष्कृत
सभी को
मिल ही गया एक अवसर
एक नई कर्म-संस्कृति को
जन्म देने का !
कभी-कभी
लोकतंत्र सचमुच लगने लगता है
बड़े काम का !
कभी-कभी
तंत्र का एक न एक अंग
अचानक जाग उठता है
अपने कर्त्तव्यों को लेकर !
लेकिन जो कुछ भी सार्थक
नज़र आता है
वह चार दिन का तमाशा ही हो कर
क्यों रह जाता है ?
आख़िर क्यों नहीं होता ऐसा
लोकतंत्र में
कि संविधान में शामिल
सारी अच्छी बातें
सामान्य लगने लगें
रोज़मर्रा के कामों की तरह ?
मिथक तोड़ दिए गए हैं
और द्वार खोल दिए गए हैं
सारी लोकतांत्रिक संभावनाओं के
आम आदमी के लिए
आम आदमी द्वारा !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
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